पीवी नरसिंह राव और शिबू सोरेन। एक देश का प्रधानमंत्री तो दूसरा प्रधानमंत्री की कुर्सी बनाये रखने के लिये करोड़ रुपये की घूस लेने वाला। और अदालत ने दोनों को ही दोषी करार दिया। लेकिन इतिहास में नरसिंह राव अल्पमत में होते हुये भी पांच बरस तक सत्ता चलाने वाले पीएम माने गये और शिबू सोरेन उसके बाद से कभी चुनाव हारे नहीं ।
तो क्या सुप्रीम कोर्ट जिस राजनीतिक व्यवस्था को पाक साफ करने के लिये दागी राजनेताओं को रोकना चाहता, उसी राजनीतिक व्यवस्था में ऐसा खोट आ चुका है कि दोषी होने के पहले रास्ते से बचने को ही राजनेता एड़ी चोटी का जोर लगाने लगेंगे। यह सवाल जयललिता से लेकर लालू यादव और फूलन देवी से लेकर राजा भैया तक के केस से समझा जा सकता है।
क्योंकि 13 बरस पहले जयललिता को 3 बरस की सजा निचली अदालत ने सुनायी। लेकिन जयललिता मामले को हाई कोर्ट में ले गयी और आज तक उन्हें जेल जाने की नौबत नहीं आयी है। बीते एक दशक से लालू यादव चारा घोटाला में आरोपी हैं लेकिन फैसला आजतक नहीं आ पाया है। फूलन देवी हत्या से लेकर अपहरण और फिरौती से लेकर जातीय नरसंहार तक में दोषी करार देने के बाद भी संसद पहुंची और ठसक से विशेषाधिकार का लाभ उठाती रहीं। राजा भैया कई आरोपों में दोषी होने के बाद और जेल जाने के बाद भी सत्ता की सारी सुविधाओं को ना सिर्फ भोगते रहे बल्कि दोबारा चुनाव जीतकर अपनी राजनीतिक साख को और मजबूत बना गये। और इस प्रकिया को मौजूदा लोकसभा के सांसदों ने कितना मजबूत किया है यह नेशनल इलेक्शन वाच की रिपोर्ट से समझा जा सकता है। जो बताती है कि लोकसभा में 150 सांसद दागी है। और दागियों को उम्मीदवार बनाने में सबसे आगे कांग्रेस और बीजेपी है ।
लेकिन सुप्रीम कोर्ट की दागी राजनेताओ पर नयी नकेल क्या राजनीतिक व्यवस्था को पाक साफ वाकई बना देगी या आपराधिक छवि के नेताओं में कोई डर पैदा करेगी। या फिर राजनेताओं की राजनीति का अहम हिस्सा अब नीचली अदालत से दो बरस सजा ना पाने का होगा या सत्ताधारियो की राजनीति का अहम हिस्सा विरोधियों को दो बरस की सजा दिलवाने का होगा। क्या हालात ऐसे भी आ सकते हैं। यह सवाल इसलिये क्योंकि ना पुलिस सुधार ना अदालती फैसलों में तेजी से निपटारा और ना चुनाव आयोग के फैसलों पर संसद का ठप्पा। बावजूद इसके राजनेता सुधर जायें या सत्ता की होड़ में अपराध रुक जाये क्या यह संभव है। सुप्रीम कोर्ट के आज के फैसले ने अब यह सवाल बड़ा कर दिया है कि अगर किसी दागी राजनेता के आगे पुलिस या जांच एजेंसी नतमस्तक है। अगर निचली अदालत के फैसले उपरी अदालत में और हाईकोर्ट के फैसले सुप्रीम कोर्ट में बदल जाते हो तो फिर दोषी के दोष को सही माना कब जाये। साथ ही संसद अगर चुनाव आयोग के उस फैसले को ही नकारात्मक मान लें, जहां वोटरों के सामने किसी भी उम्मीदवार को वोट ना देने का विकल्प हो।
