प्रधानमंत्री डॉ. मनमोहन सिंह ने वही किया, जो भारत के प्रधानमंत्री को करना चाहिए था| उन्होंने भारत सरकार को उस विवाद से अलग कर लिया जो वीर सावरकर को लेकर अचानक फूट पड़ा है| उनकी इस बुद्घिमत्ता का लाभ महाराष्ट्र कॉंग्रेस को तो मिलेगा ही, स्वातंत्र्य-संग्राम के हमारे पुरखों पर जो कीचड़ उछल रहा है, वह भी शायद थमेगा| गॉंधी के नाम पर हम स्वातंत्र्य-संग्राम के कितने नायकों की चरित्र-हत्या पर उतारू हो गए हैं? गॉंधी के मुकाबले आप चाहे जिसे खड़ा कर दें, वह छोटा दिखेगा| छोटे को और छोटा कर देने से क्या गॉंधी बड़े हो जाऍंगे? सावरकर की बात बाद में करेंगे| पहले सुभाषचंद्र बोस को लें| सुभाष बाबू को लोगों ने क्या-क्या नहीं कहा? उन्हें हिटलर, मुसोलिनी और तोजो से जोड़ा| उन पर व्यक्तिगत आक्षेप किए| उन्हें घनघोर गॉंधी-विरोधी बताया गया| इसी प्रकार आम्बेडकर को अंग्रेज-समर्थक, मुस्लिम-विद्वेषी, गॉंधी-शत्रु घोषित किया गया| उनके आचरण और व्यक्तिगत चरित्र पर भी छींटे उछाले गए| मानवेंद्रनाथ रॉय और श्रीपाद डांगे को भी कीचड़ में घसीटा गया| क्रांतिकारियों को तो नेपथ्य में ही ढकेल दिया गया| चाफेकर बंधुओं, सावरकर बंधुओं, श्यामजीकृष्ण वर्मा, लाला हरदयाल, चंद्रशेखर आज़ाद, भगतसिंह, वीरेंद्र चट्टोपाध्याय, बटुकेश्वर दत्त, अशफाक, बिस्मिल, महेंद्र प्रताप, बरकतुल्लाह जैसे सैकड़ों बलिदानियों का नाम-स्मरण क्या हम इस तरह करते हैं, जैसे किसी कृतज्ञ-राष्ट्र को करना चाहिए? स्वातंत्र्य-संग्राम के लिए केवल गॉंधी को याद करना वास्तव में गैर-गॉंधीवादी कार्य है| क्योंकि यह सत्य का उल्लंघन है|
सत्य तो यह है कि भारत की आज़ादी के लिए तरह-तरह के आंदोलन चले| हिंसक और अहिंसक भी ! व्यक्तिगत और सामूहिक भी ! देश में भी और विदेश में भी ! स्वातंत्र्य की मुख्य धारा का निर्माण अनेक धाराओं और उपधाराओं से मिलकर हुआ| यह कहना कठिन है कि अंग्रेज की कमर तोड़ने में किस धारा ने कब क्या भूमिका निभाई लेकिन यह स्पष्ट है कि गॉंधी-धारा सबसे मोटी और सबसे लंबी धारा थी| इसके बावजूद यह प्रश्न भी उठता है कि 1942 में अंग्रेज ने भारत क्यों नहीं छोड़ा? ‘भारत छोड़ो’ की गॉंधी-धारा जब सर्वोच्च शिखर पर थी, तब तो अंग्रेज भारत में टिक गया लेकिन 1947 में जब यह धारा बॅंट गई, कॉंग्रेस और मुस्लिम लीग में, और मद्घिम पड़ गई तब