संसद के अंदर-बाहर महिला आरक्षण बिल को लेकर हंगामा था। तमाम न्यूज चैनलों में बहस चल रही थी कि आरक्षण बिल पास होगा या नहीं। रिपोर्टरों से लेकर विशेषज्ञ इस मुद्दे पर जूझ रहे थे। अचानक हिन्दी के तीन टॉपमोस्ट राष्ट्रीय न्यूज चैनलो के पर्दैं पर ब्रेकिंग न्यूज आयी-आनंदी को गोली लगी। आनंदी की हालत नाजुक। जगीरा को बचाने में लगी आनंदी को गोली। जा सकती है आनंदी की जान। लगातार आधे घंटे तक ब्रेकिंग न्यूज की ये पट्टियां चलती रहीं। आधे घंटे बाद इन्हीं तीन न्यूज चैनलों में से देश के अव्वल राष्ट्रीय न्यूज चैनल में ब्रेकिंग न्यूज के साथ ही पट्टी लिखी आने लगीं-टीआरपी के लिये बालिका वधू का खेल। इंटरटेनमेंट चैनलों में टीआरपी की जंग। आनंदी को गोली टीआरपी के लिये मारी गयी।
एक झटके में लगा कि महिला आरक्षण को लेकर खबरों की जो संवेदनशीलता हिन्दी न्यूज चैनलों में दिखायी जा रही थी, उसने अपनी टीआरपी के खेल में खबरों की जगह टीआरपी वाले इंटरटेनमेंट चैनलों के सीरियलो की टीआरपी को भी खुद से जोड़ने की नायाब पहल शुरु कर दी है। कुछ इसी तर्ज पर खबरों को कवर करने से लेकर दिखाने का खेल भी न्यूज चैनल खुल्लम खुल्ला अपनाने लगे हैं। कॉमनवेल्थ गेम्स की कवरेज को लेकर दिल्ली में ओलंपिक एसोसिएशन ने न्यूज चैनलों को आमंत्रित किया। कमोवेश हर न्यूज चैनल के संपादक स्तर के पत्रकार कैमरा टीम के साथ इस बैठक में नजर आये। सभी के पास कॉमनवेल्थ गेम्स के कवरेज को लेकर प्लानिंग थी। और सभी सीधे सुरेश कलमाडी से संवाद बनाने में लगे थे।
वहीं माओवादियों के खिलाफ ग्रीन हंट शुरु होने के बाद पहली बार दिल्ली में सरकार के खिलाफ मोर्चाबंदी करते हुये कई लोग एकसाथ मंच पर आये। इसमें जानी मानी लेखिका और एक्टिविस्ट अरुंधति राय, पूर्व आईएएस और नक्सलियों के बीच काम कर रहे बी डी शर्मा से लेकर मेनस्ट्रीम पत्रिका के संपादक सुमित चक्रवर्ती समेत कई क्षेत्रों से जुड़े आधे दर्जन से ज्यादा लोगों ने दिल्ली के फॉरेन प्रेस क्लब में प्रेस कॉन्फ्रेंस की। इस प्रेस कॉन्फ्रेंस में बीबीसी,रायटर्स और सीएनएन जैसे अंतरराष्ट्रीय चैनल और एजेंसियों के पत्रकार मौजूद थे। लेकिन हिन्दी के टॉपमोस्ट पांच न्यूज चैनलों में से कोई पत्रकार वार्ता को कवर करने नहीं पहुंचा। जब देश के तीन सौ से ज्यादा जिलों को रेड कॉरिडोर में मान आंतरिक सुरक्षा का सवाल सरकार खड़ा कर रही है और आतंकवाद की तरह माओवाद को भी मान रही है तो भी किसी न्यूज चैनल के संपादक ने इस प्रेस कॉन्फ्रेंस को दिखाना जरुरी नहीं समझा । जबकि अगले दिन नॉर्थ ब्लॉक से निकलते गृह मंत्री पीं चिदंबरम की एक टिप्पणी, जिसे टेलीविजन की भाषा में बाइट कहा जाता है, को लेने के लिये करीब बीस न्यूज चैनलों के माईक-कैमरे सजे पड़े थे, जिसमें माओवादियों को लेकर बिहार-झारखंड की सरकार के ग्रीन-हंट ऑपरेशन को हरी झंडी देने की बात कही जा रही थी।
यह टीआरपी की अगली कडी है। जिसमें खबरों को कवर करना या ना करना भी सीधे धंधे से मुनाफा बनाना है। सुरेश कलमाडी आज की तारीख में किसी भी न्यूज चैनल के संपादक के लिये सबसे बड़े व्यक्ति हैं। क्योंकि कॉमनवेल्थ के प्रचार प्रसार में मीडिया के हिस्से में करीब पाच सौ करोड़ का विज्ञापन है। और इस पूंजी को पाने के लिये कोई भी न्यूज चैनल अब यह खबर नहीं दिखा सकता है कि कॉमनवेल्थ की तैयारी कमजोर है। य़ा फिर दिल्ली में यमुना की जमीन से लेकर कॉमनवेल्थ के लिये दिल्ली में