प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी द्वारा गत् 8 नवंबर को घोषित की गई नोटबंदी का दुष्प्रभाव बढ़ता ही जा रहा है। हालांकि नोटबंदी की घोषणा के बाद सरकार द्वारा जनता को यह आश्वासन दिया गया था कि 50 दिन में हालात सामान्य हो जाएंगे। परंतु 35 दिन बीत जाने के बावजूद अभी तक जनता को राहत मिलने की कोई किरण नज़र नहीं आ रही है। नोटबंदी के समर्थन में सरकार के पक्षकारों तथा इसके विरोध में विपक्षी नेताओं के वक्तव्यों को यदि दरकिनार कर दिया जाए और केवल देश के जाने-माने अर्थशास्त्रियों की बातों पर ही गौर किया जाए तो हमें यही नज़र आ रहा है कि प्रधानमंत्री का नोटबंदी का फैसला देश की अर्थव्यवस्था को नुकसान पहुंचाने वाला है। यकीनन उद्योग तथा व्यापार जगत में इसके दुष्परिणाम सामने भी आने लगे हैं। डॉलर की तुलना में रुपया कमज़ोर पड़ता जा रहा है। दूसरी तर$फ नोटबंदी की घोषणा से लेकर अब तक इस विषय पर प्रधानमंत्री स्वयं अपने कई अलग-अलग बयान देते आ रहे हैं। और उनके लगातार बदलते जा रहे बयानों से भी जनता में भ्रम की स्थिति पैदा हो रही है।
जिससमय प्रधानमंत्री ने एक हज़ार व पांच सौ रुपये की प्रचलित करंसी की नोटबंदी की घोषणा की थी उस समय उनके निशाने पर भ्रष्टाचार को समाप्त करना,काले धन को बाहर लाना,आतंकवाद पर काबू पाना तथा नकली करंसी पर अंकुश लगाना मुख्य रूप से शामिल था। नोटबंदी की घोषणा के फौरन बाद ही आतंकवादियों के पास से नई करंसी भी बरामद की जा चुकी,दो हज़ार रुपये की नई नोट का प्रयोग रिश्वत व भ्रष्टाचार में भी किया जाने लगा और इंतेहा तो यह है कि स्वयं भारतीय जनता पार्टी से जुड़ा हुआ एक कार्यकर्ता तथा उसकी बहन पंजाब के मोहाली में दो हज़ार रुपये की नकली नोट बनाने के आरोप में लाखों रुपये की दो हज़ार की नकली नोट के साथ गिरफ्तार भी हो लिया। जबकि दूसरा भाजपा कार्यकर्ता तमिलनाडु में लाखों रुपये की नई नकदी नोट के साथ पकड़ा गया। उधर विशेषज्ञों का यह भी मानना है कि एक हज़ार रुपये की नोट की तुलना में दो हज़ार रुपये की नोट काला धन जमा करने वालों के लिए और अधिक मददगार साबित होगी। गोया जिन उम्मीदों को लेकर प्रधानमंत्री ने नोटबंदी की घोषणा की थी उन सभी उम्मीदों पर नोटबंदी की घोषणा के मात्र 20 दिन के भीतर ही पानी फिर गया है।
नोट बंदी के एक पखवाड़े के बाद सरकार ने जनता को अपने $फैसले का औचित्य इन शब्दों में बताना शुरु किया कि देश में ‘कैशलेस’ व्यवस्था लागू होनी चाहिए तभी काला धन व भ्रष्टाचार पर अंकुश लग सकेगा। परंतु जब सरकार जनता के दबाव में इस निष्कर्ष पर पहुंचने लगी कि देश की बाज़ार व्यवस्था को पूरी तरह ‘कैशलेस’ नहीं बनाया जा सकता तब प्रधानमंत्री ने शब्दों का ताना-बाना रचते हुए जनता से ‘लेस कैश’ व्यवस्था स्थापित करने का आह्वान कर डाला। उधर इन सारी कवायद के बीच पूरे देश के बैंकों व एटीएम में लंबी-लंबी कतारों का लगना जारी है तथा पैसों की कमी के चलते आम लोगों में हाहाकार मचा हुआ है। अब तक लगभग ८५ लोग पूरे देश में इन्हीं लंबी कतारों में खड़े होकर अपनी जान गंवा चुके हें। जनता की परेशानियों में इज़ाफा होता जा रहा है। शादी-विवाह,पढ़ाई-लिखाई, क्रय-विक्रय, लेन-देन, तनख़्वाह, किराया-भाड़ा, डीज़ल-पैट्रोल, खेती-बाड़ी, बीज,खाद, दवा-इलाज तथा मज़दूरी आदि सब कुछ बुरी तरह से प्रभावित हो चुका है। कुछ अर्थशास्त्रियों तथा उद्योग से जुड़े लोगों का तो यहां तक मानना है कि यदि आज ही सब कुछ सामान्य हो भी जाए फिर भी उद्योग तथा व्यापार व्यवस्था को पटरी पर आने में कम से कम 6 महीने का समय लग सकता है। परंतु प्रधानमंत्री ने इस दिशा में अपने $कदम इतने आगे बढ़ा लिए हैं कि संभवत: अब स्वयं उनकी समझ में नहीं आ रहा है कि इस खतरनाक स्थिति से आखिर कैसे निपटा जाए लिहाज़ा वे कभी जनता को शब्दों की बाज़ीगरी से तो कभी जनता के बीच आंसू बहाकर तो कभी अपने त्याग व फकीरी जैसी तरह-तरह की दूसरी भावनात्मक बातें सुनाकर जनता को बहलाने की कोशिश कर रहे हैं।
