संस्कृति दरअसल मानव प्रगति की यात्रा का ही दूसरा नाम है । जीव जीव का भोजन है , यह आदिम प्रवृति की सब से बड़ी पहचान है । आदिम प्रवृत्तियों पर नियंत्रण ही सांस्कृतिक उत्थान की पहचान है । सभी जीवों में से मानव को ही सबसे ज़्यादा बुद्धिमान माना जाता है । अब देखना केवल इतना ही है कि मानव नाम का यह जीव अपनी बुद्धि का प्रयोग दूसरे निर्वाह जीवों की रक्षा के लिये करता है या उन्हें समाप्त करने के लिये । विद्वान ऐसा मानते हैं कि मानव जाति के इतिहास में मानव नाम के जीव ने पिछली कुछ शताब्दियों में अन्य जीवों का जितने बड़े स्तर पर नाश किया है , उतना शायद आज तक नहीं किया । मानव चतुर प्राणी है । जीव हत्या जैसे क्रूर कर्म को कोई अच्छा सा नाम दे दिया जाये , इस लिये मनुष्य ने जीव हत्या को बलि का नाम देकर महिमामंडित भी करना शुरु कर दिया ।
लेकिन भारत में इस के ख़िलाफ़ समय समय पर जन आक्रोश भी प्रकट होता रहता है । भारतेन्दु हरिश्चन्द्र ने तो वैदिकी हिंसा हिंसा न भवति नाटक लिख कर इस पूरी प्रथा पर गहरी चोट की थी । हिमाचल प्रदेश उच्च न्यायालय ने पिछले दिनों ऐसी ही एक याचिका पर सुनवाई करते हुये मंदिरों में पशु बलि को प्रतिबन्धित कर दिया । इसी प्रकार मुम्बई उच्च न्यायालय ने मुस्लिम राष्ट्रीय मंच के कार्यकर्ताओं की याचिका पर निर्णय देते हुये बक़रीद के दिन मारे जाने के लिये तैयार बारह हज़ार बैलों की हत्या पर रोक लगा दी । इन क़दमों का निश्चय ही स्वागत किया जाना चाहिये । पशु वध के मामलों में भी गोवा को लेकर पूरा समाज उत्तेजित होता है । उसका कारण यह है कि गाय का भारतीय संस्कृति में माता के सदृश स्थान है । यही कारण है कि गो हत्या को प्रतिबन्धित करने के लिये देश में अनेक संगठन समय समय पर आन्दोलन भी चलाते रहे हैं । सभी के ध्यान में ही होगा कि पिछली सदी के छटे दशक में दिल्ली में लाखों लोगों द्वारा गो हत्या को बंद करवाने की माँग करते हुये संसद को घेर लिया था । पुलिस की गोलावारी में अनेक साधु मारे गये थे , जिसकी देश भर में प्रतिक्रिया हुई थी । विश्व हिन्दू परिषद के एजेंडा में गो हत्या को देश भर में प्रतिबन्धित करवाना , सबसे ऊपर है । स्वतंत्र भारत में गो हत्या को रुकवाना महात्मा गान्धी जी की प्राथमिकताओं में सबसे उपर था । अनेक राज्यों ने गो हत्या को बन्द करने के अधिनियम भी हैं , लेकिन उनमें अनेक छिद्र हैं , जिसका लाभ हत्यारे उठाते रहते हैं । हिन्दुस्तान के मुसलमानों को ऐसा भ्रम है कि गो हत्या उनके मज़हब का ही हिस्सा है । यह भ्रम बहुत सीमा तक तो अंग्रेज़ों द्वारा फैलाया गया था , क्योंकि उनके खान पान की शैली में गो माँस भी प्रमुख रहता था । इस माँस की पूर्ति के लिये उन्होंने मुसलमानों का उपयोग किया । गो माँस मुसलमानों की भोजन शैली का हिस्सा न था और न ही है । क्योंकि हिण्दुस्तान के मुसलमान अरब या तुर्की से नहीं आये थे । वे तो यहाँ के हिन्दुओं से ही मज़हब बदल कर मुसलमान बने थे । मज़हब बदलने से उनकी भोजन शैली कैसे बदल सकती थी ? उनका खान पान वही रहा जो मज़हब बदलने से पहले था । लेकिन अंग्रेज़ों ने यह प्रचारित करना शुरु किया कि गो हत्या मुसलमान का मज़हबी फ़र्ज़ है ।