हजारों हजार पेड़ काटे जा चुके हैं और सिलसिला लगातार जारी भी है। यमुना की जमीन पर जिस तरह कॉमनवेल्थ के लिये कंक्रीट का जंगल खडा किया गया है, उससे सौ साल में सबसे ज्यादा पर्यावरण गर्म होने की स्थिति दिल्ली की है। लेकिन अब मीडिया की नजर कॉमनवेल्थ के धंधे से मुनाफा बनाने की है तो पर्यावरण तो दूर की बात है, खिलाड़ियों की बदहाली से जुडी खबरें भी गायब हो चुकी हैं। यानी कॉमनवेल्थ में सोने के तमगे का जुगाड़ होगा कैसे और खिलाड़ी जिन्हें कॉमनवेल्थ में देश का नाम रोशन करना है, वह खुद कितने अंधेरे में हैं, इस पर भी कोई खबर दिखाना नहीं चाहता क्योंकि उसे डर है कि कहीं कॉमनवेल्थ के प्रचार-प्रसार का विज्ञापन उसकी झोली से ना खिसक जाये। साथ ही वह तमाम कॉरपोरेट कंपनियां, जिनका जुडाव कॉमनवेल्थ गेम्स से है उनको लेकर भी कमाल का प्रेम मीडिया ने दिखाना शुरु कर दिया है। क्योंकि निजी विज्ञापन भी करीब हजार करोड से ज्यादा का है, जिसका इंतजार मीडिया कर रहा है। मीडिया की पूरी नजर इस वक्त करोड़ों रुपए के इन विज्ञापनों पर ऐसी टिकी है कि उसे इसके अलावा कुछ दिखायी नहीं दे रहा।
ऐसे में सरकार और माओवाद के टकराव में देश के दो करोड़ से ज्यादा आदिवासी-ग्रामीणों का हाल कितना बदहाल है, इस पर देश के बुद्दिजिवियों को कोई न्यूज चैनल क्यों कवर करेगा। वहीं सरकार से करीबी धंधा करते न्यूज चैनलों को खबरनवीस भी माने रखगी तो फिर माओवाद हो या देश की कोई भी समस्या सिर्फ सरकार की परिभाषा के अलावे कुछ भी दिखाने का कोई मतलब है ही क्या। असल में खबर की जगह पूंजी का मुनाफा किस रुप में अपनाया जा चुका है, इसका एहसास हॉकी से लेकर आईपीएल के जरीये भी जाना जा सकता है। हॉकी को लेकर न्यूज चैनलों की बेरुखी तबतक रही जबतक प्रयोजक के तौर पर हीरो-होंडा और सेल सामने नहीं आये। जैसे ही विज्ञापनो का पैसा मीडिया में पंप हुआ और ओलंपिक एसोसिएशन ने पहल की तो तुरत-फुरत में राष्ट्रीय खेल को लेकर राष्ट्रीय भावना जाग गयी और औसतन प्रति दिन तीस से पच्चतर मिनट तक के कार्यक्रम हॉकी को लेकर दिखाये जाने लगे। जबकि उससे पहले डेढ़ मिनट से लेकर सात मिनट तक के प्रोग्राम ही न्यूज चैनलो पर चलते रहे थे। और उसमें भी आधे से ज्यादा हॉकी पर मंडराते आतंकवाद को लेकर रहते थे। आईपीएल को लेकर भी मीडिया की खुमारी तब टूटी जब उसके विज्ञापनो की बौछार हुई और विजुअल को दिखाने की इजाजत मिली।
जाहिर है खबरो को दिखाने के लिये सरकार से लाइसेंस ले कर खड़े हुये न्यूज चैनलो की समूची कतार ही जब खबरों को परिभाषित करने से पहले अपना मुनाफा और मुनाफे पर टिके धंधे को ही देख रही हो तब न्यूज को परिभाषित करने का तरीका भी बदलेगा और देश के हालात पर भी वही नजरिया सर्वमान्य करने की कोशिश होगी जो सरकार की नीति में फिट बैठे। ऐसे में अगर किसी न्यूज चैनल में किसी दुर्घटना या आतंकवादी हमला या फिर ब्लास्ट से इतर कोई भी खबर दिखायी दे जाये तो एक बार उसकी तह में जाकर जरुर देखना चाहिये क्योंकि बिना मुनाफे के कोई खबर खबर बन ही नहीं सकती। क्योकि अब सवाल है कि महिला आरक्षण बिल हो या आनंदी को गोली लगना या फिर महंगाई से त्रस्त देश के सत्तर करोड़ से ज्यादा लोगो का दर्द या कॉमनवेल्थ गेम्स को लेकर दिल्ली को रंगीन बनाने का खेल। न्यूज चैनलों के आईने में सभी ब्रेकिंग न्यूज हैं और सभी एक सरीखी खबर हैं। तो कौन माई का लाल कहेगा कि न्यूज चैनल खबर नहीं नाच-गाना दिखाते हैं ।