तो फिर खोट है कहां क्योंकि शिबूसोरेन को दिल्ली की तीस हजारी कोर्ट दोषी करार देते हुये तुरंत गिरफ्तारी का आदेश देती है और जयललिता को तमिलनाडु की निचली अदालत दोषी करार देते हुये उपरी अदालत में अपील करने के लिये तीन महीने का वक्त दे देती है। इसी तर्ज पर राजनेताओं के खिलाफ करीब 70 फीसदी तक पुलिसिया जांच नीचली अदालत से उपरी अदालत तक पहुंचते पहुंचते उलट हो जाती है । यह सारे सवाल अब नये सिरे से इसलिये महत्वपूर्म हो गये है क्योकि ग्राम पंचायत से लेकर संसद तक चुने हुये प्रतिनिधियो की तादाद 36 लाख 60 हजार 868 है । और इस कतार में शामिल होने के लिये करोडो नेता गांव से लेकर दिल्ली के रायसीना हिल्स के चक्कर लगाते है । और सभी नेता बनने के लिये अपने अपने घेरे मे आम आदमी की औसत कमाई से सिर्फ 4000 से 5000 फिसदी रुपया ज्यादा खर्च करते है ।
सवाल यही है कि जब रुपये पर ही जीत हार जा टिकी है तो फिर कोई भी नेता कमाई करने के लिये ही चुनाव लडेगा । और कमाई का मतलब होगा आय से ज्यादा संपत्ति । संयोग देखिये जिसके कटघरे में जयललिता, मुलायम और मायावती तीनों ही खड़े हैं। और तीनों में से किसी को भी आने वाले वक्त में सजा हो गई तो जयलिलता की तो कुर्सी जायेगी मुलायम और मायावती 2014 के चुनावी रेस से ही बाहर हो जायेंगे। और फैसला ना आये इसके लिये नेता किसी भी हद तक जाने से चुकेंगे नहीं। ऐसे में न्यापालिका या संसदीय व्यवस्था पर अंगुली उठाने वाली जनता को सड़क पर आकर सुधार या बदलाव की बयार तो बहानी ही होगी। याद कीजिये साल भर पहले देश ने पहली बार राजनेताओं के खिलाफ आम लोगों का आक्रोश सड़क पर देखा भी और सड़क से संसद को चुनौती भी दी। और उस वक्त देश के मिजाज से इतर तमाम राजनीतिक दल ही पार्टी लाइन छोड़कर एक साथ खड़े हो गये, जिससे सांसदों पर आंच ना आये। उस वक्त आपराधिक छवि वाले सांसदों से लेकर आदालतों की लेट लतीफी और सत्ताधारियों के पक्ष में फैसलो को लेकर सवाल उठ रहे थे।
असल में सुप्रीम कोर्ट ने जिस राजनीतिक व्यवस्था को साफ सुधरा बनाने की सोची है उसे साफ सुधरा बनना तो संसद का ही काम है। लेकिन सांसद खुद कितने दागदार हैं, इसकी एक मिसाल नेशनल इलेक्शन वाच ने अपनी जांच के बाद रखी। मौजूदा लोकसभा में 162 सांसद दागी है। 76 सांसदों के खिलाफ कड़े आपराधिक मुकदमे पेंडिंग पड़े हैं।
मुश्किल सिर्फ सांसद विधायकों के आपराधिक छवि के होने भर का नहीं है। सवाल है कि जिस जनता की नुमाइन्दी राजनेता करते हैं, उससे इनका कोई सरोकार कितनी दूर तक नहीं है यह विशेषाधिकार पाये सांसदो के हालात को देखकर भी समझा जा सकता है। देश में एक फिसदी से भी कम करोड़पति है। लेकिन संसद में 58 फीसदी करोड़पति है। औसतन देश में आर्थिक विकास दर 6 फीसदी से ज्यादा होती नहीं है लेकिन सांसदो की कमाई सालाना 200 फीसदी की दर से बढ़ती है। मुश्किल यह है कि राजनेताओं को लेकर सड़क पर जनता का आक्रोश अब सिल्वर स्क्रीन के लिये भी मुनाफे वाली थीम हो चुकी है और सिनेमायी पर्दे पर फिल्म पान सिंह तोमर में सांसदों को डकैत कहा गया तो जनता ने तालियां पीटीं और अब फिल्म सत्याग्रह में सांसद अपनी कमाई के तर्क को सिल्वर स्क्रीन पर कुछ इस तरह गढ़ते नजर आ रहे हैं, जैसे वह जनता के नुमाइंदे नहीं बल्कि कारपोरेट हैं। सुधार यही है कि पान सिंह तोमर को ऱाष्ट्रीय पुरस्कार से नवाजा गया और सत्याग्रह को भी वही सरकार संभवत: राष्ट्रीय पुरस्कार देगी, जिस पर सवालिया निशान लग रहे हैं।