निरंजन लाल को कभी उम्मीद भी न थी कि उनके दिल का इलाज कुछ इस तरह मुफ्त में करने की मुंहमांगी मुराद कुछ यूं पूरी हो जाएगी। एक फैक्ट्री में वाचमैन की नौकरी करनेवाले 72 वर्षीय निरंजन लाल पाठक को पांच साल पहले जब इंदौर के महाराजा यशवंतराव अस्पताल ने हृदय रोग के मुफ्त इलाज का आफर किया था तो उन्हें लगा था जरूर यह अस्पताल की ओर से किया जानेवाला जनकल्याण का कोई काम होगा जिसमें संयोग से उन्हें इलाज के लिए चुन लिया गया है। डॉक्टरों ने भी उन्हें यही कहा था कि उन्हें इलाज के लिए एक रूपया भी अपनी तरफ से खर्च करने की जरूरत नहीं है बल्कि दवाइयां भी सीधे अस्पताल के डॉक्टर ही देंगे, उन्हें किसी मेडिकल स्टोर में जाने की जरूरत नहीं है। लेकिन निरंजन लाल को बहुत बाद में पता चला कि उनका इलाज नहीं हो रहा था बल्कि उनके ऊपर दवाइयों का परीक्षण किया जा रहा था।
निरंजन के ऊपर एक जापानी दवा कंपनी की दवा आटोपॉक्सर का परीक्षण किया गया था। दवा के परीक्षण से निरंजन लाल का स्वास्थ्य सुधरने की बजाय बिगड़ने लगा तो घरवालों ने पाया कि उनके ऊपर दवा का परीक्षण किया गया है। एक स्वास्थ्य एनजीओ की मदद से सुप्रीम कोर्ट पहुंचे निरंजन लाल के मामले को विदेशी मीडिया ने उठाया तो जरूर लेकिन यह कहते हुए कि विदेशी दवा कंपनियों के लिए भारत में क्लिनीकल ट्रायल सबसे महंगा पड़ रहा है। जबकि अभी तक अधिकतर रपटें यही कह रही थीं कि चीन के बाद भारत में दवा परीक्षण का बेहतरीन माहौल है। इस उपलब्धि में दवा परीक्षण का इतिहास बहुत काला रहा है। सरकारी आंकड़े कहते हैं कि वर्ष 2005 से 2012 के बीच 475 दवाओं के परीक्षण की वजह से 2,644 मरीजों की मौत हुई। सन् 2008 में 288, 2009 में 637 और 2010 में 668 लोगों की मौत हुई है। इस तरह से एक जान की औसत कीमत महज ढाई लाख रुपए आंकी गई। मुआवजा देने वाली कंपनियों में मर्क, क्विनटाइल्स, बेयर, एमजेन, ब्रिस्टल मेयर्स, सानोफी और फाइजर भी शामिल हैं। निश्चय ही मुआवजे के लिए महज ढाई लाख की रकम दूसरे देशों की तुलना में बहुत कम है।
मध्यप्रदेश आंध्र प्रदेश में ऐसे गुपचुप दवा परीक्षण से होने वाली मौतों पर काफी हो हल्ला मच चुका है। फिर सुप्रीम कोर्ट के नोटिस के बाद अचानक किसी विदेशी मीडिया के माध्यम से यह प्रचार करना कि भारत में ऐसे परीक्षण महंगा सौदा है, कुछ और संकेत कर रहे हैं। कुछ ही दिन पूर्व सुप्रीम कोर्ट ने क्लीनिकल परीक्षणों के खिलाफ दायर जनहित याचिका पर सुनवाई के दौरान कहा था कि ये परीक्षण देश की जनता के हित में होने चाहिए और सिर्फ बहुराष्ट्रीय कंपनियों को लाभ पहुंचाने के लिये इसकी इजाजत नहीं दी जानी चाहिए।
