भारत मे ‘काली कमाई’ और ‘काला धन’ का ईजाद अंग्रेजों की ईस्ट इण्डिया कम्पनी के आगमन और उसके शासन से हुआ । अंग्रेजों के आगमन से पहले यहां ‘काली कमाई’ और ‘काला धन’ का कोई प्रामाणिक इतिहास नहीं मिलता है । धर्म- अर्थ-काम-मोक्ष की धार्मिक-सांकृतिक-आध्यात्मिक अवधारणा पर आधारित भारत की प्राचीनकालीन अर्थव्यवस्था और इसी अवधारणा के इर्द-गिर्द घुमती प्राचीनेतरकालीन भारतीय अर्थव्यवस्था में ‘काली कमाई’ जैसा कोई आर्थिक उद्यम कभी भी धनोपार्जन का स्रोत नहीं रहा और न ही ‘कर-वंचना’ एवं उससे कालाधन-निर्मिति की कोई अवांछित प्रवृति रही । यहां के लोग तो धर्म-आधारित अर्थोपार्जन से मोक्षोन्मुख कामनाओं की पूर्ति किया करते थे । यहां राज-सत्ता के प्रति कर-वंचना तो दूर , व्यक्तिगत पुरुषार्थ से अर्जित पदार्थों का निर्धारित भाग वायु-वरुण जैसे परोक्ष देवताओं के नाम पर अग्नि में होम कर देने का यज्ञीय विधान आम जन-जीवन में प्रचलित रहा है । विदेशियों द्वारा भारत को ‘सोने की चिडिया’ का जो विशेषण दिया गया , वह चिडिया निश्चित ही स्वर्णिम चिडिया थी , ‘काली चिडिया’ कतई नहीं । यहां के पूंजिपति ‘ग्राम-श्रेष्ठी’ और ‘नगर श्रेष्ठी’ कहे जाते थे । वे श्रेष्ठ रीति से धन के उपार्जन और श्रेष्ठ प्रयोजनों में उसके नियोजन के कारण श्रेष्ठी कहलाते थे , न कि धनसंचयन के कारण । किन्तु , धन-लोलुप विदेशी आक्रान्ताओं के आक्रमण व शासन और यहां की आर्थिक संरचना में उनके तत्सम्बन्धी अतिक्रमण व प्रदूषण के कारण हमारी अर्थव्यवस्था का तदनुसार रुपान्तरण होता चला गया । तब भी मुगलिया शासन तक यहां ‘काली कमाई’ और ‘काला धन’ की व्युत्पति-व्याप्ति नहीं के बराबर ही थी ।
उल्लेखनीय है कि भारत पर अंग्रेजी शासन स्थापित होने से पहले यहां अनेक ऐसे बडे-बडे पूंजीपति हुआ करते थे, जिनकी पासंग में भी नहीं थी ईस्ट इण्डिया कम्पनी । अकेले बंगाल में ही लखीमचंद सेठ ऐसा बडा कारोबारी था, जिसकी व्यापारिक कोठियां देश भर में कायम थीं; जहां से राजसता के संरक्षण में मालगुजारी-वसुली के साथ-साथ मुद्रा की विनिमय-दर का निर्धारण भी हुआ करता था । बंगाल के नवाब से लेकर दिल्ली के बादशाह तक ने उसे ‘जगत सेठ’ की उपाधि दे रखी थी । आज दुनिया भर की मुद्राओं की विनिमय-दर निर्धारित करने का जो काम विश्वबैंक व अंतर्राष्ट्रीय मुद्रा-कोष आदि संस्थाओं के माध्यम से परोक्ष में अमेरिकी पूंजीपति किया करते हैं, सो काम तब यहां के जगत सेठ किया करते थे , क्योंकि उन दिनों समस्त विश्व-व्यापार में ६०% से भी अधिक भारत की भागीदारी थी । ईस्ट इण्डिया कम्पनी को भी बंगल के लखिमचन्द सेठ ने ही शाही सिफारिस पर भारी कर्ज दिया हुआ था, जो उसे आज तक नहीं लौटाया गया ।