अंग्रेज चला गया| इसीलिए गॉंधी को भारत की आज़ादी का एक मात्र प्रवक्ता हम उसी तरह नहीं बना सकते, जैसे जिन्ना को पाकिस्तान का बनाया जाता है| गॉंधी के पहले और बाद में बड़ी से बड़ी कु र्बानियॉं करनेवाले अनेक स्वतंत्रता सेनानी हुए| पाकिस्तान बनाने का श्रेय अकेले जिन्ना को है लेकिन भारत को आज़ाद करने का श्रेय का केवल अकेले गॉंधी को दिया जा सकता है? स्वयं गॉंधी इस अति उत्साह को रद्द कर देते| हम गॉंधी को जिन्ना बनाने पर क्यों तुले हुए हैं? यह कठमुल्लापन वे लोग ज्यादा दिखा रहे हैं, जिनके निजी जीवन या राजनीति में गॉंधी का कोई स्थान नहीं है| गॉंधी के नाम पर वे ऐसी राजनीति कर रहे हैं, जो भारत की जनता को कृतघ्न बनाती है, उसे आपस में लड़ाती है और राष्ट्र के रूप में भारत के भविष्य को अंधकारमय बनाती है| इसी प्रकार सावरकर के पक्ष में वे लोग जबर्दस्त चिल्लपों मचा रहे हैं, जिन्हें खुद सावरकर शिखंडी कहा करते थे और जो सावरकर के बुद्घिवाद को कभी नहीं पचा पाए| दोनों के सच्चे उत्तराधिकारी लगभग लुप्त हो चुके हैं और उनके नक़ली उत्तराधिकारी एक-दूसरे पर तलवार भांज रहे हैं| हे प्रभु ! गॉंधी-वादियों से गॉंधी की रक्षा कीजिए और सावरकर-वादियों से सावरकर की !
स्वाधीनता-संग्राम के सभी सेनानी हमारी श्रद्घा के पात्र होने चाहिए लेकिन हम विचित्र लोग हैं कि हम अपने महानायकों की बंदर-बांॅट में लगे हुए हैं| उन्हें हम अपनी क्षुद्र राजनीति की तोप का भूसा बना रहे हैं| कुछ लोग लिख रहे हैं कि काले पानी में सावरकर ने अंग्रेज से माफियॉं मॉंगी और कुछ लिख रहे हैं कि गॉंधी ने अफ्रीका के बोइर-युद्घ में अंग्रेजी के लिए सैन्य-भर्ती का निकृष्ट कार्य किया| यह सब वे लोग लिख रहे हैं जिन्हें न तो इन तथ्यों की पृष्ठभूमि का पता है और न ही उनमें इतनी क्षमता है कि इतिहास की इन विवादास्पद घटनाओं का वे वस्तुनिष्ठ विश्लेषण कर सकें| यह चिन्ता का विषय है कि कुछ लोग गॉंधी को उठााने के लिए सावरकर को गिराना और सावरकर को उठाने के लिए गॉंधी को गिराना जरूरी समझ रहे हैं| गॉंधी इतने महान थे कि उन्हें उठाने के लिए किसी को भी गिराना जरूरी नहीं है| गॉंधी और सावरकर के विचारों में घनघोर विरोध था| इस विरोध पर सैद्घांतिक बहस तो चलाई जा सकती है लेकिन चरित्र-हनन के लिए हम अपनी जुबान और कलम का दुरुपयोग क्यों करें?
