आम आदमी पार्टी की कम्पनी के भीतर की लडाई अनुमानित समय से भी कम में जगज़ाहिर हो गई है । पार्टी के दो संस्थापक अंशधारक सदस्यों , योगेन्द्र यादव और प्रशान्त भूषण को राष्ट्रीय कार्यकारिणी की बैठक में राजनैतिक मामलों की समिति से बाहर का रास्ता दिखा दिया गया है । केजरीवाल की और उनके समर्थकों की इच्छा तो उनको मुहल्ले से ही बाहर कर देने की थी , लेकिन वे भी आख़िर कम्पनी के घर के भेदी थे , इसलिये मोहल्ले से ही बाहर जाने से तो बच गये , अलबत्ता कमरे से बाहर आँगन तक पहुँचा ही दिये गये । मतदान के लिये ज़िद हुई तो दोनों खेमों के अंशधारकों की संख्या स्पष्ट हो गई । योगेन्द्र यादव के साथ आठ और केजरीवाल के साथ ग्यारह । यादव का खेमा मतदान के लिये बजिद भी इसीलिये था ताकि साफ़ साफ़ पता चल जाये कि इस लड़ाई में कौन अंशधारक किसके साथ है । तीन सदस्य अंशधारकों ने फ़िलहाल मतदान में हिस्सा लेना उचित नहीं समझा । वे शायद ऊँट किस करवट बैठता है , इसकी प्रतीक्षा में रहे होंगे । ऊँट बड़ा जानवर होता है , बैठते बैठते भी करवट बदल सकता है । इसलिये संक्रमणकाल में कम्पनी का कोई भी अतिरिक्त बुद्धिमान अंशधारक मतदान से बचेगा ही । वैसे कम्पनी ने अपने लिये जो लोकपाल नियुक्त कर रखा था , उसने भी केजरीवाल पर आरोप लगाये थे और अब योगेन्द्र यादव और प्रशान्त भूषण की दुर्गति के बाद मयंक गान्धी ने भी अरविन्द केजरीवाल की तानाशाही को लेकर लम्बे पत्र लिखने शुरु कर दिये हैं ।
एक बात और ध्यान में रखनी चाहिये कि आप कम्पनी के भीतर की यह लड़ाई वैचारिक नहीं है । यह शुद्ध कम्पनी नियमों के अनुसार अंशधारकों में सत्ता लाभ बाँटने की लड़ाई है । वैचारिक लड़ाई आप कम्पनी के भीतर हो भी नहीं सकती , क्योंकि इस समूह की कांग्रेस से अलग हट कर कोई विशिष्ट विचारधारा है भी नहीं । इसलिये वैचारिक आधार पर इसे कांग्रेस की प्रतिलिपि कहा जा सकता है । कांग्रेस भी समय समय पर बातचीत में लैफ्ट टू दी सेंटर होने का आभास देती रहती थी । इसी प्रकार के संकेत आप के समूह की आपसी बातचीत में पकड़े जा सकते हैं । सोनिया गान्धी ने भी सफलता पूर्वक कांग्रेस को पारिवारिक पार्टी में परिवर्तित कर लिया था , अब आप में भी अरविन्द केजरीवाल इस प्रकार के प्रयास कर रहे हैं । अलबत्ता इतना जरुर कहा जा सकता है कि उनका परिवार अभी स्वयं उन तक ही सीमित है । लेकिन पार्टी रुपी कम्पनी के भीतर संदेश साफ़ रुप से चला गया है कि कम्पनी में खुदरा अंशधारकों की संख्या चाहे ज़्यादा क्यों न हों लेकिन कम्पनी के मालिकाना हक़ अरविन्द केजरीवाल के पास ही सुरक्षित हैं । जो उसको चुनौती देगा , उसका हश्र योगेन्द्र यादव व प्रशान्त भूषण जैसा ही होगा । लेकिन ऐसा नहीं कि आरोप केवल केजरीवाल विरोधी धड़ा ही लगा रहा हो । केजरीवाल के समर्थक अंशधारकों ने भी आक्रमण किया है । उनका कहना है कि पार्टी पर शान्ति भूषण , उनका बेटा प्रशान्त भूषण और बेटी शालिनी क़ब्ज़ा करना चाहते थे । उसको विफल करने के लिये