मालूम हो कि सन १६०० में स्थापित ब्रिटिश ईस्ट इण्डिया ट्रेडिंग कम्पनी वास्तव में समुद्री लुटेरों का एक संगठित गिरोह थी । ब्रिटेन की अंग्रेजी भाषा में उन दिनों ‘ट्रेडिंग’ का व्यावहरिक अर्थ- ‘लुट-पाट’ अथवा ‘जैसे-तैसे धन कमाना’ ही हुआ करता था । ब्रिटिश राजमहल को लूट के माल में से हिस्सेदारी दे-दे कर वहां से ‘ट्रेडिंग लाइसेंस’ हासिल कर लेने के पश्चात भारत के तत्कालीन मुगल बादशाह- जहागीर के नाम ब्रिटेन की महारानी- एलिजाबेथ का खत ले कर यहां आया ‘टामस रो’ डचों और पुर्तगालियों के मुकाबले किसी तरह से पनाह पाते ही लुटपाट की गतिविधियों में शामिल हो गया था । तब उसके काले कारनामों की भनक लगने पर जहांगीर ने उसके बाहर घुमने-फिरने पर पाबंदी लगाते हुए उसे राजमहल-परिसर में ही पडे रहने का हुक्म जारी कर दिया था । निराश-हताश टामस रो कुछ महीनों बाद वापस लन्दन चला गया, जहां से वह दुबारा तब आया, जब जहंगीर की मृत्यु हो चुकी थी ।
कालांतर बाद वे समुद्री लुटेरे उतरवर्ती मुगल शासकों को जैसे-तैसे प्रभावित करते हुए कतिपय रियायतें हासिल कर व्यापारिक जहाजों की लूट से हासिल धन की बदौलत समुद्र किनारे कुछ स्थानों पर अपनी कोठियां स्थापित कर लिए । कम्पनी की वे कोठियां सिर्फ कहने-दिखने को व्यापारिक थीं , वास्तव में वे तो हथियारों के गोदाम तथा भाडे के दस्युओं और गोरी चमडी वाली सुन्दरियों का अड्डा थीं । दिल्ली के मुगल-बादशाह फर्रुख्शियर की बीमारी ठीक करने के नाम पर उसे उन विलायती सुन्दरियों का जिस्म परोस कर उससे चुंगी-मुक्त व्यापार करने और कम्पनी का अवैधानिक सिक्का चलाने की अनुमति प्राप्त कर वे कलकता में भी अपने काले-करनामों को अंजाम देने लगे । भारत में जाली मुद्रा-चलन का वह पहला मामला था , जिसे अवैध घोषित करते हुए बंगाल के नवाब सिराजुद्दौला ने कलकता-स्थित कम्पनी की कोठी को सील कर १४६ गोरों को एक छोटे से कमरे में बन्द करा कर मरने को विवश कर दिया था । कम्पनी के इतिहास में वह घटना ‘ब्लैकहोल’ के नाम से जानी जाती है, जिसकी परिणति पलासी के युद्ध से हुई । यह सच कम ही लोग जानते हैं कि सन १७५७ का पलासी-युद्ध वास्तव में कोई युद्ध नहीं था, बल्कि एक षड्यंत्र मात्र था । सिर्फ ४० मिनट के उस तथाकथित युद्ध में नवाब के अठारह हजार सिपाही कम्पनी के मात्र तीन सौ लुटेरों के सामने समर्पण कर दिए , क्योंकि सिराजुद्दौला के सेनापति मीर्जाफर को कम्पनी के कारिन्दों ने जगत सेठ से लिए हुए भारी कर्ज के रुपयों से खरीद लिया था । बाद में उन लुटेरों ने सिराजुद्दौला , मीर्जाफर और जगत सेठ तीनों को बारी-बारी से मार डाला ।
छल-छद्म के सहारे लूट-मार का अपना राज-पाट स्थापित कर लेने के बाद अधिकाधिक धन बटोरने के लिए ईस्ट इण्डिया कम्पनी ने भारत की धर्म-अर्थ-काम-मोक्ष आधारित आर्थिक संरचना में छेड-छाड कर लगान के आकार-प्रकार को अपनी जरुरतों के अनुसार निर्धारित किया । भारत में जो कार्य-व्यापार , उद्योग-उद्यम , सेवा-संस्थान लगान के दायरे से बाहर एकदम ‘लगान-मुक्त’ थे , उन सब को उसने भारी-भरकम लगान के दायरे में लाकर हमारी