इस्तीफा तो वापस हो गया लेकिन तीर वापस नहीं हुआ| जिन्ना का तीर संघ के सीने में गहरा घुसा हुआ है और उधर भाजपा अपने सदमे से अभी तक उभरी नहीं है| अवसाद की इस वेला में विहिप ने साधु-संतों को अपनी तोप का गोला बना लिया है| पहले साधु-संत संसारी लोगों के पथ-प्रदर्शक होते थे, अब संसारी लोग साधुओं को पट्टी पढ़ाते हैं| साधु-संत लोग लालकृष्ण आडवाणी से कह रहे हैं कि आप अब संन्यास ले लीजिए| इन साधुओं से कोई पूछे कि आपने संन्यास लेकर कौन-सा तीर मार लिया है? क्या संन्यास इसलिए लिया जाए कि चोर दरवाज़े से राजनीति की जा सके? संन्यास के नाम पर पाखंड और ढांेग फैलाया जाए और खुद को पुजवाया जाए? जो खुद संन्यास की गरिमा गिरा रहे हैं, वे नेताओं से कह रहे हैं कि आप संन्यास ले लीजिए| संन्यास लेकर अगर साधुओं की तरह राजनीति ही करनी है तो हजार साल पहले कहा गया राजा भर्तृहरि का वह वाक्य याद रखिए – ‘वारांगना इव नृपनीति:’, जो सुदर्शनजी ने दोहराया है|
सुदर्शनजी ने कुछ गलत नहीं कहा| राजनीति अनेकरूपा होती है| इसीलिए भर्तृहरि ने उसे वेश्या कहा था लेकिन ऐसा कहनेवाले भर्तृहरि थे| वे स्वयं राजा थे| वे अपनी ‘नृपनीति’ की विसंगतियां उजागर कर रहे थे| वे वेश्या की अम्मा नहीं थे| जनसंघ और भाजपा तो संघ की बेटियां हैं| संघ उनकी अम्मा है| मां अपनी बेटियों के बारे में कुछ भी कहे तो बेचारी बेटियां क्या बोल सकती हैं? वे तो चुप हैं| उन्हें चुप रहना ही सिखाया गया है लेकिन भाजपा की यह चुप्पी न केवल उसके लिए अपितु राष्ट्रीय राजनीति के लिए घातक सिद्घ हो सकती है|
आडवाणी-प्रसंग ने यह सिद्घ कर दिया है कि भाजपा की हालत कांग्रेस से भी बदतर है| कांग्रेस पर आरोप है कि वह सोनिया-परिवार की कठपुतली है| कांग्रेस में रहकर वही राजनीति कर सकता है, जो खुद को सोनिया-परिवार का चाकर बना ले| कांग्रेस प्राइवेट लिमिटेड कम्पनी हैं| उसमें नौकरी हो सकती है, नेतागिरी नहीं याने कांग्रेस लोकतांत्र्िाक पार्टी नहीं है| यहां हम यह भूल जाते हैं कि सोनिया-परिवार मैदान में कूदकर खांडा खड़काता है, अपनी जान को खतरे में डालता है और राजनीतिक लाभ-हानि को सीधे भुगतता है| जबकि संघ सदा पर्दे में रहता है| पर्दे के पीछे से मूठ चलाता है, कभी मोहन, कभी मारण और कभी उच्चाटन की ! आजकल उच्चाटन की मूठ चली हुई है| यही फर्क है, संघ परिवार और सोनिया परिवार में| जिन दो बड़े नेताओं के पुण्य-प्रताप ने संघ को सभ्य समाज में बैठने लायक बनाया, उनको पहले ‘खूसट’ का खिताब दिया गया और अब उनमें से एक को जिन्ना की सूली पर लटकाया जा रहा है| जिन्ना के बहाने क्या संघ और भाजपा नेताओं में शक्ति-संघर्ष शुरू नहीं गया है? लाखों आस्थावान अनुयायी ठगे-से बगलें झांक रहे हैं| क्या यह अद्रभुत घटना नहीं कि ये दोनों नेता एक तरफ हैं और संघ और विहिप की अक्षौहिणी सेना दूसरी तरफ खड़ी है? भाजपा की क्या मजबूरी थी कि उसने आडवाणी से इस्तीफा वापस लेने का आग्रह किया? उसे पता है कि संघ और विहिप अपने दम पर राजनीति नहीं कर सकते? यदि वे अलग दल बना लेंगे तो उनकी दशा वही होगी, जो हिंदू महासभा की हुई है| भारतीय जनता पार्टी को अभी कुल मतदान के 20 प्रतिशत वोट मिल जाते हैं, फिर ‘हिंदू जनता पार्टी’ (हिंजपा) को 5 प्रतिशत भी नहीं मिलेंगे| ‘हिदू पार्टी’ के साथ गठबंधन कौन करेगा? फारूक अब्दुल्ला, जॉर्ज फर्नांडीस, चंद्रबाबू नायडू, नीतिश, शरद क्या उल्टे पांव नहीं भागेंगे? अकेले संघ और विहिप चुनाव नहीं जितवा सकते| हां, चुनाव जितवाने में सहायक हो सकते हैं, बशर्ते कि वे पर्दे में ही रहें| सिर्फ स्वयंसेवकों के दम भर भाजपा हजार साल में भी सरकार नहीं बना सकती|
