मथुरा में हुआ हत्याकांड और गुलबर्ग सोसायटी का फैसला—— क्या ये दोनों हमारे सार्वजनिक जीवन में फैले जहर को उजागर नहीं करते? क्या हमारे लोकतंत्र में ये बढ़ते हुए भीड़तंत्र का प्रमाण नहीं हैं? मथुरा में क्या हुआ? अपने आपको सत्याग्रही बतानेवाले लगभग तीन हजार लोगों ने मथुरा में वह कर दिखाया, जो अब से लगभग 100 साल पहले चौराचोरी में हुआ था। भीड़ ने पुलिसवालों को जिंदा जला दिया था। महात्मा गांधी को अपना सत्याग्रह वापस लेना पड़ा था। मथुरा के जवाहर बाग में पुलिस के दो बड़े अफसरों और दर्जन भर से ज्यादा जवानों की हत्या कर दी गई। ये हत्याएं अचानक नहीं हुईं। सत्याग्रहियों ने गोलियां चलाईं। सत्याग्रह और गोलियां ? कभी सुना है, आपने? कोई सत्याग्रही हिंसक कैसे हो सकता है? कौन आदमी हाथ में बंदूक लेकर सत्याग्रह करने जाता है? ये हजारों लोग पिछले दो-तीन साल से मथुरा के जवाहर बाग में डटे हुए थे।
उनका कहना था कि वे धरना दे रहे हैं। जवाहर बाग की यह जमीन 215 एकड़ में फैली हुई है। यह सरकारी जमीन है। कई बार सरकारी नोटिस दिए गए। आखिरकार अदालत ने निर्देश दिया कि इस जमीन को खाली करवाया जाए। इसी काम के लिए पुलिस गई लेकिन पुलिस पर गोलियां चलाई गईं। पुलिस ने बहुत संयम से काम लिया। उसने सिर्फ रबर बुलेट चलाए और छर्रे मारे। याने इन तथाकथित सत्याग्रहियों ने पहले से रक्तिम मुठभेड़ का इरादा बना रखा था और उसकी तैयारी कर रखी थी। उन्होंने बंदूकों, बमों, बारुद, तलवारों ओर पत्थरों का जमकर इस्तेमाल किया। यहां उल्टा हुआ। अक्सर प्रदर्शनकारी मारे जाते हैं, पुलिस की गोली से। यहां पुलिसवाले मारे गए, ‘सत्याग्रहियों’ की गोली से! चोरी और सीनाजोरी!
आप ज़रा देखें कि इन लोगों ने धरना किस बात के लिए दिया हुआ था। ये लोग अपने आप को किसी जय गुरुदेव का शिष्य कहते हैं और इन्होंने सुभाष बाबू के नाम से एक ‘सुभाष सेना’ बना रखी है। उनकी मांग है कि सुभाषचंद्र बोस से संबंधित सभी दस्तावेज़ों को सार्वजनिक किया जाए। राष्ट्रपति और प्रधानमंत्री के पद समाप्त किए जाएं। भारत का शासन आजाद हिंद फौज के नियम-कायदों के मुताबिक चलाया जाए। रुपए की मुद्रा खत्म की जाए और आजाद हिंद फौज की मुद्रा जारी की जाए। 60 लीटर पैट्रोल और 40 लीटर डीज़ल सिर्फ एक रुपए में बेचा जाए। सोना सिर्फ 12 रु. तोला बेचा जाए। इसी प्रकार की नौ ऊटपटांग मांगों के लिए ये लोग सत्याग्रह कर रहे थे। इन मांगों को चाहे हम ऊटपटांग समझते हों लेकिन मेरा मानना है कि ऐसी मांगों और इनसे भी विचित्र मांगों के लिए सत्याग्रह करने का अधिकार आम लोगों को है लेकिन वे यदि हिंसा का सहारा लेते हैं तो सबसे पहले तो वे अपना समर्थन खो देते हैं याने अपना ही नुकसान करते हैं और फिर वे अपने आप को सत्याग्रहियों नहीं, आतंकवादियों को श्रेणी में डाल देते हैं। सत्याग्रह का नकाब पहने हुए आतंकवादी! आश्चर्य तो यह है कि केंद्र और राज्य सरकार के गुप्तचर संगठनों को भनक तक नहीं लगी कि पिछले दो-ढाई साल से ये हजारों आदमी जवाहर बाग में क्या कर रहे थे।
