(भारत विभाजन के संदर्भ में)
यह हिन्दू महासभा का अधिवेशन कलकत्ता में रखा गया। इसमें भाग लेने वालों में डाॅ0 श्यामा प्रसाद मुखर्जी, श्री निर्मल चंद्र चटर्जी (कलकत्ता उच्च न्यायालय के भूतपूर्व न्यायाधीश), गोरक्षापीठ गोरखपुर के महंत श्री दिग्विजयनाथ जी, आरएसएस प्रमुख डाॅ0 हेडगेवार और उनके सहयोगी श्री एम.एस. गोलवलकर और श्री बाबा साहिब गटाटे भी थे। जैसे कि उपर बताया गया है कि वीर सावरकर पहले ही उस अधिवेशन के लिये अध्यक्ष चुन लिये गये थे, परंतु हिन्दू महासभा के अन्य पदों के लिये चुनाव अधिवेशन के मैदान में हुये। सचिव के लिये तीन प्रत्याशी थे-(1) महाशय इन्द्रप्रकाश, (2) श्री गोलवल्कर और (3) श्री ज्योतिशंकर दीक्षित। चुनाव हुये और उसके परिणामस्वरूप महाशय इन्द्रप्रकाश को 80 वोट, श्री गोल्वरकर को 40 वोट और श्री ज्योतिशंकर दीक्षित को केवल 2 वोट प्राप्त हुए।
इस प्रकार इन्द्रप्रकाश हिन्दू महासभा कार्यालय सचिव के पद पर चयनित घोषित हुये। श्री गोलवल्कर को इस हार से इतनी चिढ़ हो गई कि वे अपने कुछ साथियों सहित हिन्दू महासभा से दूर हो गये। अकस्मात जून 1940 में डाॅ0 हेडगेवार की मृत्यु हो गयी और उनके स्थान पर श्री गोल्वरकर को आरएसएस प्रमुख बना दिया गया। आरएसएस के प्रमुख का पद संभालने के पश्चात उन्होंने श्री मारतन्डेय राव जोग जो स्वयंसेवकों को सैनिक शिक्षा देने के प्रभारी थे को किनारे कर दिया जिससे आरएसएस की पराक्रमी शक्ति प्रायः समाप्त हो गयी। श्री गोल्वल्कर एक रूढ़िवादी विचारों के व्यक्ति थे जो पुराने धार्मिक रीतियों पर अधिक विश्वास रखते थे, यहां तक कि उन्होंने अपने पूर्वजों के लिए ही नहीं वरन अपने जीवनकाल में ही अपना श्राद्ध तक कर दिया। वे गंडा-ताबीज के हार पहने रहते थे, जो संभवतः किसी संत ने उन्हें बुरे प्रभाव से बचाने के लिये दिये थे। श्री गोल्वरकर का हिन्दुत्व श्री वीर सावरकर और हेडगेवार के हिन्दुत्व से किंचित भिन्न था। श्री गोलवल्कर के मन में वीर सावरकर के लिये उतना आदर-सम्मान भाव नही था जितना डाॅ0 हेडगेवार के मन में था। डाॅ. हेडगेवार वीर सावरकर को आदर्श आदर्श पुरूष मानते थे। यथार्थ में श्री गोलवल्कर इतने दृढ़ विचार के न होकर एक अपरिपक्व व्यक्ति थे, जो आरएसएस जितनी विशाल संस्था का उत्तरदायित्व ठीक से उठाने योग्य नही थे।
श्री गोलवल्कर के आरएसएस का प्रमुख बनने के बाद हिन्दू महासभा एवं आरएसएस के बीच सम्बन्ध तनावपूर्ण बनते गये। यहां तक कि श्री गोलवल्कर, वीर सावरकर व हिन्दू महासभा द्वारा चलाये जा रहे उस अभियान की मुखर रूप से आलोचना करने लगे जिसके अन्तर्गत श्री सावरकर हिन्दू युवकों को सेना में भर्ती होने के लिये प्रेरित करते थे। यह अभियान 1938 से सफलतापूर्वक चलाया जा रहा था। डाॅ0 हेडगेवार ने 1940 में अपनी मृत्यु तक इस अभियान का समर्थन किया था। सुभाषचंद्र बोस ने भी सिंगापुर से रेडियो पर