उत्तरप्रदेश की राजनीति आजकल यादव-परिवार तक सीमित हो गई है। उसके अंदरुनी विवाद ही उप्र की सबसे बड़ी खबरें बन रही हैं। मायावती की रैली को जरा छोड़ दें तो ऐसा लगता है मानो उप्र में कोई दूसरे राजनीतिक दल हैं ही नहीं। विपक्षी दलों के पास मुख्यमंत्री का कोई अपना चेहरा नहीं है। दो बड़े दल, भाजपा और कांग्रेस, ऐसे किसी चेहरे को आगे करना ही नहीं चाहते, जो मुख्यमंत्री की कुर्सी पर बैठने लायक हो। राहुल गांधी बराबर घूम रहे हैं और कांग्रेस की खाट खड़ी कर रहे हैं। शीला दीक्षित और राज बब्बर जैसे मंजे हुए नेता कहां हैं, कुछ पता ही नहीं। भाजपा ने केशवप्रसाद मौर्य को पार्टी की कमान संभलाकर जरा हिम्मत का परिचय दिया था लेकिन उसने मौर्य को भी इस लायक नहीं समझा कि वे मुख्यमंत्री पद के उम्मीदवार बन सकें।
मायावती जरुर एक चुनौती हैं लेकिन उनकी पार्टी के बड़े-बड़े नेता, जिस तरह से अपना पिण्ड छुड़ा-छुड़ाकर भाग रहे हैं, क्या उसका कुछ मतलब नहीं हैं? मायावती की पकड़ अनुसूचितों में अभी भी बनी हुई है लेकिन उनके बाहर के मतदाताओं में उनकी छवि पर जंग लग चुका है। इस बात को पिछले चुनाव में मुलायमसिंह ने बारीकी से समझा था और इसीलिए उन्होंने अखिलेश को मैदान में उतार दिया था। अखिलेश ने सारे नेताओं को ढेर कर दिया। अखिलेश का जलवा अभी बना हुआ है लेकिन पारिवारिक झगड़े की खबरों के कारण उस पर काली छाया मंडराने लगी थी। अब जबकि समाजवादी पार्टी ने अखिलेश को अपना भावी मुख्यमंत्री घोषित कर दिया है, शेष सभी दलों का दम फूलने लगा है।
अखिलेश की छवि बेदाग और बेजोड़ है। अखिलेश की टक्कर में अब नरेंद्र मोदी आ खड़े होंगे। वे चुनावी नौटंकी के महापंडित हैं। उन्हें पाक के विरुद्ध शल्य-क्रिया और गोवा-सम्मेलनों का लाभ भी मिला है। लेकिन डर यही है कि कहीं उप्र भी दिल्ली और बिहार की तरह पेश न आए ! कहीं उप्र की जनता यह सवाल न पूछने लगे कि अखिलेश को हटाकर मोदीजी उसकी कुर्सी पर बैठेंगे क्या? बिहार ने भी यही यक्ष-प्रश्न खड़ा कर दिया था।
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