हमारे वित्तमंत्री गदगद हैं कि उनकी पहल पर 65,250 करोड़ रु. का काला धन उजागर हो गया है। उनका गदगद होना स्वाभाविक है क्योंकि अब से पहले ऐसी जितनी भी सुविधाएं सरकार ने घोषित की थीं, वे लगभग सभी बहुत कम सफल हुई थीं। वे दो-तीन हजार करोड़ से आगे नहीं पहुंच पाई थीं। पिछले चार माह में इतनी बड़ी राशि का बाहर निकल आना और उस पर लोगों द्वारा 45 प्रतिशत आयकर देना अपने आप में बड़ी बात है।
इस सफलता का एक कारण यह भी हो सकता है कि अपनी धनराशि उजागर करने वालों के नाम सरकार ने मजबूती से दबाकर रखे हैं। उन्हें बदनामी का कोई डर नहीं है। लगभग 30 हजार करोड़ रु. सरकार को इन लोगों से आयकर के रुप में प्राप्त होंगे। इतनी बड़ी राशि का उपयोग सरकार लोक-कल्याण के कामों में कर ही सकती है। आम जनता को राहत मिलेगी।
लेकिन इस सफलता के बावजूद कई बुनियादी सवाल दिमाग में खड़े हो गए हैं। जैसे यह कि क्या देश में काला धन बस इतना ही है? देश के कुछ सेठों ने आज ही मुझसे कहा कि अकेले मुंबई में 65 हजार करोड़ वाले कम से कम 100 नेताओं और सेठों को खोजा जा सकता है। यदि देश के सवा अरब लोगों को संसद के चुनाव के दौरान 15-15 लाख रु. देने की घोषणा की गई थी तो अंदाज लगाइए कि देश में कितने लाख करोड़ काला धन छिपा पड़ा होगा?
तब अभी जो निकला है, क्या वह ऊंट के मुंह में जीरे के समान नहीं है? इसके अलावा आज किसी ने यह तर्क भी मुझे दिया कि 45 प्रतिशत टैक्स सरकार को दें, इसकी बजाय अपने ही किसी ट्रस्ट को हम दान कर दें तो 50 प्रतिशत छूट मिल जाएगी या नहीं? सिर्फ 5 प्रतिशत की बचत के लिए हम सरकार की जेबें क्यों भरें? कुछ लोगों का यह भी कहना था कि यदि छिपा धन निकलवाना है तो लोगों को दिया जाने वाला लालच थोड़ा मोटा होना चाहिए था। याने उनसे सिर्फ 10 या 15 प्रतिशत टैक्स वसूलना चाहिए था। इस एकबारगी छूट के कारण कई लाख करोड़ रु. सरकार के हाथ लग जाते। एक राय यह भी है कि आयकर ही समाप्त क्यों नहीं कर दिया जाए? उसकी जगह उपभोग कर लगाया जाए। उनका कहना है कि असली काले धन का भंडार तो नेताओं के पास होता है। आप उसे निकलवाने का कोई उपाय तो कीजिए।