पारम्परिक सामाजिक संरचनाओं को भी नष्ट कर दिया । गांव-गांव में स्थापित विद्यालयों को उनके संचालनार्थ जो ‘लगान-मुक्त भूमि’ उपलब्ध थी , उन सबको उसने छीन कर ‘लगान’ के दायरे में ले लाया तथा उनके गुरुजनों-शिक्षकों को मिलने वाली सुविधायें समाप्त कर तमाम शिक्षण संस्थानों को बन्द हो जाने के लिए विवश कर दिया । हेमचन्द्राचार्य गुरुकुलम, अहमदाबाद के संचालक व प्रखर शिक्षाविद- उत्तमभाई जवानमल शाह की मानें तो ईस्ट इण्डिया कम्पनी के धन-लोलुप काले कारनामों के कारण ही भारत की समृद्ध शिक्षा-व्यवस्था इस कदर नष्ट हो गई कि वह फिर से कायम नहीं हो सकी । इसी तरह, भारत के उद्योगों को नष्ट करने व यहां के कच्चे माल को ब्रिटेन पहुंचाने और ब्रिटेन के कारखानों से निर्मित माल को ऊंची कीमतों पर भारत में बेचने के लिए भी उसने एक से एक हथकण्डे अपनाये ।
‘ए पर्सनल नेरेटिव आफ टू ईयर इम्प्रिज्न्मेण्ट इन वर्मा’ नामक पुस्तक में हेनरी गूगर नामक एक अंग्रेज लेखक ने ही उसकी काली कमाई का खुलासा किया है– “ कम्पनी के मुलाजिम गांव-गांव में घुमते और किसानों-कारिगरों को महज एक-दो रुपये थमा देते । जो पेशगी लेने से इंकार कर देते , उनके घरों में एक-एक सिक्का फेंक कर उनके रेशम बलपूर्वक उठा ले जाते ” । ऐसी लूट-खसोट की काली कमाई से उत्पन्न काले धन की व्याप्ति का आलम यह था कि कम्पनी का अदना सा कर्मचारी भी ब्रिटेन के बडे से बडे रईस की बराबरी करने लगा, जिसका ब्रिटेन में समय-समय पर विरोध भी होता रहा था । कम्पनी के कारोबार पर निगरानी रखने और उसकी ट्रेडिंग लाइसेंस के हर बीस वर्षों पर नवीनीकरण करने सम्बन्धी ‘चार्टर्ड एक्ट’ नामक कानून बनाने वाली ब्रिटिश पर्लियामेण्ट में उसके भ्रष्टाचार पर प्रायः बहसें हुआ करती थीं, जिसके कारण उसे सांसदों, मंत्रियों एवं महारानी को अपनी काली कमाई में से भारी-भरकम रिश्वतें देनी पडती थीं । इस बावत भी कम्पनी के अधिकारी काली-कमाई के एक से एक तरीकों को अंजाम दिया करते थे ।
वारेन हेस्टिंग्स, जो ईस्ट इण्डिया कम्पनी में कभी मामूली किरानी हुआ करता था, किन्तु बाद में कम्पनी का गवर्नर बन गया था , उसके खिलाफ नन्दकुमार नामक एक बंगाली ब्राह्मण ने तो कलकता के न्यायलय में ही एक गम्भीर आरोप लगाया था कि उसने मीर्जाफर की विधवा- मुन्नी बेगम को नये नाबालिग नवाब की संरक्षक नियुक्त करने के नाम पर उससे साढे तीन लाख रुपये रिश्वत लिया हुआ था । हेस्टिंग्स इतना काला धन कमा लिया था कि उसके विरूद्ध ब्रिटिश सांसद-अधिवक्ता एडमण्ड बर्क ने १३ फरवरी सन १७८८ को आय से अधिक सम्पति मामले का एक मुकदमा ठोंक दिया था , जो भारत में ‘काली कमाई’ का शायद पहला मामला था । स्पष्ट है कि भारत में लूट-खसोट, घूस-रिश्वत एवं कर-चोरी व कालाबाजारी से काली कमाई और काले धन की निर्मिति-व्याप्ति ईस्ट इण्डिया की काली नीतियों के कारण हुई , जो आज भी प्रकारान्तर में जारी है ।