आजकल सर्वोच्च न्यायालय इस मुद्दे पर विचार कर रहा है कि राजनीति में धर्म का इस्तेमाल किया जाए या नहीं? 20 साल पहले इसी अदालत का दिया गया वह निर्णय भी बहस का मुद्दा है कि हिंदू धर्म, धर्म नहीं है। वह जीवन-पद्धति है? क्या हिंदुत्व को धर्म या मज़हब या रिलीजन कहा जा सकता है? जाहिर है कि यह मुद्दा इतना उलझा हुआ है कि इस पर एक राय नहीं हो सकती। यदि अदालत कोई दो-टूक फैसला सुना देगी तो भी लोग उसे मानेंगे या नहीं, कुछ पता नहीं। आखिरकार, संसद को ही इस मसले पर कानून बनाना पड़ेगा। पिछले 20 साल से संसद इस मुद्दे पर मौन है।
असल बात तो यह है कि अकेली संसद और अदालतें इस मुद्दे को तय नहीं कर सकतीं। इस पर एक विराट राष्ट्रीय बहस की जरूरत है, जिसमें धर्मों के धुरंधर, दर्शन के विद्वान, राजनीति-शास्त्री और तरह-तरह के संगठन अपने विचार खुलकर व्यक्त करें। अभी अदालत के सामने असली मुद्दा यह है कि क्या धर्म के नाम पर वोट मांगे जा सकते हैं? क्या यह जन-प्रतिनिधित्व कानून का सरासर उल्लंघन नहीं है? धर्म के नाम पर वोट कब नहीं मांगे गए? धर्म ही नहीं, जाति, भाषा और व्यवसाय के नाम पर वोट मांगे जाते रहे हैं। केंद्र और प्रदेशों में ऐसी कई सरकारें चलती रही हैं, जिनके चुनाव-प्रचार में उपरोक्त आधारों पर थोक वोट बटोरे गए हैं। यहां असली समस्या ‘थोक वोट’ की है। थोक वोट लेने के लिए कभी धर्म, कभी जाति और कभी धंधों का सहारा खुलकर लिया जाता है। कभी हिंदू वोट, कभी मुस्लिम वोट, कभी ईसाई वोट, कभी सिख वोट और कभी ब्राह्मण वोट, कभी राजपूत वोट, कभी बनिया वोट, कभी पिछड़ा, कभी आदिवासी और कभी अनुसूचित वोट उभरकर सामने आ जाता है। जब थोक में ही वोट लेना है तो फिर कोई सीमा क्यों? इसलिए किसान वोट, जवान वोट जैसे नारे भी अक्सर सुनने में आ जाते हैं। थोक वोट का अर्थ होता है, ऐसा वोट जिसे देते वक्त नागरिक अपने विवेक को ताक पर रख देता है। वह अपने विवेक का कम, अपनी थोक पहचान का इस्तेमाल ज्यादा करता है। पार्टियों को प्रायः ऐसे ही वोट की तलाश रहती है। धर्म या मज़हब या जाति की पकड़ इंसान पर सबसे ज्यादा होती है। यह उसकी पहचान होती है, इसीलिए सभी पार्टियां इसका सहारा लेने में जरा भी नहीं चूकती हैं।
अब सवाल सिर्फ धर्म का ही नहीं है, सर्वोच्च न्यायालय को यह भी सोचना होगा कि थोक वोट का क्या इलाज किया जाए? जहां तक धर्म का सवाल है, यदि गांधीजी की कही मानें तो वे कहते थे कि राजनीति को धर्म से अलग कर ही नहीं सकते। वे कहते थे कि मेरी राजनीति ही मेरा धर्म है। यहां धर्म का मतलब संप्रदाय नहीं है, मज़हब नहीं है, रिलीजन नहीं है बल्कि कर्तव्य है। यह धर्म अदालत की चिंता का विषय नहीं है। उसकी चिंता का विषय ‘हिंदुत्व’ है। क्या हिंदुत्व को धर्म माना जा सकता है? वास्तव में हिंदुत्व न तो धर्म के वास्तविक हिसाब से धर्म है और न ही सांप्रदायिक अर्थ में धर्म है। यह शब्द ही अपने आप में एक पहेली है। हिंदू लोग जिन्हें अपने पवित्र धर्मग्रंथ मानते हैं, उनमें हिंदू शब्द का कहीं उल्लेख भर भी नहीं है। न वेदों में, न दर्शनों में, न उपनिषदों में, न गीता में! उल्लेख