वीर भोग्या वसुन्धरा यह बात आज से हजारों वर्ष पहले से निरंतर भारत में श्रुति परंपरा में प्रचलित रही है। इसका आशय सीधा और सुस्पष्ट है कि भारत में पुरुषार्थी ही वीर कहलाते हैं और वीर ही पुरुषार्थी हैं। प्राय: वीर शब्द को शूर का पर्यायवाची समझा जाता है किंतु ऐसा है नहीं। भाषायी दृष्टि से विवेचना करें तो दोनों का यह अंतर कुछ इस प्रकार दृष्टिगत होता है। शूर शब्द हिन्सार्थक श्री धातु से बना है, जिसके कारण यह शब्द उस सैनिक का वाचक है जो अपने अधिकारी के आदेश मिलते ही गोली चलाने में देरी नहीं करता। ठीक इससे भिन्न वीर शब्द गत्यर्थक 'वीर' धातु से बना है, जिसका कि अर्थ होगा अपनी सेना का सम्पूर्ण नीति–निर्धारण करने के पश्चात ही युद्ध करने के लिए आगे बढ़ना। यानि योजना बनाने के साथ अपनी श्रेष्ठता का परिचय देना।
आज दुनिया के तमाम राष्ट्र जिन्हें विश्व शक्तिशाली मानता एवं स्वीकार्य करता है, उनकी इस वीर शब्द के साथ विवेचना करें तो यही पाएंगे कि वे राष्ट्र ही वीर है, जिन्होंने प्रत्येक क्षण अपना पुरुषार्थ प्रकट किया है और जो समय से आगे चलना या उसके साथ बढ़ने का सामर्थ्य रखते हैं। ये राष्ट्र वे हैं जिन्होंने दुनिया की 50 से 70 प्रतिशत पूँजी एवं सम्पदा पर अपना आधिपत्य स्थापित किया हुआ है। यही वह राष्ट्र हैं, जो एक तरफ विश्व को युद्ध की विभीषिका में ढकलते हैं तो दूसरी ओर आर्थिक सहायता एवं अन्य चिकित्सात्मक व समाजिक संवेदनात्मक कार्यों के जरिए लगातार यह संदेश देने का प्रयत्न करते रहते हैं कि वे मानवता के सही अर्थों में शुभचिंतक हैं।
इसके साथ ही दुनिया को क्या पहनना चाहिए, फैशन की स्टाइल कौन सी सही और कौन सी गलत है, साहित्य में कौन से विषय उठाए जाने चाहिए, कला एवं संस्कृति के मान बिन्दू क्या हों, एक देश के रूप में दूसरे देश के साथ आर्थिक, व्यापारिक, सामाजिक, मानवीयता एवं पड़ौसी के नाते संबंध और संपर्क किस प्रकार होने चाहिए यह भी यही दुनिया के कुछ देश ही तय करते हैं। इतना ही नहीं तो एटम बम कौन रखे, किसे उसे नष्ट कर देना चाहिए, भले ही आपको अपनी विद्युत आवश्यकताओं को पूरा करने के लिए युरेनियम चाहिए किंतु वह इसलिए आपको नहीं दी जा सकती क्यों कि आप परमाणु सम्पन्न ऐसे देश हैं, जिसकी हैसीयत इन कुछ देशों के बराबर नहीं बैठती है।
इन सब बातों का कुल सार यही है कि आप जब तक इन देशों की तरह सामर्थ्यशाली नहीं हैं तो आपको पड़ौसी चीन छोड़िए, वक्त आने पर पाकिस्तान, म्यांमार, भूटान, नेपाल, पं. बंगाल, श्रीलंका जैसे छोटे मुल्क भी आंख दिखाने से नहीं चूकते हैं। आप सभी आर्हताएं रखने एवं अपने लाख प्रयत्न करने के बाद भी सुरक्षा परिषद में अपने लिए स्थायी जगह बनाने में सफल नहीं हो पाते हैं। कम से कम भारत की वर्तमान स्थिति तो यही है, बहुत कुछ होने के बाद भी वह उन तमाम केंद्रों पर अपने को कमजोर या पीछे पाता है, जिसमें कि उसे आगे होना चाहिए था। आखिर भारत के साथ कौन से वे कारण जिम्मेदार हैं जो उसे आगे होने के स्थान पर पीछे रखे हुए हैं ? निश्चित ही इसके पीछे जो कारण नजर आता है, वह है हमारी आर्थिक एवं सामरिक मोर्चे पर कमजोर तैयारी का होना।
