लीबिया के तानाशाह कर्नल मुअम्मर गद्दाफी अभी तक पकड़े नहीं गए हैं और उनके भागने की भी पुष्टि नहीं हुई है, लेकिन पश्चिमी राष्ट्रों के नेताओं ने अपनी पीठ खुद ठोकनी शुरू कर दी है। अमेरिका के राष्ट्रपति बराक ओबामा ने तो गद्दाफी के पतन की घोषणा कर दी है और ब्रिटिश प्रधानमंत्री डेविड कैमरन ने बताया है कि लीबिया की राजधानी त्रिपोली पर बागियों का अधिकार हो चुका है और गद्दाफी कभी भी पकड़े जा सकते हैं।
गद्दाफी की सरकार के उलटने की संभावनाएं इतनी बार व्यक्त हो चुकी हैं कि जब तक पुख्ता सबूत सामने नहीं आएं, लोगों को इन घोषणाओं पर भरोसा नहीं होता। यों तो गद्दाफी पिछले दो-ढाई माह से कहीं दिखाई नहीं पड़े, यानी वे भूमिगत होकर अपनी सेनाओं को लड़वा रहे हैं, लेकिन बागी सेनाओं ने अब त्रिपोली पर ही कब्जा नहीं कर लिया है, बल्कि वह उनके महलों में भी घुस गई है। उनका बेशकीमती सामान लोग लूट ले गए हैं।
उनके तीनों पुत्रों के मारे जाने या गिरफ्तार होने की खबरें भी हैं। लेकिन उनके चर्चित पुत्र सैफ का अचानक सीएनएन चैनल पर प्रकट होना इस बात का संकेत देता है कि गद्दाफी मरते-मरते भी काफी खून बहाकर जाएंगे।
अगर गद्दाफी अब भी बच जाते हैं तो यह बड़ा आश्चर्य होगा। चीन जैसे अत्यंत सावधान राष्ट्र ने भी गद्दाफी का मर्सिया पढ़ दिया है। चीन ने कहा है कि उसके पास इसके सिवाय कोई विकल्प नहीं है कि वह लीबिया की जनता की इच्छा का सम्मान करे।
भारत ने अभी तक अपनी प्रतिक्रिया प्रकट नहीं की है। फरवरी 2011 में शुरू हुए गद्दाफी विरोधी अभियान पर अपनी राय जाहिर करने के पहले भारत हमेशा फूंक-फूंककर कदम रखता रहा है। उसने संयुक्त राष्ट्र संघ की सुरक्षा परिषद में भी गद्दाफी के विरोध में वोट नहीं दिया था, क्योंकि उसे अंदाज था कि गद्दाफी आसानी से हटने वाले नहीं हैं। भारत को अपने सैकड़ों नागरिकों की चिंता थी, जो त्रिपोली और अन्य लीबियाई शहरों में काम कर रहे थे।
उनमें से ज्यादातर सुरक्षित भारत लौट आए हैं। अब नए लीबिया को मान्यता देने में भारत देर करेगा तो उसे काफी नुकसान हो सकता है। हम यह न भूलें कि कर्नल कज्जाफी ने कभी पाकिस्तान को भारत के विरुद्ध खड़ा करने में जी-जान लगा दी थी। उन्होंने उसे ‘इस्लामी बम’ और ‘कश्मीर की आजादी’ के लिए जबर्दस्त ढंग से उकसाया था। उन्होंने कनाडा से उड़े उस जहाज को भी गिरवाया था, जिसमें कई भारतीय भी मारे गए थे। अंतरराष्ट्रीय जिहादी आतंकवाद को बढ़ावा देने में गद्दाफी ने कोई कसर नहीं छोड़ी थी।
अरब-अफ्रीकी जगत में गद्दाफी ने अपनी अलग पहचान बना ली थी। 42 साल तक सत्ता में बने रहना अपने आपमें अजूबा था। उनका कबीला लीबिया में सबसे बड़ा नहीं था, लेकिन डंडे और पैसे के जोर पर उन्होंने लगभग डेढ़ सौ कबीलों को अपनी जेब में डाल रखा था। दो-तीन बार उनके विरुद्ध बगावत की कोशिश हुई, लेकिन उन्होंने उन्हें बेरहमी से दबा दिया। तेल की अकूत आमदनी का इस्तेमाल उन्होंने न सिर्फ अपनी अय्याशी के लिए किया, बल्कि दुनिया के कई नामी-गिरामी नेताओं को अपना दोस्त बनाने के लिए भी किया।