पिछले कुछ अरसे से मुस्लिम राष्ट्रीय मंच नाम के संगठन ने इस विषय पर स्थिति को स्पष्ट करना शुरु ही नहीं किया है बल्कि लाखों की संख्या में हस्ताक्षर करके भारत सरकार को गो हत्या बन्द करने के लिये याचिका भी दी है । लेकिन इस सबके बावजूद कृषि शैली में आ रहे परिवर्तनों के कारण गो वंश की स्थिति बिगड़ती जा रही है । इसको लेकर हिमाचल प्रदेश में विश्व हिन्दू परिषद से सम्बंधित भारतीय गोवंश रक्षा संवर्धन परिषद के कुछ समाज सेवियों ने पिछले दिनों शिमला स्थित हिमाचल प्रदेश उच्च न्यायालय में एक याचिका दायर की थी । उस याचिका का निबटारा करते हुये उच्च न्यायालय ने जो आदेश जारी किये हैं वे देश की सभी राज्य सरकारों के लिये मार्गदर्शक हो सकते हैं । उच्च न्यायालय ने कहा कि जिस प्रकार मनुष्यों के अधिकार होतें हैं उसी प्रकार पशुओं के भी अधिकार होतें हैं और उनकी रक्षा करना राज्य का ही कर्तव्य है । उच्च न्यायालय ने आदेश पारित किया है कि प्रदेश में कहीं भी गो हत्या नहीं हो सकती , जो व्यक्ति यह कार्य करता है या किसी से करवाता है या करने के लिये किसी को उकसाता है , तो वह दंड का भागीदार होगा । इसी प्रकार कोई व्यक्ति प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष रुप से वध के लिये गो वंश को प्रदेश के बाहर नहीं भेजेगा । इस हेतु गो वंश की तस्करी दण्डनीय अपराध है । न्यायालय ने आदेश पारित किया है कि गो वंश के लिये राज्य सरकार स्थानीय स्वशासन के निकायों को गोशाला या गो सदन बनाने के लिये धनराशि का प्रावधान करेगी । ये गो सदन वैज्ञानिक मानकों के आधार पर निर्मित होने चाहियें ताकि इसमें रखे जाने वाले पशुओं की पूरी सुविधा का ध्यान रखा जा सके । इतना ही नहीं , उच्च न्यायालय ने राज्य सरकार के पशु चिकित्सकों को यह भी आदेश दिया है कि भटक रहे पशुओं की चिकित्सा उन्हें करनी चाहिये । न्यायालय ने राज्य के मुख्य सचिव को आदेश दिया है कि वे इन निर्देशों का पालन सुनिश्चित करें ।
हिमाचल प्रदेश उच्च न्यायालय के ये निर्देश प्रशंसनीय हैं । दरअसल गो वंश के वध व तस्करी रोकने के अधिनियम तो लगभग हर प्रदेश में बने हुये हैं । संविधान के राज्य की नीति के निर्देशक सिद्धान्तों में भी गो वंश की हत्या रोकने के प्रावधान हैं । मुख्य सवाल उन के पालन का है । अनेक स्थानों में गो वंश की तस्करी में स्थानीय पुलिस और प्रशासन की मिली भगत रहती है । पिछले दिनों हरियाणा में ऐसे अनेक हादसे हुये हैं , यहाँ साधारण लोगों ने हत्या के लिये ले जाईं जा रही गायों के ट्रक पकड़े हैं लेकिन पुलिस ऐसे मामलों में गो तस्करों के साथ खड़ी दिखाई दी । ऐसी घटनाएँ भी हुईं जब गो तस्करों ने गो तस्करी को रोकने का प्रयास कर रहे सामाजिक कार्यकर्ताओं पर हिंसक आक्रमण कर दिया । पुलिस मूक दर्शक बन कर खड़ी रही । कुछ स्थानों पर पुलिस जानबूझकर कर गो हत्या के मामलों में आँख मूँद लेती हैं । इसका कारण हत्यारों को मिलने वाला राजनैतिक संरक्षण हो सकता है । अनेक राजनैतिक दल यह मान कर चलते हैं कि गो हत्या से रोकने पर मुस्लिम समाज नाराज़ हो सकता है । इस प्रकार गो वध मुस्लिम तुष्टीकरण में परिवर्तित हो सकता है । जबकि असलियत यह है कि गो वध में आम मुसलमान शामिल नहीं है बल्कि इसके संचालक सुसंगठित गिरोह हैं , जिनके लिये यह करोड़ों के व्यापार का साधन हैं । गो माँस की देश से बाहर भी तस्करी होती है । पता चला है कि अब तो कुछ स्थानों पर सरकार ख़ुद ही पशुओं की कतलगाहों के निर्माण को प्रेत्साहित कर रही है । ऐसे माहौल में हिमाचल प्रदेश उच्च न्यायालय की यह पहल अन्य राज्यों के लिये पंथ प्रदर्शन हो सकती है ।