जाति जनगणना का इतिहास खंगालने पर पता चलता है कि देश में पिछली बार सन 1931 में अंग्रेजों ने जातियों की गिनती करवाई थी। 21वीं सदी में एक दशक निकल जाने के बाद केंद्र सरकार ने इसके लिए मन बनाया। 21 दिन में पूरी होने वाली 2011 की आम जनगणना के लिए जो राशि खर्च हुई, उस पर प्रति व्यक्ति औसतन 18 रुपये का खर्च आया। वहीं जाति जनगणना में प्रति व्यक्ति औसतन करीब 30 रुपये के हिसाब से बजट रखा गया। लेकिन इनती भारी-भरकम राशि खर्च होने के बाद भी जाति जनगणना का अतापता नहीं है।
करीब एक बरस पहले की बात है। घर पर दो लोग टेबलेट के साथ लैस हो कर आए। जाति गनगणना की जानकारी ली। एक पर्ची दिया और चले गए। आज सहज की वह बात याद आई तो अपने कई मित्रों से यह पूछा कि क्या उनकी भी जाति पूछने वाले कोई आए थे। उन्होंने बताया कि आज तक उनके पास ऐसे सवाल लेकर कोई नहीं आया। जबकि सरकार की एक इकाई वर्ष 2011 से अब तक देश में जाति जनगणना में लगी है।
देश की सियासत में मचे काफी बवाल के बाद करीब ढाई बरस पहले जून, 2011 में सामाजिक, आर्थिक व जाति जनगणना की शुरुआत हुई। सरकार ने बताया कि सामाजिक, आर्थिक व जाति जनगणना 2011 में सितंबर तक पूरा कर लिया जाएगा। क्या आपको कभी आपके जेहन में यह सहज ख्याल आया कि इस जनगणना का क्या हुआ? सरकार ने जाति जनगणना के परियोजना के लिए 3543.29 करोड़ रुपये का भारी भरकम बजट तय किया था। देश में हर दस साल पर होने वाली जनगणना 21 दिन में पूरी होती है। 2011 में जो आम जनगणना हुई थी उसके मुकाबले जाति जनगणना के लिए 1345 करोड़ रुपये की अधिक राशि का प्रावधान किया गया। इस जनगणना को पूरी करने के लिए हाईटेक तकनीक अपनाने की भी बात कही गई थी। करीब ढ़ाई महीने पहले एक आरटीआई से यह जानकारी मिली थी कि इस परियोजना में महज 293 करोड़ रुपये ही शेष बचे थे। शायद इन ढ़ाई महीनों में यह राशि और भी अल्प हो चुकी होगी। भारी भरकम बजट के इस गणित को और सरलता से समझिए।
2011 की आम जनगणना के लिए जो राशि खर्च हुई, उस पर प्रति व्यक्ति औसतन 18 रुपये का खर्च आया। वहीं जाति जनगणना में प्रति व्यक्ति औसतन करीब 30 रुपये के हिसाब से बजट रखा गया। लेकिन इनती भारी-भरकम राशि खर्च होने के बाद भी जाति जनगणना का क्या हाल है, इसकी चिंता किसी को नहीं है। सियासी गलियारे में उन लोगों को भी ध्यान नहीं है जिन्होंने जाति जनगणना के पुराजोर पैरोकार थे। इस जनगणना के खिलाफ गला फाड़ कर विरोध करने वालों भी अब चुप है। कम से कम विरोधी तो यह सवाल खड़े कर ही सकते हैं कि इनती बड़ी राशि खर्च करने के बाद भी जाति जनगणना की हालत क्या है। सरकार चाहती तो 2011 के ही आम जनगणना में महज एक जाति का कॉलम जोड़ कर देश में जातिवार जनसंख्या का आंकड़ा जान सकती थी। लेकिन अफसरशाही ने नियम कायदों का धौंस दिखा कर गोपनियता की दुहाई देकर अपनी मनमर्जी चला ली। लिहाजा, नई परियोजना बनी। भारी भरकम बजट रखा गया और परिणाम क्या आया आज तक कोई खबर नहीं।
जाति जनगणना का इतिहास खंगालने पर पता चलता है कि देश में पिछली बार सन 1931 में अंग्रेजों ने जातियों की गिनती करवाई थी। अंगरेज तो चले गए, लेकिन उसके बाद आजाद भारत की सरकार ने कभी जाति जनगणना की सुध नहीं ली। जबकि देश के संतुलित समाजिक व जातिगत विकास के लिए यह जनगणना बेहतर जरूरत थी। जाति व्यवस्था पर संचालित हजारों वर्षों के सामाजिक व्यवस्था को आजाद भारत में इसे समाज की आवश्यक बुराई कर कर हासिये पर रख दिया गया। लेकिन दशकों बाद जब हाशिये के जाति के लोग पढ़ लिख कर सचेत हुए तो इक्कीसवी सदी की सरकार जाति जनगणना की सुध लेती है। पर इसके लिए अपनाये जााने वाले इस युग की हाईटेक तकनीक में यह जाति जनगणना पूरी तरह से दम तोड़ती दिख रही है।
इसमें कोई शक नहीं कि देश में जाति की राजनीति होती है। हर चुनाव में उम्मीदवारों के चयन के वक्त जातिय समीकरण का विशेष ध्यान रखा जाता है। भारी भरकम बजट उपलब्ध करा कर सरकार भले ही देश की जातिगत जनगणना में फेल होती दिख रही हो, लेकिन राजनीतिक दल हमेशा इसमें अव्वल रहे हैं। हर राजनीतिक दल चुनाव से पहले संबंधित क्षेत्र के जातिय मतदाओं की संख्या के आधार पर अपना राजनीतिक गणित समझ-बुझ लेते हैं। आम कार्यकर्ता मतदाता सूची और पंचायत स्तर पर मिले कमोबेश आंकड़ों से अपना सटीक हिसाब निकाल कर आला कमान को सौंपते हैं। और उसी पर राजनीतिक चलती है। जनगणना विभाग से जुड़े जानकार बताते हैं कि हाईटेक तकनीक से होने वाली जाति जनगणना में करीब छह करोड़ टेबलेट का उपयोग होने वाला था। सरकार ने कितना टेबलेट खरीदा वही जाने।