जीवन बचाने जैसे सकारात्मक उद्देश्य के साथ दवाओं का परीक्षण तो ठीक है। लेकिन मरीज के परीजनों को अंधेरे में रख कर मरीज के साथ जानलेवा परीक्षण निश्चित रूप से न्यायपूर्ण नहीं कहा जा सकता हैं। अमूमन यह देखा गया है कि दवाओं का परीक्षण मानसीक रूप से कमजोर लोगों पर किया गया। कई बार मानसिक रूप से ठीक लोगों पर भी परीक्षण हुआ, लेकिन उनके परीजनों को इसकी जानकारी नहीं दी गई। इस क्रम ढेरों प्रयोग असफल हुए और ढेरों मौतें भी हुई। ताजी रिपोर्ट तो कहती है कि दवा परीक्षण के दुष्प्रभाव के कारण करीब 12 हजार लोग पीड़ित है। कुछ इतने दर्द में हैं कि वे मौत की दुआएं मांग रहे हैं। सरकारें बगले झांक रही है। मरे हुए लोगों को कोई ढंग के मुआवजे के लिए कहीं कोई बुलंद आवाज नहीं है। शायद सरकार ठीकठाक मुआवजा दिला दे तो मरने वाले के गरीब परिवार के दर्द पर मरहम लग सके। ऐसे पीड़ित परिवारों की इतनी हैसियत नहीं होती है कि वे दवा कंपनियों को कोर्ट में घसीट सकें।
विश्व स्वास्थ्य संगठन (ंडब्ल्यूएचओ) की रिपोर्ट के अनुसार सन् 2010 में भारत में क्लिनिकल ट्रायल का कारोबार करीब एक अरब डालर का हो गया है। किंतु मरीजों मरीजों को मौत के मुआवजे के नाम पर केवल खानपूर्ति की जाती रही है। ऐसे मौत में पोस्टमार्टम भी होता है तो उसकी रिपोर्ट ऐसे बनाई जाती है, जिससे दवाओं के प्रयोग की काली हकीकत नहीं होती है। अमूमन दवाओं का प्रयोग गरीब मरीजों पर होते हैं। प्रयोग सफल हो जाए तो मौत उन्हें ताड़पाकर गले लगाती है। यदि दवा का प्रयोग सफल हो जाए तो वही दवा गरीबों को सुलभ नहीं होती है। आंध्र प्रदेश और गुजरात में सन् 2009-10 के दौरान दवा परीक्षणके मामले में सुप्रीम कोर्ट ने 162 नई दवाओं के परीक्षण पर प्रतिबंध लगाया दिया है। लेकिन केवल प्रतिबंध लगा देने भर से किसी पीड़ित गरीब को कोई न्याय नहीं मिल जाता है। मौत देने वाले ऐसे परीक्षणों में जिम्मेदारी किसकी सुनिश्चित की गई। किसी को कोर्ट ने दंड दिया तो ऐसी खबर नहीं आती।
कोई विदेशी मीडिया भले ही भारत में दवा परीक्षण के महंगे होने का यह दवा करें, लेकिन अब तक के परीक्षण के आंकड़े तो यही बता रहे हैं कि भारत बहुराष्ट्रीय दवा कंपनियों के लिए पिछले कुछ बरसों से दवाओं के परीक्षण का हब बन चुका है। गरीब मरीज इनके प्रयोग के सबसे सस्ते शिकार हैं। परीक्षण के बारे में उनको कोई जानकारी भी नहीं दी जाती, न ही कोई नियम-कायदे अपनाए जाते हैं।
दवा के परीक्षण के खिलाफ सक्रिय संगठनों का दावा है कि देश में ऐसे मौतों का सही अांकड़ा नहीं है। सन् 2010-2012 के मध्य ड्रग कंट्रोलर जनरल ने 1,065 लोगों पर दवा परीक्षण की अनुमति दी। लिहाजा, अनुमति लेकर दवाओं के परीक्षण के दौरान जो मौतें हुई उसके ही अांकड़े सामने आते हैं। जबकि एक दवा के प्रयोग की अनुमति लेकर कंपनियां कई दवाओं का प्रयोग करती हैं। इनमें से कई कंपनियां भारतीय कंपनियों को अपना एजेंसी बनाती है वे खुद चीन, मेलेशिया, सिंगापुर आदि देशों से उनके माध्यम से अपना प्रयोग करवाती हैं, जिससे कि विपरीक्ष स्थिति में वह भारत के कानूनी पचड़े से दूर रहे।