पार्टी को रणनीति बनानी ही थी । यानि आप के हमाम में धीरे धीरे सब नंगे हो रहे हैं । आप कम्पनी अब तक बाहर के विरोधियों को चित करने के लिये स्टिंग आप्रेशन के हथियार का प्रयोग करती रही है । केजरीवाल सार्वजनिक रुप से कहते रहते हैं कि अपनी जेब में सदा मोबाईल रखो और जिससे बातचीत कर रहे हो , गुप्त रुप से उसको रिकार्ड भी करते रहो ताकि वक़्त वेवक्त काम आये । लेकिन अभी तक किसी को यह नहीं पता था कि कम्पनी का निदेशक मंडल आपस में भी एक दूसरे की बातचीत रिकार्ड करवाने के लिये अपने फ़ोन सदा आन रखता है । योगेन्द्र यादव को घेरने के लिये कम्पनी के निदेशकों ने इस प्रकार का भी एक लघु सिटिंग आप्रेशन कर डाला । कम्पनी के भीतर लड़ाई केवल केजरीवाल की तानाशाही को लेकर ही नहीं है । बहस का मुद्दा यह भी है कि कम्पनी का व्यवसाय क्षेत्र का विस्तार करना चाहिये या नहीं ? दरअसल इस कम्पनी को स्थापना काल में ही जितनी ज़बरदस्त सफलता मिली है उससे निदेशक मंडल के सदस्यों को लगता है कि कम्पनी के व्यवसाय का विस्तार भारत के अन्य प्रान्तों में भी करना चाहिये ताकि ज़्यादा लाभ हो और निदेशक मंडल के सभी सदस्य मालामाल हो सकें । फ़िलहाल कम्पनी के एम डी केजरीवाल दिल्ली में मुख्यमंत्री का पद संभाल कर बैठ गये हैं और घोषणा कर रहे हैं कि अन्य प्रान्तों में कम्पनी के दफ़्तर तो खोल दिये जायेंगे ताकि वहाँ केजरीवाल चालीसा पढ़ा जा सके लेकिन वहाँ व्यवसाय नहीं किया जायेगा । अब कम्पनी के निदेशक मंडल के दूसरे सदस्य जो अन्य प्रान्तों में मुख्यमंत्री बनने के लिये लालायित हैं , वे क्या केवल मात्र झाड़ू लगाने का काम ही करेंगे ? हरियाणा और पंजाब को देख कर निदेशक मंडल के सदस्यों के मुँह में पानी आ रहा है । लेकिन केजरीवाल ने लक्ष्मण रेखा खींच दी है । इसलिये आप में घमासान मचना लाज़िमी था ।
लेकिन दुख तो इस बात का है कि दिल्ली की जनता ने आप को एक राजनैतिक दल समझ कर वोट दिया था , लेकिन थोड़ी सी वारिश होते ही उसका रंग उतर गया और पता चला कि यह तो राजनैतिक दल के भेष में एक कम्पनी थी जिसका निदेशक मंडल शुद्ध रुप से सत्ता में हिस्सेदारी को लेकर अंशधारकों की शैली में लड़ता हुया बीच बाज़ार में आ गया है । जब बिना किसी वैचारिक आधार के कोई समूह अच्छे प्रबन्धन और बढ़िया प्रचार नीति और संवाद कला के सत्ता हथिया लेता है तो उसके बाद उसकी कार्य शैली वही होती है जो आप की दिखाई दे रही है । प्रश्न यह नहीं है कि इस लड़ाई में कौन ठीक है और कौन ग़लत है । सत्ता पर आधारित परस्पर हितों और लाभांशों के टकराव का मामला है , जिसमें सभी एक रंग में ही रंगे हैं । ठगी केवल दिल्ली की जनता गई है । कम्पनी की जिस पालिसी को चुनावों के समय जनहितकारी कह कर प्रचारित किया गया था , अब उसकी नये सिरे से शब्द कोश के आधार पर व्याख्या करके बताया जा रहा है कि साधारण लोग इसके सही अर्थ पकड़ नहीं पाये थे । पार्टी के भीतर जो जूतमजार हो रही है , लगता है वही उसके सही अर्थ थे ।