अपने भाषण में इन युवकों को सेना में भर्ती कराने के लिये श्री वीर सावरकर के प्रयत्नों की बहुत प्रशंसा की थी। यह इसी अभियान का ही नतीजा था कि सेना में हिन्दुओं की संख्या 36 प्रतिशत से बढ़कर 65 प्रतिशत हो गयी और इसी कारण यह भारतीय सेना, विभाजन के तुरंत के बाद पाकिस्तान द्वारा कश्मीर पर कश्मीर पर आक्रमण का मुंह तोड़ उत्तर दे पायी। परन्तु श्री गोलवल्कर के उदासीन व्यवहार व नकारात्मक सोच के कारण दोनों संगठनों के संबंध बिगड़ते चले गये। एक ओर कांग्रेस व गांधी ने अंग्रेजों को सहमति दी थी कि उनके भारत छोड़कर जाने के पहले भारत की सत्ता की बागडोर मुस्लिम लीग को सौंपने पर उन्हें कोई आपत्ति नहीं है। दूसरी ओर वे लगातार यह प्रचार भी करते रहे थे कि वीर सावरकर व हिन्दू महासभा मुस्लिम विरोधी व सांप्रदायिक है। डाॅ0. हेडगेवार की मृत्यु के उपरांत आरएसएस ने भी श्री गोलवल्कर के नेतृत्व में वीर सावरकर एवं हिन्दू महासभा के विरूद्ध एक द्वेषपूर्ण अभियान आरंभ कर दिया।
श्री गंगाधर इंदुलकर (पूर्व आरएसएस नेता) का कथन है कि गोलवल्कर ये सब वीर सावरकर की बढ़ती हुई लोकप्रियता (विशेषतायाः महाराष्ट्र के युवकों में) के कारण कर रहे थे। उन्हें भय था कि यदि सावरकर की लोकप्रियता बढ़ती गयी तो युवक वर्ग उनकी ओर आकर्षित होगा और आरएसएस से विमुख हो जायेगा। इस टिप्पणी के बाद श्री इन्दुलकर पूछते हैं कि ऐसा करके आरएसएस हिन्दुओं को संगठित कर रही थी या विघटित कर रही थी। कांग्रेस व आरएसएस वीर सावरकर की चमकती हुयी छवि को कलंकित करने में ज्यादा सफल नहीं हो पाये, परंतु काफी हद तक हिन्दू युवकों को हिन्दू महासभा से दूर रखने में अवश्य सफल हो गये। 1940 में डाॅ0 हेडगेवार की मृत्यु के पश्चात आरएसएस के मूल सिद्धांतों में परिवर्तन आया। हेडगेवार के समय में वीर सावरकर ( न कि गांधी जी) आरएसएस के आदर्श महापुरूष थे परन्तु श्री गोलवल्कर के समय में गांधी जी का नाम आरएसएस के प्रातः स्मरणीय में जोड़ दिया गया। डाॅ0 हेडगेवार की मृत्यु के बाद संघ के सिद्धांतों में मूलभूत परिवर्तन आया, यह इस बात का प्रमाण है कि जहां डाॅ0 हेडगेवार संघ के कार्यकर्ताओं के समक्ष संघ की ध्येय की विवेचना करते हुये कहते थे कि हिन्दुस्तान हिन्दुओं का हैं वहां खण्डित भारत में श्री गोलवल्कर कलकत्ता की पत्रकार वार्ता में दिनांक 7-9-49 को निःसंकोच कहते हैं कि हिन्दुस्तान केवल हिन्दुओं का ही है, ऐसा कहने वाले दूसरे लोग है
