यह लेख ना ही किसी का बचाव है और ना ही किसी का समर्थन करता है। यह लेख केवल बुद्धिजीवियों की मानसिक कसरत के साथ चिंतन की दिशा और दशा में एक प्रयास मात्र है।
वेद प्रताप वैदिक न केवल एक ख्यातिनाम पत्रकार है बल्कि एक अच्छे लेखक एवं विश्लेषक भी है। हिन्दी के मान-अभिमान के लिए न केवल लड़ाई बड़ी बल्कि अपना शोध कार्य भी हिन्दी में जमा कर उस वक्त एक मिसाल भी कायम की थी। ऐसी अनेकों उपलब्धियां उनके खाते में है।
यूं तो भारतीय विषय के पाण्डित्यों को पाकिस्तान की यात्रा न केवल जोखिम भरी रही है बल्कि आलोचनात्मक भी रही है, फिर बात चाहे राजनीति के पण्डित लालकृष्ण आडवानी का जिन्ना की मजार पर फूल चढ़ाना हो या जसवंत सिंह का जिन्ना में सेक्यूलर दिखना हो या फिर स्वतंत्र लेखनी के धनी वेद प्रताप वैदिक की हो, विभाजन एवं पाकिस्तान का भारत के प्रति शत्रुवत् व्यवहार पुराने जख्मों को न केवल हरा भरा कर देते हैं बल्कि भारतीय जनमानस में प्रतिशोध की ज्वाला को भी भड़का देते हैं, इसकी पीड़ा के पीछे कुछ कड़वे सचों की पृष्ठ भूमि के साथ मिले कुछ धोखे भी है। फिर बात चाहे अटलबिहारी बाजपेई द्वारा किये सदप्रयास दोनों देशों के बीच चलाई गई बस हो या अन्य दोस्ती के प्रयास बदले में पाया है तो कारगिल युद्ध के रूप में एवं हमारे वीर सैनिकों का सिर काटने का विश्वासघात यूं तो क्षमा वीरों का आभूषण हैं लेकिन कब तक? अब इन्तहा हो गई है। अब पीर पर्वत सी हो गई हैं इसे पिघलना या पिघलाना ही होगा। चाहे इसे सरकार करे या पत्रकार।
हाल ही में वेद प्रताप वैदिक की पाकिस्तान यात्रा के दौरान् दुर्दान्त आतंकी एवं मुम्बई हमले का मुख्य आरोपी हाफिज सईद से हुई मुलाकात हो या दोनों देशों की दुखती रग कश्मीर हो। वैदिक द्वारा कश्मीर पर दिया गया विवादित बयान ‘‘मैं समझता हूं कि अगर दोनों तरफ के कश्मीरी तैयार हो और दोनों देश भी तैयार हो तो तीसरे विकल्प कश्मीर को ‘‘आजाद मुल्क’’ करने में कोई बुराई नहीं हैं। कश्मीर एक शानदार जगह बन जाए लेकिन वो फिर हमसे ज्यादा पाकिस्तान का सिरदर्द होगा और खुद भी परेशान रहेगा इसलिए उसका आजाद मुल्क होने में उसी का नुकसान हैं।’’
पूरा घटनाक्रम केवल दो बिन्दुओं पर ही टिका है। पहला भारत में मोस्ट वान्टेड आतंकी से मुलाकात दूसरा भारत का मस्तक भाल अर्थात् कश्मीर पर अपनी स्वच्छद अभिव्यक्ति।
मेरी बात समझने के लिए कुछ मुख्य शब्दों एवं भावनाओं को समझ लें ताकि आगे कहीं गई बातों का भावार्थ अन्य अर्थों में न हो। पहला एवं अहम ‘‘पत्रकार’’ केवल आवाम एवं सरकार के बीच सेतु मात्र होता है। उसके निजी विचारों का कोई भी स्थान तब तक नहीं होता जब तक की उसकी राय को सरकार/शासन या आवाम न मांगे।
अब वक्त आ गया है कि भारत के अंदर और भारत के बाहर किसी भी प्रकार के आतंकवादियों से मुलाकात को सरकार किस नजरिये से लेती है, इसकी सीमा क्या हो? कहां तक हो? भेद स्पष्ट सरकार को करना ही होगा। कितने आश्चर्य और शर्म की बात है भारत-पाकिस्तान समेत अमेरिका जिस हाफिज सईद को दुनिया के समाने खोज रहा हो, सबको आंखे दिखाने वाला अमेरिका जिसने 60 करोड़ का इनाम घोषित कर रखा हो उसे न मिल भारत के एक पत्रकार वेद प्रताप वैदिक को न केवल मिल जाता है बल्कि वो उसका साक्षात्कार भी ले लेते है। खोज के इस मुद्दे पर वे न केवल वीरता एवं बधाई के पात्र है बल्कि सम्मान के भी। ये बहस एवं विधि का अलग मुद्दा हो सकता है कि भारत के मोस्ट वान्टेड आतंकी से मिलने के पहले क्या इस मुलाकात को भारत को विश्वास में लिया गया? पाक में स्थित भारत के उच्चायोग को पता था? या कोई गुप्त योजना का भाग था? गलत तो गलत ही रहेगा फिर चाहे उद्देश्य कितना ही पवित्र क्यों न हो, क्योंकि असलियत तो केवल वैदिक ही जानते हैं।
दूसरा कश्मीर को ‘‘आजाद मुल्क’’ बनाने का डॉ. वैदिक का बयान भारत का अभिन्न अंग कश्मीर पर न केवल प्रश्न चिन्ह लगाता है बल्कि भारत की अस्मिता पर भी प्रहार करता है। ऐसा भी नहीं कि इस तरह की बातें करने वाले वह पहले भारतीय है बल्कि इसके पूर्व भी कश्मीर के ही नेता, ख्याति प्राप्त लेखिका, तथाकथित बुद्धिजीवी कुछ-कुछ ऐसा ही कह चुके है। तुष्टीकरण के चलते मनमोहन सरकार कुछ भी नहीं कर पाई। यदि प्रारंभ में ही कोई कठोर कदम उठा लिया गया होता तो आज ये स्थिति नहीं आती। हालांकि वैदिक अपनी बात को आगे बढ़ाते हुए यह जरूर कहते नजर आते है इससे पाकिस्तान का ही सिरदर्द बढ़ेगा। केन्द्र सरकार एवं पाकिस्तान में स्थित भारत का उच्चायोग अपनी जवाबदेही से मुकर नहीं सकता है। अब जब भाजपा केन्द्र में शासित है, वक्त आ गया है वोट बैंक एवं तुष्टीकरण से ऊपर उठ कुछ कठोरतम निर्णय लेने का मसलन एक देश एक निशान एक संविधान, एक कानून एवं समान नागरिकता का। यहां यक्ष प्रश्न उठता है अपने ही अंग से किस बात की मंजूरी? कैसी मंजूरी? जब घर हमारा तो निर्णय भी हमारा ही चलेगा किसी बाहरी का नहीं।