समय की धार के आगे सब बेदम हैं सबके दय है फिर बात चाहे भगवान कृष्ण की हो या श्री राम की हो, एक रणछोड़ कहलाए और अंत भील के तीर से हुआ वही राम को मिलते राजपाट की जगह 14 वर्ष का वनवास मिला, भगवान शिव पर शनि का समय आया तो पृथ्वीलोक में हाथी वन विचरण करना पड़ा, त्रिकालदर्शी रावण को राम की वानर सेना से हारना पड़ा। महाभारत में पाण्डवों द्वारा निहत्थे कृष्ण को जब लिया तब किसी ने कौरवों की विशाल सेना के विरूद्ध जीत का सोचा भी नहीं होगा लेकिन जीत हुई ये सब समय का ही खेल है।
वर्तमान में राजनीति एवं उनके मोहरे भी समय के चक्र में कुछ ऐसे ही घूम रहे हैं भारत का दिल दिल्ली भी शुरू से ही सभी का आकर्षण का केन्द्र रही है फिर बात चाहे समय महाराजाओं की हो मुगलों की हो, ब्रिटिशर की हो या वर्तमान की हो सभी की निगाहें दिल्ली के तख्त पर ही टिकी रहती है। राजनीति में इसे समय की मार ही कहेंगे की 100 वर्ष पुरानी पार्टी औंधे मुंह गिरी पड़ी है और छोटी से बड़ी बनी पार्टी अपने विजयरथ को अवाध गति से दौड़ा रही है।
यहां फिर समय ने अपना समय दिखाया कि भाजपा जैसी बड़ी पार्टी को एक नवोदित पार्टी ’’आप’’ जिसमें उसका दम फुला कर रखा है इसे समय की मार कहें या खेल। ‘‘आप‘‘ के केजरीवाल और भाजपा की किरण बेदी मुख्यमंत्री के चेहरे के रूप में हैं, दोनों ही नौकरशाह हैं। एक ने गुण्डों एवं अपराधियों के बीच अपने 40 साल बितायें है तो दूसरे ने 10-12 साल लक्ष्मी अर्थात आयकर में। दोनों अपनी-अपनी तासीर है। दोनों ही गैर राजनीतिक रहे हैं एवं दोनों ही भ्रष्टाचार के विरूद्ध शुरू हुये एतिहासिक आन्दोलन की उपज है। राजनीति के चक्रव्यू में चौतरफा से हो रहे हमले को झेलता राजनीति का एक छोटा सा पौधा केजरीवाल वही शक्तिशाली पार्टी भाजपा की ‘किरण’ है। राजनीति की जंग में सब जायज है आपसी जुबानी जंग में व्यस्त हैं। केजरीवाल कहते हैं मेरे साथ भगवान है तो किरण के पीछे पूरी फौज केजरीवाल इन्साफ के लिये धर्म की लड़ाई में अपने को भगवान के सहारे मानते हैं वहीं किरण बेदी दम्भ से लबरेज हारने की नहीं जीतने की ही बात कहती हैं। केजरीवाल राजनीति का मजा ले चुके हैं वही किरण इस क्षेत्र में नई नवेली है। नौकरी में प्रमोशन में राजनीति का शिकार भी उसी दिल्ली में हुई सो राजनीती की ताकत एवं कहर देानों से भली भांति परिचित है। ज्यों-ज्यों मतदान की तारीख पास में आती जा रही है त्यों-त्यों सभी की धड़कने बढ़ रही है बल्कि कुछ को राजनीति का लकवा भी पड़ चुका है। ये समय का ही तो खेल है। समय नहीं मोदी को मोदी होने के मायने दिये वर्ना और भी थे इस समर में दिल्ली का चुनाव हकीकत में देखा जाए तो अब केजरीवाल बनाम नरेन्द्र मोदी के इर्द-गिर्द आकर ठहर गया है, पश्चिम बंगाल की मुख्यमंत्री बहिन ममता बेनर्जी भी अब केजरीवाल के समर्थन में उतर आई हैं वहीं अन्य गुपचुप तरीके से केजरीवाल की सेना को सहायता देने में जुट गए हैं फिर बात चाहे चंदे की हो गुप्त समर्थन की हो। राजनीतिक पाटियां अपनी-अपनी मिलने वाली संभावित सीटों का सर्वे भारी भरकम रकम देकर भी करवाने में जुटी है, निःसंदेह होगा वही जो जनता ने सोचा है लेकिन फिर भी जनमत संग्रह से एक मनोवैज्ञानिक प्रभाव तो जनमानस पर पड़ता ही है इस चुनाव में एक अद्भुत बात देखने को मिल रही है बड़े-बड़े नेता विकास को छोड़ मुद्दों से भटक भाषा के संयम को तोड़ व्यक्तिगत हमले एक दूसरे पर कर रहे हैं। जो स्वस्थ्य राजनीतिक प्रतिस्पर्धा में न केवल जहर बोल रहे हैं बल्कि राजनीति में आई गिरावट को भी प्रदर्शित कर रहे हैं यह भी सौ टका सत्य है कि चंदे के धंधे को ले कोई भी पार्टी पारदर्शिता नहीं चाहती। कुल मिलाकर इस चुनाव में कई महारथियों की इज्जत भी दांव पर लगी है, जीत और हार तो समय ही बतायेगो। लेकिन यहां एक बात सुनिश्चित है इस चुनाव में राजनीति को जरूर एक नई दिशा मिलेगी।