‘काले धन’ के सवाल पर जितने नेता लोग बौखलाए हैं, उतनी बौखलाहट उद्योगपतियों और व्यवसायियों में देखने में नहीं आ रही है। इसका अर्थ क्या है? इसका एक अर्थ यह भी हो सकता है कि काले धन के जितने बड़े नगद भंडार नेताओं के पास हैं, उतने उद्योगपतियों और व्यवसायियों के पास नहीं हैं। यह भी संभव है कि नेता अपने पास नगद ज्यादा रखते हैं, क्योंकि उन्हें चुनावों में नगद बांटना और खर्च करना पड़ता है जबकि उद्योगपति और व्यवसायी उस पैसे को अपने धंधे में ही लगाए रखते हैं या वे जमीनें, सोना, जवाहारात वगैरह खरीदकर रख लेते हों।
इसके अलावा वे अपने रुपए को डालर में बदल कर विदेशी बैंकों में छिपाकर रख रहे हैं। अपनी सरकार इस काले धन के सामने अभी तक निरुपाय-असहाय है। नेता लोगों के लिए अपने पैसे को विदेशों में छिपाकर रखना बहुत मुश्किल भरा है। नेता लोग विदेशों में संपत्तियां खरीदने से भी रहे। वे सबको दिखेंगी और वे रंगे हाथ पकड़ जाएंगे। इसीलिए ‘काले धन’ के मसले पर वे ही सबसे ज्यादा बदहवास हैं।
एक-एक बड़े नेता ने हजारों करोड़ रु. जमा कर रखे हैं। मोदी सरकार में यदि जरा दम हो तो उन पर छापे मारकर दिखाए। कोई बड़ा पार्टी-नेता ऐसा नहीं निकलेगा, जिसके घर से करोड़ों रु. नकद नहीं निकलेंगे। कुछ विरोधी नेताओं का कहना है कि भाजपा के नेताओं ने अपने पैसे पहले ही ठिकाने लगा दिए होंगे और फिर 500 और 1000 के नोट अमान्य कर दिए। हम मारे गए। चुनाव के पहले ही हमें सरकार ने हरा दिया।
विरोधियों की बात मोटे तौर पर ठीक मालूम पड़ती है लेकिन भाजपा ने क्या अपने हजारों करोड़ के बड़े नोटों को 100-100 रु. के नोटों में बदलवा लिया होगा, या जायदाद या सोना खरीद लिया होगा? विरोधी नेताओं के बयानों को वे आम लोग थोड़ा ध्यान से जरुर सुन रहे हैं, जिन्हें अपने बड़े नोट बदलवाने में असुविधा हो रही है लेकिन सबसे ज्यादा असुविधा नेताओं को हो रही है। वे किस बैंक में जाएं? क्या ही अच्छा हो कि वे अपने अरबों रु. अपने समर्थकों और गरीबों में बांट दें तो शायद हर आदमी को 15 लाख रु. बांट देने का जुमला कुछ हद तक सही साबित हो जाए। कहिए, कैसा रहा, यह सुझाव?