पिछले दिनों प्रधानमंत्री ने मुरादाबाद में एक चुनावी जनसभा को संबोधित करते हुए कहा, ‘मैं लड़ाई लड़ रहा हूं आपके लिए, ज़्यादा से ज़्यादा यह मेरा क्या कर लेंगे हम तो फकीर आदमी हैं झोला लेकर चल पड़ेंगे’। उनके इस बयान की पूरे देश में जमकर खिल्ली उड़ाई गई। ज़ाहिर है देशवासियों ने इसके पहले विशेष विमान पर चलने वाला,आए दिन विदेश यात्राएं करने वाला,दिन में कई-कई बार मंहगी पोशाकें बदलने वाला तथा अपना नामधारी दस लाख रुपये कीमत का सूट पहनने वाला,बेश$कीमती घडिय़ां पहनने वाला आत्ममुग्धता का दीवाना शहंशाह रूपी ऐसा फकीर पहले कभी नहीं देखा था। देश ने अंबानी व अडानी जैसे उद्योगपतियों से दोस्ती रखने वाले ऐसे फकीर की पहले कभी कल्पना भी नहीं की थी। परंतु प्रधानमंत्री का स्वयं को फकीर कहकर जनता को प्रभावित करने की कोशिश भी जनता को रास नहीं आई। इसके पहले भी वे जनता के बीच अपने आंसू बहाते हुए यह बता चुके हैं कि उन्होंने देश के लिए अपना सब कुछ त्याग दिया। परंतु उनका यह त्याग भी जनता के गले से नहीं उतरा। देश में यह सवाल किया जाने लगा कि प्रधानमंत्री ने आखिर किस चीज़ का त्याग किया और त्याग करने के बाद ही क्या उन्हें सत्ता सिंहासन हासिल क्या हुआ? ज़ाहिर है त्याग वह करता है जिसके पास त्याग करने के लिए कुछ हो और उस त्याग के बाद वह वास्तव फकीरी के रूप में नज़र आए।
हालांकि फकीरी और झोला लेकर चला जाऊंगा जैसा वाक्य निश्चित रूप से जनता की हमदर्दी हासिल करने के लिए बोला गया परंतु राजनैतिक विशलेषकों द्वारा इस बयान को इस नज़रिये से देखा जा रहा है कि प्रधानमंत्री ने नोटबंदी के जो कदम उठाए थे वह पूरी तरह असफल हो चुके हैं और आने वाले समय में स्थिति और अधिक $खतरनाक व गंभीर होने की संभावना है। लिहाज़ा प्रधानमंत्री के झोला उठाकर चले जाने के बयान के भीतर छुपे मर्म को समझना ज़रूरी है। गोया यदि देश की अर्थव्यवस्था बेकाबू हुई और सरकार इस पर नियंत्रण पाने में असफल रही तो प्रधानमंत्री स्वेच्छा से जाएं या न जाएं परंतु परिस्थितियां स्वयं ऐसी पैदा हो सकती हैं कि उन्हें सिंहासन छोडऩा भी पड़ सकता है। उच्चतम न्यायालय ने भी नोटबंदी लागू होने के फौरन बाद यह चेतावनी दे दी थी कि नोटबंदी के कारण अव्यवस्था फैलने की स्थिति में देश में दंगे-फ़साद भी फैल सकते हैं।
नोटबंदी के फैसले के बाद कुछ खबरें व आंकड़े ऐेसे आए जिससे यह पता चला कि जिन गरीबों ने प्रधानमंत्री योजना के अंतर्गत् जनधन खाते खुलवाए थे उनमें बड़ी संख्या में ऐसे खाताधारक भी हैं जिन्होंने काला धन रखने वालों की मोटी रकम अपने खातों में कुछ पैसों की लालच में जमा करा दी। स्वयं को फकीर बताने वाले हमारे प्रधानमंत्री ने मुरादाबाद में ही यह भी कहा है कि वे -‘ऐसी व्यवस्था लाने जा रहे हैं जिससे जनधन एकाऊंट में जमा पैसा खाताधारकों का ही हो जाएगा। फिर वह पैसा चाहे जिसका रहा हो’। ज़रा इस कथन के कार्यान्वन पर गौर कीजिए कि हमारे देश का प्रधानमंत्री अपनी गरीब जनता को क्या सीख देना चाह रहा है तथा यदि ऐसा होता है तो उन गरीब खाताधारकों को कितनी परेशानी उठानी पड़ सकती है तथा उनके विश्वास को कितनी ठेस पहुंच सकती है? क्या किसी प्रधानमंत्री पर यह शोभा देता है कि वह हिंसा,अराजकता,अव्यवस्था तथा अविश्वास पैदा करने वाले बयान दे तथा जनता को इसके लिए प्रेरित करे? सच पूछिए तो प्रधानमंत्री की ऐसी ‘फकीरी’ पर बार-बार कुर्बान जाने को दिल चाहता है।
नोट: ये लेखक के उसके निजी विचार हैं, भारत वार्ता से इसका कोई संबंध नहीं। इस लेख के लिए लेखक स्वयं जिम्मेदार होोगा।