पिछले दो महिनों में मैं लगभग दर्जन भर नगरों में गया। विभिन्न प्रांतों के इन नगरों में कार से यात्रा करने का लाभ यह हुआ कि अन्य दर्जनों शहरों और गांवों से भी गुजरना पड़ा। उनके मोहल्लों और बस्तियों को नजदीक से देखने का भी मौका मिला। मैंने सोचा कि प्रधानमंत्री जी ने जो स्वच्छ-भारत अभियान चलाया है, उससे इन शहरों और गांवों का काया पलट हो गया होगा लेकिन ऐसा लगा कि ये पहले से भी ज्यादा गंदे हो गए हैं। ये ज्यादा गंदे तो क्या हुए होंगे लेकिन एक खास नजरिए से देखने की वजह से काफी गंदे लग रहे थे।
वे पहले इतने गंदे नहीं लगते थे, क्योंकि गंदगी हमारी नज़र का एक हिस्सा बन चुकी थी। इसका मतलब यह भी नहीं है कि मोदी के स्वच्छता अभियान से दुखी होकर लोगों ने साल-डेढ़ साल से ज्यादा गंदगी फैलानी शुरु कर दी है। प्रधानमंत्री की यह पहल अद्भुत थी लेकिन यह अखबारों, टीवी के पर्दों और इश्तहारों में सिमटकर रह गई। जगह-जगह कचरे के ढेर लगे होते हैं। दूर-दूर तक वे सडांध मारते रहते हैं। उनके आस-पास सूअरों के बच्चे टूट पड़ते हैं। गाय और भैंस भी अपने लिए कुछ न कुछ ढूंढती रहती हैं। मोहल्लों और बाजारों के बीच लगे इन गंदे ढेरों की बदबू से बचने के लिए अपनी नाक पर रुमाल रखना पड़ता है।
कई गांवों में मैंने देखा कि पगडंडियों और सड़कों के किनारे पाखाने का ढेर लगा हुआ है। बरसात में उनकी बदबू घरों तक पहुंची रहती है। यह बीमारी का शर्तिया इंतजाम है। दो दिन से मैं इंदौर में हूं। इस शहर की स्वच्छता पर हम कभी नाज किया करते थे लेकिन इसका हाल भी वैसा ही है, जैसा कि मैं ऊपर बता चुका हूं। और यह तब है जबकि इंदौर का नगर निगम मोदी का है, मप्र की सरकार मोदी की है और केंद्र की सरकार भी मोदी की है।
अब मोदी तो यहां आकर झाड़ू लगाने से रहे। वे तो नौकरशाहों के मोहताज हैं। मैं पूछता हूं, खास तौर से, अमित शाह से, कि आपकी पार्टी के 13 करोड़ सदस्य क्या कर रहे हैं? वे किस काम के हैं? जब तक वे सक्रिय नहीं होंगे, यह स्वच्छता अभियान सिर्फ पोस्टरबाजी बनकर रह जाएगा।