भीम राव आम्बेडकर ने देश के निर्धन और बंचित समाज को प्रगति करने का जो सुनहरी सूत्र दिया था , उसकी पहली इकाई शिक्षा ही थी । इससे अन्दाज़ा लगाया जा सकता है कि वे गतिशील समाज के लिये शिक्षा को कितना महत्व देते थे । उनका त्रि सूत्र था- शिक्षा,संगठन और संघर्ष । वे आह्वान करते थे , शिक्षित करो , संगठित करो और संघर्ष करो । पढ़ो और पढ़ाओ । इस सूत्र का अर्थ स्पष्ट है कि संगठित होने और न्याययुक्त संघर्ष करने के लिये प्रथम शर्त शिक्षित होने की ही है । इस मामले में बाबा साहेब की दृष्टि एकदम साफ़ है । साधन सम्पन्न समाज के बच्चों के लिये जीवन में प्रगति के अनेक रास्ते हैं । वे अपने पैतृक साधनों का प्रयोग कर नये रास्ते तलाश भी सकते हैं और पहले से ही उपलब्ध रास्तों का अपने हित के लिये सुविधा से उपयोग भी कर सकते हैं । कम से कम जीवन की भौतिक प्रप्तियों के क्षेत्र में तो यह सब हो ही सकता है । लेकिन बंचित समाज के बच्चों के लिये , साधनों के अभाव में आगे के रास्ते बन्द हो जायेंगे और वे जीवन भर दुख और वेदना का नारदीय जीवन ही ढोते रहेंगे ? ऐसा नहीं है । उनके लिये एक ऐसा रास्ता खुला है , जो साधन सम्पन्न लोगों को उपलब्ध सभी रास्तों से भी ज़्यादा प्रभावी और गुणकारी है । वह रास्ता है शिक्षा प्राप्त करने का । शिक्षा से भौतिक जगत में गतिशील होने की क्षमता तो प्राप्त होती ही है , बौद्धिक विकास भी होता है । यही कारण था कि बाबा साहेब ने शिक्षा को प्राथमिकता दी है । ऐसा उन्होंने कहा ही नहीं बल्कि स्वयं अपने उदाहरण से करके भी दिखाया ।
बाबा साहेब ने उच्च शिक्षा प्राप्त करने के लिये अनेक कष्ट सहे , लेकिन उच्च शिक्षा प्राप्त करने के अपने ध्येय पर अडिग रहे । पाठशाला के दिनों में जाति भेद को लेकर उनको जो दिक़्क़तें उठानी पड़ीं , उनको शायद दोहराने की जरुरत नहीं है , वे सर्वविदित ही हैं । लेकिन जैसे ही आगे पढ़ने का वक़्त आया , भीम राव जी के पिता जी की नौकरी छूट गई । पुत्र में पढ़ने की और पिता में पढ़ाने की उत्कट लालसा और पैसे का संकट ! नौकरी की संभावना तलाशने परिवार मुम्बई में आ गया । आम्बेडकर की आगे की पढ़ाई वहीं हुई । बड़े शहर में जाति के कारण शायद उतना संकट नहीं था लेकिन अब तो आर्थिक संकट गहरा रहा था । लेकिन भीम राव आम्बेडकर ने हठ नहीं छोड़ा । आगे की कहानी अब अल्पज्ञात नहीं है । रियासती सहायता से भीमराव विदेश में उच्च शिक्षा के लिये गये और वहाँ विपरीत आर्थिक परिस्थितियों में भी अध्ययन जारी रखा । केवल इतना ही नहीं लन्दन में भी उनको चिन्ता रहती थी कि उनकी पत्नी रमाबाई भी कुछ पढ़ रही है या नहीं । धन सम्पदा तो आनी जानी है लेकिन शिक्षा जैसा अमोल धन अन्यत्र उपलब्ध नहीं है । उन्होंने लन्दन से अपनी पत्नी को पत्र लिखा,” तुम्हारी पढ़ाई चल रही है , यह बहुत प्रसन्नता की बात है । पैसे की व्यवस्था करने का प्रयास कर रहा हूँ । मेरे पास पैसे नहीं हैं , इसलिये सीमित मात्रा में भोजन कर पा रहा हूँ । फिर भी आप लोगों की व्यवस्था कर पा रहा हूँ । पैसे भेजने में देर हुई