पांच राज्यों के चुनाव तो हो गए। उनमें मतदान भी जमकर हुआ। अब अंदाजी घोड़े दौड़ने शुरु हो गए। कौन जीतेगा, कौन हारेगा- इस पर सर्वेक्षण जारी हो रहे हैं। इन सर्वेक्षणों का आधार क्या है? मतदाताओं का रुझान! जाहिर है कि कुछ हजार मतदाताओं से बात करके आप दो-तीन करोड़ मतदाताओं का रुझान बताने की कोशिश करते हैं। कभी यह सफल हो जाती है, कभी नहीं।
फिलहाल, ज्यादातर सर्वेक्षणों की राय है कि असम में भाजपा सरकार बना लेगी। यदि अल्प बहुमत से भी यह सरकार बन जाती है, तो यह देश के लिए अच्छा होगा। पहली बार कांग्रेस के अलावा कोई अखिल भारतीय पार्टी इस सीमांत-प्रदेश में राज चलाएगी। एक ऐसी पार्टी असम में राज करेगी, जिसके पास विदेशी घुसपैठियों और अतिवादियों से निपटने के तीखे नुस्खे हैं। असम में भाजपा का शासन आराम से चलना मुश्किल होगा लेकिन सीमांत प्रदेशों में लौह-शासन की जरुरत भी है।
असम की विजय का दूसरा फायदा भाजपा को यह होगा कि उसका फिसलता हुआ आत्म-विश्वास थोड़ा-सा थमेगा। बिहार की हार के घावों पर थोड़ा मरहम लगेगा लेकिन केरल, तमिलनाडु, प. बंगाल और पुदुचेरी में यदि भाजपा को नाम-मात्र भी विजय मिली तो यह स्पष्ट हो जाएगा कि 2014 की लहर उतर चुकी है। यदि वोटों की संख्या बढ़ गई और सीटें 2014 के अनुपात में न मिलें तो भी हालत बुरी नहीं मानी जाएगी।
इन प्रांतीय चुनावों में विरोधी दलों की स्थिति चुनाव के पहले ही हास्यास्पद हो गई है। पं. बंगाल में कांग्रेस ने मार्क्सवादी पार्टी के साथ गठबंधन बना रखा है और केरल में वह उसके विरोध में खड़ी हुई हैं। इसका अर्थ क्या हुआ? सिद्धांत गौण और सत्ता प्रमुख! कांग्रेस के लिए तो यह ठीक है लेकिन सिद्धांतवादिता का ढोल पीटने वाली मार्क्सवादी पार्टी के पास इस शीर्षासन का जवाब क्या है? यदि तमिलनाडु में द्रमुक-कांग्रेस गठबंधन और पुदुचेरी में कांग्रेस की जीत हो गई तो यह कांग्रेस की नाक बचाने का साधन बन जाएगी। यदि तमिलनाडु में जयललिता जीत गई तो कांग्रेस को गहरे विचार में डूबने की नौबत आ जाएगी। उसे प्राइवेट लिमिटेड कंपनी के अपने रुप को बदलने पर विचार करना पड़ेगा। इन चुनावों में जितना रुपया और समय खर्च हुआ है, उसे देखते हुए अब देश में सारे चुनावों को एक साथ करवाने की बात पर भी सोचना होगा।