यह कहना कितनी मोटी बुद्घि का परिचायक है कि सावरकर और जिन्ना एक ही सिक्के के दो पहलू थे| क्या सावरकर को द्विराष्ट्रवाद का समर्थक कहना उचित है? वास्तव में सावरकर अखंड भारत के सबसे शक्तिशाली प्रवक्ता थे| उन्होंने 1937 के अपने हिन्दू महासभा के अध्यक्षीय भाषण में यह जरूर कहा था कि यह तथ्य है कि आज भारत में दो राष्ट्र खड़े हो गए हैं, हिन्दू और मुस्लिम लेकिन यह कहने के पहले उन्होंने इसे ‘अपि्रय तथ्य’ कहा था और उसी भाषण में उन्होंने इस कथन के पहले और बाद में कई बार अखंड एकरस भारत की वकालत की है और यह भी साफ़-साफ़ कहा है कि ”भारत राज्य को पूरी तरह भारतीय बनने दो| … किसी भी व्यक्ति के हिन्दू या मुसलमान, ईसाई या यहूदी होने को बिल्कुल भी मान्यता मत दो| भारतीय राज्य के प्रत्येक नागरिक को उसकी व्यक्तिगत गुणवत्ता के आधार पर ही स्वीकार किया जाना चाहिए|” उन्होंने आगे कहा कि स्वतंत्र भारत में सभी व्यक्तियों को समान अधिकार होगा| किसी भी व्यक्ति के साथ जाति, विश्वास, वंश और धर्म के आधार पर भेदभाव नहीं होगा| हिन्दुओं की बहुसंख्या के बावजूद हिन्दू राष्ट्र में उन्हें किसी भी प्रकार का विशेषाधिकार नहीं होगा जबकि ”मुसलमानों को अल्पसंख्यक होने के नाते उनकी भाषा, संस्कृति और मज़हब के लिए विशेष संरक्षण दिया जा सकता है बशर्ते कि वे …. हिंदुओं को दबाने और अपमानित करने का काम न करें|” वास्तव में सावरकर मुसलमानों का नहीं, मुस्लिम लीगियों के ब्लेकमेल का विरोध कर रहे थे| प्रकारांतर से जिन्ना और फजलुल-हक के मुकाबले वे गॉंधी और नेहरू की सहायता ही कर रहे थे| गॉंधी और नेहरू ने विभाजन स्वीकार कर लिया लेकिन सावरकर अंत तक उसका विरोध करते रहे| ऐसे सावरकर को द्विराष्ट्रवादी कैसे कहा जा सकता है या उन्हें जिन्ना के समकक्ष कैसे खड़ा किया जा सकता है? सावरकर ने जिन दो राष्ट्रों – हिंदू और मुस्लिम – की बात कही थी, वह उस समय के भारत की भावनात्मक सच्चाई थी लेकिन वह शुभ थी या स्वीकार्य थी या सही थी, यह सावरकर ने कभी नहीं कहा| यदि वह भावनात्मक सच्चाई नहीं होती तो गॉंधीजी के जिंदा रहते भारत का विभाजन क्यों होता और लाखों लोग क्यों मारे जाते?
यह जरूरी नहीं है कि सावरकर के सभी विचारों से हम सहमत हों या उनके सभी कृत्यों को सराहनीय मानें लेकिन इधर-उधर के मोटे-मोटे तथ्यों पर सतही नज़र डालकर उन्हें अंग्रेजों का समर्थक कह देना और उन्हें गॉंधी हत्या से जोड़ देना गहरी गैर-जिम्मेदाराना हरकत है| यदि वे अंग्रेजों के समर्थक होते तो सुभाष बाबू को आजाद हिंद फौज बनाने के लिए प्रेरित नहीं करते और हिंदुओं को अंग्रेज की सेना में घुसकर बगावत के लिए नहीं उक्साते| यह ठीक है कि वे गॉंधी की तरह साधनों की पवित्रता और अहिंसा में विश्वास नहीं करते थे लेकिन इसका अर्थ यह नहीं कि वे देशभक्त नहीं थे या हम उनके विलक्षण साहस और बलिदान की रोमांचकारी गाथा को अनदेखा कर दें| जरूरी यह है कि भारत कें स्वस्थ और समग्र राष्ट्रवाद की उद्रभावना के लिए गॉंधी और नेहरू के साथ-साथ महारानी लक्ष्मीबाई, बहादुरशाह जफर, दयानंद, लाल-बाल-पाल, सावरकर, आज़ाद, भगतसिंह, आम्बेडकर, लोहिया और जयप्रकाश जैसों की वैकल्पिक धारा का भी उचित स्वीकार और सम्मान किया जाए| आज गॉंधी और सावरकर को लड़ाने का नहीं, दोनों का बचाने का समय है|