वैसे तो भारत के जन दुनिया के तमाम देशों में रहते हैं और वहां की अर्थव्यवस्था के संचालन में अपना अहम योगदान देते हैं, यदि इन सभी के आर्थिक लाभ एवं कुल पूंजी को भारत के साथ जोड़कर देखा जाए तो भारत दुनिया में आर्थिक रूप से सम्पन्न देशों के बराबर की श्रेणी में आ खड़ा होगा। इसी प्रकार सामरिक मोर्चे पर हमारी तैयारी अत्याधुनिक रूप से अमेरिकी तकनीक के समकक्ष हो जाए तो वह दिन दूर नहीं जब हिन्दुस्थान विश्व के श्रेष्ठ आगे के 3 देशों में शुमार हो जाएगा। इन दिनों भारत की जनता अपने प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी से यही उम्मीद लगाए बैठी है कि वे उसे नोटबंदी के माध्यम से देश को आर्थिक मोर्चे पर सशक्त बनाने के प्रयासों के साथ ही सामरिक मोर्चे पर भी कुछ कठोर निर्णय आगामी दिनों में लेंगे। लेकिन यह इतना आसान भी नहीं लगता, नोटबंदी पर जिस तरह विपक्ष ने संसद नहीं चलने दी, हो सकता है कि जब मोदी सामरिक मोर्चे पर कठोर निर्णय लें तो हड़तालों के माध्यम से देश को ठप्प करने का कार्य विपक्ष करे, किंतु इसके बाद भी देश की सर्वसाधारण जनता अपने प्रधानमंत्री मोदीजी से यही कहेगी कि रक्षा बजट पर देश को आपसे बहुत उम्मीदें हैं।
हाल ही में आई शोध फर्म आइएचएस मार्किट की जेन्स डिफेंस बजट्स रिपोर्ट 2016 बताती है कि रक्षा पर खर्च करने वाले दुनिया के शीर्ष पांच देशों में अमेरिका, चीन और ब्रिटेन के बाद भारत का चौथा स्थान है। इस साल भारत का रक्षा बजट 50.7 अरब डॉलर (करीब 3.41 लाख करोड़ रुपये) है। जबकि पिछले साल यह 46.6 अरब डॉलर था। इस रिपोर्ट के आंकड़े देखकर एक बात की संतुष्टि तो है कि केंद्र में सत्ता परिवर्तन का लाभ सामरिक मामले में भी हुआ है, पहले से इसके बजट में 4.1 अरब डालर की वृद्धि हुई है, किंतु साथ में यह भी प्रश्न है कि क्या ढाई साल में की गई केंद्र सरकार की यह वृद्धि पर्याप्त है, जबकि लगातार हमने बिना किसी युद्ध के सबसे ज्यादा अपने सैनिक गंवाए हैं ? यदि आज हमारे पड़ौसी मुल्क चीन से युद्ध हो जाए तो क्या होगा ? कहीं ऐसा तो नहीं होगा कि सन् 1962 जैसे हालात बनेंगे ? चीन के साथ की लड़ाई पहाड़ों की लड़ाई होगी, वह भी कई मोर्चों पर एक साथ होगी भारत को इस लड़ाई के लिए इतनी सामरिक शक्ति और सेना चाहिए कि वह उसे पूरे हिमालय में लगा सके। चीन जहां से भारत में प्रवेश करने का प्रयास करेगा वह पाकिस्तान अधिकृत कश्मीर से लेकर लद्दाख, तिब्बत, नेपाल, सिक्किम, भूटान, अरुणाचल प्रदेश, नागालैंड, मिजोरम, त्रिपुरा, मणिपुर और बर्मा है, ऐसे में यह स्वभाविक प्रश्न है कि हम आज कहां हैं ?
आइएचएस मार्किट की इस रिपोर्ट में अमेरिका 622 अरब डॉलर के रक्षा बजट के साथ सबसे ऊपर है। उसके बाद 191.7 अरब डॉलर के साथ चीन दूसरे स्थान पर है और ब्रिटेन 53.8 अरब डॉलर के साथ तीसरे स्थान पर है। किंतु यह रिपोर्ट जो खास बात को लेकर भविष्यवाणी करती दिखती है, वह है कि 2020 तक चीन पूरे पश्चिमी यूरोप जितना रक्षा पर खर्च करेगा। 2025 तक उसका रक्षा खर्च एशिया प्रशांत क्षेत्र के सभी देशों के कुल रक्षा खर्च से ज्यादा हो जाएगा। यह बात भारत के लिए जरूर बड़ी खतरे की घण्टी है।
यानि इससे यह बात तो सुनिश्चित हो जाती है कि यदि दुनिया में अपने को सिद्ध करना है तो अमेरिका की तरह या चीन की तरह सामरिक और आर्थिक दोनों मोर्चों पर स्वयं को श्रेष्ठ साबित करना ही होगा, तभी दुनिया पूरी तरह आपकी बात मानने को तैयार होती है। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी से देश यही उम्मीद कर रहा है कि वे भारत को दुनिया की अमेरिका और चीन के बाद तीसरी ताकत बनाकर दिखाने में सफल होंगे। इसके लिए वे आगे रक्षा मामलों में भी कठोर निर्णय लेंगे ही, जिसकी कि देश को आज आर्थिक मोर्चे पर नोटबंदी के बाद सबसे ज्यादा जरूरत है।