और तुम्हारे पास के पैसे समाप्त हो जायें तो अपने अलंकरण बेच कर खाओ । आने के बाद फिर बनवा दूँगा । यशवन्त व मुकुन्द की पढ़ाई कैसी चल रही है ? ” आम्बेडकर का फ़रमान साफ़ है । पेट काट कर भी पढ़ना पड़े तो पढ़ाई को अधिमान दो । यह सारी कथा लिखने का उद्देश्य मात्र इतना ही है कि विदेश में जाकर उन्होंने शिक्षा से इतर , आर्थिक रुप से सम्पन्नता के लिये रास्ते तलाशने की कोशिश नहीं की । वे रास्ते उन दिनों भी अमेरिका व ब्रिटेन में सहजता से उपलब्ध थे । लेकिन बाबा साहेब ने स्वयं को ज्ञानार्जन के लिये ही समर्पित कर दिया । क्योंकि वे अच्छी तरह जानते थे कि वे केवल अपनी प्रगति का रास्ता नहीं तलाश रहे , बल्कि भारत के पूरे बंचित समाज के लिये रास्ता तलाश रहे हैं और वह रास्ता केवल और केवल शिक्षा के माध्यम से ही निकलेगा । वे अपने आचरण से इसका उदाहरण प्रस्तुत करना चाहते थे । वडोदरा के महाराजा और भीम राव आम्बेडकर का यह सम्वाद जो चांगदेव खैरमोडे ने उद्धृत किया है , अत्यन्त महत्वपूर्ण है ।
महाराजा- तुम किस विषय की पढ़ाई करना चाहते है ?
भीमराव- मैं समाज शास्त्र, अर्थशास्त्र और विशेष रुप से पब्लिक फ़ायनांस की पढ़ाई करना चाहता हूँ ।
महाराजा- इस विषय की पढाई करके तुम आगे क्या करना चाहते हो ?
भीमराव- इस विषय के अध्ययन से मुझे इस प्रकार के रास्ते दिखाई देंगे , जिससे कि मैं अपने समाज की पतनावस्था को सुधार सकूँ ।
महाराजा (हँसते हुये)- लेकिन तुम हमारी नौकरी करोगे या नहीं ? फिर तुम पढ़ाई, नौकरी और समाज सेवा आदि सभी बातें एक साथ कैसे पूरी कर सकोगे ?
भीमराव- यदि महाराजा ने मुझे उस तरह का मौक़ा दिया , तो मैं ये सारी बातें सही ढंग से पूरी करके दिखा दूँगा ।
भीमराव की योजना स्पष्ट है । बंचित समाज की दीन हीन अवस्था को कैसे ठीक करना है , इसका रास्ता भी शिक्षा से ही पता चलेगा । एक बार रास्ता पता चल जाये , तो उसे फ़तेह करना इतना मुश्किल नहीं है । लेकिन ध्यान रखना होगा , आम्बेडकर के सूत्र में शिक्षा , एक बड़ी श्रंृखला का पहला हिस्सा है । एकता और संघर्ष उसके साथ ही जुड़ा हुआ है । बाबा साहेब जब महाराजा को पढ़ाई , नौकरी और समाज सेवा एक साथ साध लेने का संकल्प सुनाते हैं तो उनके मन में शिक्षा,एकता और संघर्ष का यह त्रिसूत्र ही दिखाई देता है ।
लेकिन बाबा साहेब शिक्षा की महत्ता रेखांकित करने के साथ साथ उसको प्राप्त करने के पात्र की भी चर्चा करते हैं । वे कहते हैं,”शिक्षा दुधारी शस्त्र हैं । इसलिये उसे चलाना ख़तरे से भरा रहता है । चरित्र हीन व विनय हीन सुशिक्षित व्यक्ति पशु से भी अधिक ख़तरनाक होता है । यदि सुशिक्षित व्यक्ति की शिक्षा ग़रीब जनता के हित विरोधी होगी, तो वह व्यक्ति समाज के लिये अभिशाप बन जाता है । ऐसे सुशिक्षितों को धिक्कार है । शिक्षा से चरित्र अधिक महत्व का है । युवकों की धर्म विरोधी प्रवृति देखकर मुझे दुख होता है । कुछ लोगों का मानना है कि धर्म अफ़ीम की गोली है । परन्तु यह सत्य नहीं है । मेरे अन्दर जो अच्छे गुण हैं अथवा मेरी शिक्षा के कारण समाज का जो