फरवरी में जब उनके विरुद्ध बगावत शुरू हुई तो दुनिया के लोग यह देखकर आश्चर्य में पड़ गए कि इटली के प्रधानमंत्री सिल्वियो बलरुस्कोनी ने गद्दाफी का डटकर समर्थन किया और उन्हें सलाह दी कि वे बगावत को बलपूर्वक दबा दें। इटली का यह रवैया अमेरिका, फ्रांस और ब्रिटेन के रवैए के एकदम विपरीत था। वेनेजुएला के राष्ट्रपति ह्यूगो शावेज ने तो पश्चिमी राष्ट्रों की इस बात के लिए निंदा की कि वे नाटो फौजों का इस्तेमाल करके लीबिया पर बम बरसा रहे हैं।
दक्षिण अफ्रीका के साथ गद्दाफी के रिश्ते इतने घनिष्ठ थे कि लोगों को शक है कि वे लीबिया से भागकर वहीं छिपे हुए हैं। रूस जैसे राष्ट्र का भी गद्दाफी के प्रति रवैया नरम रहा है। रूस ने नाटो राष्ट्रों के गद्दाफी विरोधी सैन्य अभियान का समर्थन नहीं किया था। और अब रूस ने मांग की है कि लीबिया के आंतरिक मामलों में बाहरी शक्तियों का हस्तक्षेप न हो।
रूस की यह मांग कहां तक व्यावहारिक हो सकती है? गद्दाफी को हटाने के लिए पश्चिमी राष्ट्रों ने अपने करोड़ों डॉलर फालतू नहीं बहाए हैं। उन्होंने पहले तो लीबिया पर प्रतिबंध लगाए, फिर उसकी संपत्ति जब्त कर ली और फिर अंतरराष्ट्रीय न्यायालय में उस पर मुकदमा चला दिया। पश्चिमी राष्ट्रों ने जो सैन्य हस्तक्षेप किया, उसे उन्होंने मानव अधिकार रक्षा का जामा पहनाया, लेकिन असलियत क्या है? वही है, जिसके कारण उन्होंने इराक और अफगानिस्तान पर कब्जा किया था।
अपने आर्थिक और सामरिक स्वार्थो के वशीभूत होकर पश्चिमी राष्ट्र पहले तो इन विकासमान राष्ट्रों पर हमला बोल देते हैं और फिर अभिमन्यु की तरह उनके चक्रव्यूह में फंस जाते हैं। अफगानिस्तान के कारण बर्बाद हुए रूस से वे कोई सबक नहीं लेते। लीबिया की तदर्थ सरकार को अभी सभी राष्ट्र मान्यता दे देंगे, लेकिन अगले कई वर्षो तक वहां वास्तविक शासन फ्रांस, ब्रिटेन और अमेरिका जैसे राष्ट्रों का ही बना रहेगा। कोई आश्चर्य नहीं कि लीबिया में इराक की तरह बराबर बगावत की आग भी सुलगती रहे।
गद्दाफी के कबीले के लोग क्या चुप बैठ जाएंगे? यह भी असंभव नहीं कि लीबिया के विभाजन की मांग जोर पकड़ने लगे। गद्दाफी के बाद के लीबिया को संभालना बच्चों का खेल साबित नहीं होगा। कबीलों और आपसी झगड़ों में उलझे हुए इस देश में लोकतंत्र की स्थापना कैसे होगी, यह केवल पश्चिमी राष्ट्र ही बता सकते हैं। आर्थिक संकट में फंसे हुए पश्चिमी राष्ट्रों ने एक नई बला अपने सिर मोल ले ली है।
लेकिन एक अच्छी बात यह होगी कि लीबिया अन्य देशों के बागियों का प्रेरणास्रोत बनेगा। यमन, सीरिया, जॉर्डन और सऊदी अरब जैसे देशों के बागी सोचेंगे कि यदि गद्दाफी जैसे कद्दावर तानाशाह को धूल चटाई जा सकती है तो उनके अपने मुल्कों के तानाशाह किस खेत की मूली हैं। इसमें शक नहीं कि ट्यूनिशिया और मिस्र के शासकों के मुकाबले गद्दाफी को हटाना काफी मुश्किल सिद्ध हुआ है, लेकिन इस तख्तापलट ने कई अन्य तख्तापलटों की नींव मजबूत कर दी है। लीबिया की घंटियों की गूंज अब हम शीघ्र ही अन्य अरब देशों में सुनेंगे।