– यह दूसरे लोग हैं हिन्दू महासभाई। राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ- तत्व और व्यवहार पृ. 14, 38 एवं 64 और हिन्दू अस्मिता, इन्दौर दिनांक 15-10-2008 पृ. 7, 8 एवं 9) 1946 में भारत में केन्द्रीय विधानसभा के चुनाव हुये। कांग्रेस ने प्रायः सभी हिन्दू व मुस्लिम सीटों पर चुनाव लड़ा। मुस्लिम लीग ने मुस्लिम सीटों पर जबकि हिन्दू महासभा ने कुछ हिन्दू सीटों से नामांकन भरा। हिन्दू महासभा से नामांकन भरने वाले प्रत्याशियों में आरएसएस के कुछ युवा स्वयंसेवक भी थे, जैसे बाबा साहब गटाटे आदि। जब नामांकन भरने की तिथि बीत गई तब श्री गोलवल्कर ने आरएसएस के इन सभी प्रत्याशियों को चुनाव से अपना वापिस लेने के लिये कहा। क्योंकि नामांकन तिथि समाप्त हो चुकी थी और कोई अन्य व्यक्ति उनके स्थान पर नहीं भर सकता था। ऐसी स्थिति में इस तनावपूर्ण वातावरण में कुछ प्रत्याशियों के चुनाव से हट जाने के कारण हिन्दू महासभा पार्टी के सदस्यों में निराशा छा गई और चुनावों पर बुरा प्रभाव पड़ना स्वाभाविक था। हिन्दू महासभा के साथ यही हुआ। कांग्रेस सभी 57 हिन्दू स्थानों पर जीत गई और मुस्लिम लीग ने 30 मुस्लिम सीटें जीत ली। यथार्थ में श्री गोलवल्कर ने अप्रत्यक्ष रूप से उन चुनावों में कांग्रेस की सहायता की। इन चुनावों के परिणामों को अंग्रेज सरकार ने साक्ष्य के रूप में ले लिया और कहा कि कांग्रेस पूरी हिन्दू जनसंख्या का प्रतिनिधित्व करती हैं और मुस्लिम लीग भारत के सभी मुसलमानों का। अंग्रेज सरकार ने कांग्रेस और मुस्लिम लीग की सभा बुलायी जिसमें पाकिस्तान की मांग पर विचार किया जा सके। उन्होंने हिन्दू महासभा को इस बैठकों में आमंत्रित ही नहीं किया। जिस समय सभायें चल रही थीं उस समय सम्पूर्ण भारतवर्ष में दंगे हो रहे थे।
विशेष तौर पर बंगाल (नोआखाली) व पंजाब में जहां हजारों हिन्दुओं की हत्यायें हो रही थीं और लाखों हिन्दुओं ने मुस्लिम बहुल क्षेत्रों से अपने घरबार छोड़ दिये थे। ये सब मुस्लिम लीग व उसके मुस्लिम नेशनल गार्ड द्वारा किया जा रहा था। जिससे हिन्दुओं में दहशत छा जाये और उसके पश्चात गांधी जी व कांग्रेस उनकी पाकिस्तान की मांग को मान लें। अंगे्रज सरकार, कांग्रेस व मुस्लिम लीग की यह सभायें जून व जुलाई 1947 में शिमला में हुई। अन्त में 3 जून 1947 के उस फार्मूला प्रस्ताव को मान लिया गया जिसमें दिनांक 14/08/1947 के दिन पाकिस्तान का सृजन स्वीकारा गया। इस फाॅर्मूले को कांग्रेस कमेटी व गांधी जी दोनों ने स्वीकृति दी। इस प्रस्ताव को माउण्टबेटन फार्मूला कहते हैं। इसी फार्मूले के कारण भारत का विभाजन करके 14/8/1947 में पाकिस्तान की सृष्टि हुई। उस समय 7 लाख युवा सदस्यों वाली आरएसएस मूकदर्शक बनी रही। क्या ये धोखाधड़ी व देशद्रोह नहीं था।
आज तक आरएसएस अपने उस समय के अनमने व्यवहार का ठोस कारण नहीं दे पायी है। इतने महत्वपूर्ण विषय और ऐसे कठिन मोड़ पर उन्होंने हिन्दुओं का साथ नहीं दिया। उनके स्वयंसेवकांे से पूछा जाना चाहिये कि उन्होंने जब शाखा स्थल पर हिन्दुओं की सुरक्षा व भारत को अविभाजित रखने के लिये प्रतिबद्धता जताई थी, प्रतिज्ञाएं व प्रार्थनायें की थी फिर क्यों अपने ध्येय के पीछे हट गये। उन्होंने तो हिन्दू राष्ट्र को मजबूत बनाने व हिन्दुओं को सुरक्षित रखने की प्रतिज्ञाएं