कहां से होता? यह शब्द तो मुसलमानों का दिया हुआ है। वे भारत में आए, 11-12वीं सदी में। उन्होंने उस समय के हर भारतीय को हिंदू कहा। आज भी उनके लिए हर भारतीय हिंदू है, क्योंकि वह हिंद का वासी है। हिंद क्या है, सिंध है। अरबी और ईरानी लोग ‘स’ को ‘ह’ बोल देते हैं। सिंधु नदी के पार रहने वाले सभी भारतीय हिंदू हैं। भारतीय मुसलमान और ईसाई भी जब आजकल अरब और फारस के देशों में जाते हैं तो उन्हें कभी ‘हिंदू’ और कभी ‘हिंदी’ बोला जाता है। इस दृष्टि से हिंदुत्व शब्द असीम बन जाता है, लेकिन हिंदुत्ववादियों से आप पूछें तो वे तुरंत बता देंगे कि भारत में गैर-हिंदू लोग कौन-कौन हैं? इन गैर-हिंदुओं से आप पूछें तो वह आपको साफ-साफ कहेंगे कि वे हिंदू नहीं हैं। इसका अर्थ यह हुआ कि सैद्धांतिक और एेतिहासिक दृष्टि से हिंदू शब्द का अर्थ चाहे जितना व्यापक हो, आज व्यावहारिक दृष्टि से वह एक जन-विशेष का परिचायक है। वह धर्म-विशेष का परिचायक नहीं है, क्योंकि अपने आप को हिंदू कहने वाला आदमी यह भी कह सकता है कि वह किसी धर्म को नहीं मानता। वह नास्तिक है। आप उसे गैर-हिंदू नहीं कह सकते।
हिंदू धर्म जैसा लचीला धर्म दुनिया में कोई और नहीं है। जो भगवान को माने, वह भी हिंदू और जो न माने, वह भी हिंदू। जो मूर्तिपूजा करे और जो न करे, जो एक परमेश्वर को माने और सैकड़ों देवी-देवताओं को माने- वे सब हिंदू हैं। इसका अर्थ क्या हुआ? क्या यह नहीं कि हिंदू धर्म अन्य धर्मों की तरह मज़हब नहीं है, रिलीजन नहीं है, संप्रदाय नहीं है। संगठित नहीं है। इसमें कोई पोप, कोई मुफ्ती, कोई धर्मगुरु नहीं है। इसलिए अदालत यदि हिंदू या हिंदुत्व को धर्म घोषित करेगी तो वह बिल्कुल भी तर्कसंगत नहीं होगा। इसीलिए हिंदू धर्म को 20 साल पहले सर्वोच्च न्यायालय ने जीवन-पद्धति कहा था। ऐसी जीवन-पद्धति, जो उसे मानने वालों को असीम आजादी देती है। जहां तक ‘हिंदुत्व’ का सवाल है, यह शब्द धार्मिक कम, राजनीतिक ज्यादा है। इसका प्रयोग चाहे शिवाजी ने किया हो या सावरकरजी ने! हिंदुत्व का नारा देने वाले कौन हैं? सावरकरजी! इस शब्द पर ग्रंथ लिखा, िवनायक दामोदर सावरकर ने! वे स्वयं नास्तिक थे। वे गोमांस-भक्षण के विरोधी नहीं थे। उनके लिए सारे मांस-भक्षण एक-जैसे हैं। वे महान तर्कशास्त्री थे। जो लोग आज ‘हिंदुत्व’ के सबसे बड़े वकील बनते हैं, उनका धर्म या धर्मशास्त्रों से क्या लेना-देना है? वे वेदों और उपनिषदों के नाम तक नहीं जानते। इसीलिए अदालत हिंदुत्व को धर्म घोषित करने के पहले हजार बार सोचेगी।
इस समय सर्वोच्च न्यायालय को हिंदुत्व शब्द की चीर-फाड़ में समय और दिमाग खपाने की बजाय थोक वोट की सारी तिकड़मों पर कड़े प्रतिबंध लगाने चाहिए। जाहिर है कि कानूनी प्रतिबंधों से मनुष्यों की इस भेड़-चाल पर पूर्ण प्रतिबंध लगाना लगभग असंभव है। जरूरी यह है कि भारत के नागरिकों में शिक्षा और प्रचार के द्वारा ऐसी जागरूकता पैदा की जाए कि वे अपना अमूल्य वोट देते समय अपने विवेक का प्रयोग करें। वे मनुष्य हैं। वे बुद्धि और निर्णय-क्षमता संपन्न हैं। वे पशुओं के रेवड़ की तरह वोट क्यों डालें?