कुछ हित हुआ होगा , वे मेरे अन्तर्मन की धार्मिक भावना के कारण ही है । मुझे धर्म चाहिये । परन्तु धर्म के नाम पर चलने वाला पाखंड नहीं ।” बाबा साहेब का अभिमत स्पष्ट है । शिक्षा जनहितकारी होनी चाहिये । शिक्षा से प्राप्त योग्यता का उपयोग बंचित समाज के कल्याण के लिये किया जाना चाहिये न कि उसके शोषण के लिये । शिक्षा का उद्देश्य बहुजन हिताय बहुजन सुखाय होना चाहिये न कि स्व हिताय स्व सुखाय । यही कारण है कि आम्बेडकर शिक्षा और शील को एक दूसरे का पूरक मानते थे । शील के बिना शिक्षा का कोई अर्थ ही नहीं रह जाता । शीलवान व्यक्ति पारम्परिक अर्थ में शिक्षित न भी हो तो चल सकता है । क्योंकि शील साधना अपने आप में ही शिक्षा है । लेकिन शिक्षित व्यक्ति शीलविहीन हो इससे बड़ी त्रासदी और कोई नहीं हो सकती । आम्बेडकर कहते हैं,” इसमें कोई सन्देह ही नहीं कि शिक्षा का महत्व है । लेकिन शिक्षा के साथ ही मनुष्य का शील भी सुधरना चाहिये । शील के बिना शिक्षा का मूल्य शून्य है । ज्ञान तलवार की धार जैसा है । तलवार का सदुपयोग अथवा दुरुपयोग उसको पकड़ने वाले पर निर्भर करता है । वह उससे किसी का ख़ून भी कर सकता है और किसी की रक्षा भी कर सकता है । यदि पढ़ा लिखा व्यक्ति शीलवान होगा तो वह अपने ज्ञान का उपयोग लोगों के कल्याण के लिये करेगा । लेकिन यदि उसका शील अच्छा नहीं होगा तो वह अपने ज्ञान से लोगों का अकल्याण भी कर सकता है ।” भीम राव आम्बेडकर ने स्वयं अपनी शिक्षा का उपयोग अपनी सुख सुविधा के लिये नहीं बल्कि बंचित समाज के कल्याण के लिये किया ।
शिक्षा का इतना महत्व है तो शिक्षा देने वाले शिक्षक का महत्व तो उससे भी कई गुणा बढ़ जाता है । क्योंकि शिक्षा केवल किताबों से नहीं मिलती , वह शिक्षक के आचरण व व्यवहार से भी मिलती है । शिक्षा संस्कार बनाती है और संस्कार शिक्षक के आचरण से ही बनते हैं । इसलिये शिक्षा के मामले में बाबा साहेब शिक्षक की भूमिका और चयन को लेकर अत्यन्त सतर्क रहते थे । उन्होंने १९४९ में अपने एक मित्र को लिखा,” महाविद्यालय का प्राचार्य किसे नियुक्त किया जाये , इसको लेकर चिन्ता में हूँ । वेतनमात्र के लिये काम करने वाला प्राचार्य , संस्था को अपना मानकर त्याग व आस्थापूर्वक कार्य नहीं करता । वह केवल स्वयं का विचार करता है । लेकिन मुझे तो योग्य प्राचार्य चाहिये ।” शिक्षा और शिक्षक के मामले में बाबा साहेब जाति भेद से कहीं दूर थे । उनके अपने मिलिन्द महाविद्यालय के किसी आचार्य ने उनसे एक दफ़ा पूछा कि आप इतने ब्राह्मण विरोधी क्यों हैं ? आम्बेडकर का उत्तर मार्मिक था , “मेरे मित्र! यदि मैं ब्राहम्ण विरोधी होता तो तुम इस महाविद्यालय में न होते । मेरी संस्था के शिक्षक बहुधा ब्राह्मण ही हैं । मेरा विरोध ब्राह्मण जाति से नहीं बल्कि ब्राहम्ण्य से है ”
इसमें कोई शक नहीं कि आम्बेडकर शिक्षा को बंचित समाज के कल्याण और प्रगति का धारदार और कारगार हथियार मानते थे । लेकिन शिक्षा को वे आईसोलेशन में पारिभाषित नहीं करते थे बल्कि उसके सर्वग्राही अर्थों में ही ग्रहण करते थे ।