अब विभिन्न पार्टियों के नेतागण एक-दूसरे पर तरह-तरह के आरोप लगा रहे हैं लेकिन मैं समझता हूं कि यह बीमारी ज़रा गहरी है। हमारे सभी नेता नोट और वोट की गुलामी में गले-गले तक डूबे हुए हैं। उनकी हिम्मत नहीं है कि देश में चल रही पाखंड की दुकानों के खिलाफ वे अपना मुंह ज़रा-सा भी खोलें। संतों, महात्माओं और गुरुओं का मुखौटा लगाए जो धूर्त्त, मूर्ख और ठग लोग लाखों-करोड़ों भक्तों को गुमराह करते रहते हैं, उनके विरुद्ध खांडा खड़काने का साहस देश के किसी नेता में नहीं है। वे तो इन पाखंडियों की सोहबत से लाभ उठाने की हरचंद कोशिश करते हैं। जो संस्थाएं किसी ज़माने में पाखंड खंडिनी पताकाएं फहराने के लिए विख्यात थीं, आर्यसमाज-जैसी, वे भी अब लगभग निष्क्रिय हो गई हैं। महाराष्ट्र और दक्षिण भारत में कुछ अंधविश्वास-विरोधी संस्थाएं सक्रिय जरुर हैं लेकिन उनके बौद्धिकों की गति वही होती है, जो दांभोलकर की हुई है। इसीलिए अपने देश के भोले और भावुक लोग किसी भी जमात में शामिल हो जाते हैं और भेड़चाल चलने लगते हैं। उनमें शुभ और अशुभ, सत्य और असत्य तथा सही और गलत में विवेक करने की क्षमता नहीं होती।
ऐसी क्षमता उनमें न हो तो न हो। वे भुगतेंगे लेकिन जब यह दुर्गुण सामूहिक रुप धारण कर लेता है तो हिंसक और आक्रामक बन जाता है। राज्य का काम है, ऐसी प्रवृत्तियों पर नियंत्रण रखना लेकिन कभी-कभी सरकारें भी ऐसी प्रवृत्ति पर नियंत्रण नहीं रख पातीं, कभी-कभी वे इन्हें प्रोत्साहित भी करती हैं और कभी-कभी वे बस टुकुर-टुकुर देखती रहती हैं। यही हुआ, 2002 में गुजरात के नर-संहार में। गुलबर्ग सोसायटी में पूर्व सांसद अहसान जाफरी के अलावा 68 लोगों की भीड़ ने हत्या कर दी लेकिन 400 की उस भीड़ में से सिर्फ 24 को अदालत ने दोषी ठहराया है। 36 को मुक्त कर दिया है। यदि हमारी अदालतें 14 साल इंतजार नहीं करतीं और उन 400 लोगों के साथ-साथ लापरवाह पुलिसवालों और दोषी नेताओं को भी तुरंत अंदर करती या ऊपर भेजती तो क्या आज हमें मथुरा में यह दिन देखना पड़ता? दंगा करनेवालों के दिल में फांसी की दहशत बैठी हो तो क्या वे घर से बाहर निकलने की भी हिम्मत करेंगे? दंगाइयों के नेता तो सबसे ज्यादा बुज़दिल होते हैं। मथुरा की सुभाष सेना का सेनापति सबसे पहले गायब हो गया। अब हताहतों की सूची में बेचारे पुलिसकर्मियों और सेना के अंधभक्तों के नाम बढ़ते चले जाएंगे।
सरकार ऐसी दुर्घटनाओं को हमेशा रोक पाए, यह जरुरी नहीं है, संभव भी नहीं है लेकिन यह तो उसका कर्तव्य है कि वह दोषियों को तुरंत पकड़े, उन पर मुकदमे चलाए और उन्हें कठोर सजा दिलवाए। यदि सजा दिलवाने में 15-15 और 20-20 बरस लग जाएं तो मान लीजिए कि वह सजा दी हुई और नहीं दी हुई, एक-बराबर हो गई, क्योंकि पीढ़ियां बदल जाती हैं। लोगों को याद ही नहीं रहता कि वह घटना कब हुई थी और जो सजा दी गई है, वह किस अपराध के लिए दी गई है। कई अपराधी लोग मुकदमों की अवधि के दौरान ही मर जाते हैं। खुद सरकारें-अपराधियों की जातीय, सांप्रदायिक या राजनीतिक पहचान के आधार पर अपने मुकदमों को कमजोर कर लेती हैं। ऐसी हालत में अदालतें क्या कर सकती हैं? वे मजबूर हो जाती हैं। उन्हें जिंदा मक्खी निगलनी पड़ती है। हमारे नेतागण ऐसा करते वक्त यह भूल जाते हैं कि इन हरकतों से उन्हें तात्कालिक लाभ तो मिल जाता है लेकिन जिस राज्य नामक संस्था का वे प्रतिनिधित्व करते हैं, उसकी जड़ें खोखली होती चली जाती हैं। भीड़ से डरे हुए नेता लोकतंत्र के इस महानवृक्ष को निरंतर खोखला करते चले जाते हैं। वे यह नहीं जानते कि यह खोखला वृक्ष किसी दिन उन्हें ही ले बैठेगा। भीड़तंत्र से बचने के लिए निहत्थी जनता इतिहास के एक बिंदु पर आकर मजबूर हो जाती है। वह, फिर, तानाशाहों और फौजी शासकों से भी परहेज नहीं करती।