ली थी। स्पष्ट होता है कि यह श्री गोलवल्कर के अपरिपक्व व्यक्तित्व के कारण हुआ जो हेडगेवार की मृत्यु के पश्चात आरएसएस के प्रमुख बने। जिस आरएसएस के पास 1946 मंे 7 लाख युवा स्वयंसेवकों की शक्ति थी, उसने न तो स्वयं कोई कदम उठाया जिससे वह मुस्लिम लीग के डायरेक्ट एक्शन और पाकिस्तान की मांग का सामना कर सके और ना ही वीर सावरकर व हिन्दू महासभा को सहयोग दिया जो हिन्दुओं की सुरक्षा व भारत को अविभाजित रखने के लिये कटिबद्ध व संघर्षरत थी। कुछ स्थानों पर जहां हिन्दू महासभा शक्तिशाली थी वहां उसके कार्यकर्ताओं ने मुस्लिम नेशनल गार्ड और मुस्लिम लीग के कार्यकर्ताओं को उचित प्रत्युत्तर दिया लेकिन ऐसी घटनायें कम ही थीं। अक्टूबर 1944 में वी सावरकर ने सभी हिन्दू संगठनों की (राजनीतिक और गैर राजनीतिक) और कुछ विशेष हिन्दू नेताओं की नई दिल्ली में एक सभा बुलाई जिसमें यह विचार करना था कि मुस्लिम लीग की ललकार व मांगों का सामना कैसे किया जाये। इस सभा में अनेक लोग उपस्थित हुये जैसे-श्री राधामुकुन्द मुखर्जी, पुरी के शंकराचार्य, मास्टर तारा सिंह, जोगिन्दर सिंह, डाॅ0 खरे एवं जमुनादास मेहता आदि, परन्तु आरएसएस प्रमुख गोलवल्कर जी इतनी आवश्यक सभा में नहीं पहुंचे अपितु संघ नेतृत्व इससे विरत ही रहा।
भारत विभाजन के पश्चात भी आरएसएस ने हिन्दू महासभा के साथ असहयोग ही किया जैसे वाराणसी के विश्वनाथ मन्दिर आन्दोलन, समान नागरिक संहिता और कुतुबमीनार के लिये हिन्दू महासभा द्वारा चलाये गये आंदोलन। क्या आर.एस.एस. का संगठन मात्र संगठन के लिये ही था। उनकी इस प्रकार की उपेक्षापूर्ण नीति व व्यवहार आश्चर्यजनक एवं अत्यंत पीड़ादायी है। इस प्रकार केवल गांधीजी व कांग्रस ही विभाजन के लिये उत्तरदायी नही है अपितु आरएसएस और उसके नेता (श्री गोलवल्कर) भी हिन्दुओं के कष्टों एवं मातृभूमि के विभाजन के लिये उतने ही उत्तरदायी है। इतिहास उन लोगों से तो हिसाब मांगेगा ही जिन्होंने हिन्दू द्रोह किया, साथ ही उन हिन्दू नेताओं और संस्थाओं के अलंबरदारों को भी जवाब देना होगा जो उस कठिन समय पर मौन धारण कर निष्क्रिय बैठे रहे।
इतिहास गवाह है कि केवल वीर सावरकर और हिन्दू महासभा ही हिन्दू हित के लिये संघर्षरत थे। परन्तु आरएसएस के उपेक्षापूर्ण व्यवहार के कारणवश एवं हिन्दू जनता का पूर्ण समर्थन न मिलने के कारण वे अपने प्रयत्नों में सफल नहीं हो पाये। जिससे वे मुस्लिम लीग की पाकिस्तान की मांग को असफल बना सकते। अन्ततः पाकिस्तान बना जो भारत के लिये लगातार संकट और आज तक की राजनैतिक परेशानियों का कारण है। 14/8/1947 को पाकिस्तान का सृजन हिन्दू व हिन्दुस्तान के लिये एक काला दिवस ही है। वतन की फिक्र कर नादां। मुसीबत आने वाली है। तेरी बर्बादियां के मश्वरे हैं, आसमानों में।। न समझोगे तो मिट जाओगे, ए हिन्दोस्तां वालों। तुम्हारी दास्तां तक भी, न होगी दास्तानों में।।