यह सत्य संघ के स्वयंसेवक भली-भांति समझते हैं| इसीलिए कढ़ी में उबाल तो आया लेकिन वह कढ़ाई से बाहर नहीं निकली| ऐसा उबाल पहले कभी नहीं आया| एक बार जनसंघ के अध्यक्ष श्यामाप्रसाद मुखर्जी और सर संघचालक मा.स. गोलवळकर के बीच हल्की-सी तकरार हुई थी लेकिन उस समय दोनों संस्थाएं इतनी प्रभावशाली नहीं थीं कि सारे राष्ट्र का ध्यान उन पर जाए और दूसरा, मुखर्जी का शीघ्र ही देहांत भी हो गया था लेकिन जिन्ना को लेकर जो टकराहट इस समय भाजपा-नेतृत्व और संघ के बीच है, अगर वह इसी तरह खदबदाती रही तो कढ़ाई की सारी कढ़ी कढ़ाई में ही सूख जाएगी| यह देश का दुर्भाग्य होगा| देश का दूसरा बड़ा दल, यदि हिंदू महासभा और रामराज्य परिषद्र की तरह अन्तर्ध्यान हो गया तो मानना पड़ेगा कि भारतीय लोकतंत्र के रथ का दूसरा पहिया चकनाचूर हो गया| वास्तविकता यह है कि आज देश में एक भी अखिल भारतीय पार्टी नहीं है और अखिल भारतीय बनने की संभावना केवल कांग्रेस या भाजपा में है| यदि यह संभावना निरस्त हो गई तो सोवियत संघ की तरह भारत क टूटने की संभावना भी बलवती हो जाएगी|
जिन्ना की वजह से भारत पहले ही टूट चुका है| अब जिन्ना के नाम पर आप क्या उसे दुबारा तोड़ेंगे? जिन्ना की बात को विचारधारा का मुद्दा बनाना परले दर्जे की मूर्खता है| आडवाणीजी ने बड़ी हिम्मत का काम किया है| उन्होंने जिन्ना के जम्बूर से ही जिन्ना की कीलें उखाड़ दीं और वह भी पाकिस्तान की सर-ज़मीन पर ! उनका तो संघ और विहिप द्वारा अभिनंदन किया जाना चाहिए था कि उन्होंने पाकिस्तान को इस्लामी कट्टरवाद के कठघरे से निकालकर ‘सर्वधर्म सद्रभाव’ के हिंदू मार्ग पर चलाने की कोशिश की| आडवाणीजी आत्म-विश्वास से लबालब भरे भारत लौटे लेकिन यहां ‘अक़ल के ठेकेदारों’ ने अपनी विलक्षण बौद्घिकता का परिचय दिया| उन्होंने आडवाणी की बातों का उल्टा अर्थ निकाला और वे उन्हें शीर्षासन के लिए मजबूर करने लगे| नाराज़ होने और इस्तीफा देने की बजाय अगर आडवाणीजी अपना विस्तृत विवरण देश के सामने पेश कर देते तो भाजपा ही नहीं, देश का भी भला होता| अब पाकिस्तानियों के मन में यह शक दुबारा हो गया है कि भारत शायद उसे क़ायम नहीं रहने देना चाहता| लगता है कि अहंकारों की टकराहट हो गई | भाजपा-नेतृत्व और संघ-नेतृत्व के अहंकारों की यह टकराहट भाजपा को तो तोड़ ही डालेगी, वह भारत और संपूर्ण दक्षिण एशिया को तोड़नेवाली ताकतों को भी मजबूत करेगीं| यह वही टकराहट है, जो 1920 के नागपुर अधिवेशन में गांधी और जिन्ना के बीच हुई थी| संघ-परिवार अटल और आडवाणी को अगर ‘जिन्ना’ मानेगा तो यह जिन्ना तो अपना ‘पाकिस्तान’ किसी तरह खड़ा कर लेगा लेकिन संघ परिवार क्या करेगा?
संघ-परिवार के सदस्यों का त्यागमय जीवन अप्रतिम है लेकिन त्याग को तराजू पर चढ़ाना कहां तक उचित है? पिछले सभी सरसंघचालकों – हेडगेवार, गोलवलकर, देवरस, रज्जू भय्या – आदि ने हमेशा अपनी शक्ति के साथ अपनी मर्यादा का भी ध्यान रखा| यही मर्यादा अटलजी और आडवाणीजी को अभी तक रोके हुए है| वे संघ के सर्वोच्च अधिकारियों से भी वरिष्ठ हैं| लेकिन इनके बाद भाजपा के जो भी नेता होंगे, क्या वे अपनी टांगखिंचाई बर्दाश्त करेंगे? क्या वे एक म्यान में दो तलवारें रहने देंगे? संघ जिसे मुखौटा समझकर लाएगा, वह किसी दिन उसके चेहरे पर इतनी जोर से चिपक जाएगा कि संघ का दम घुट जाएगा| यह उचित समय है जबकि संघ और भाजपा तय करे कि लक्ष्मण-रेखा का उल्लंघन किसने किया है| भाजपा नेतृत्व ने या संघ नेतृत्व ने? फिलहाल, अटल और आडवाणी ने कोई ‘वैचारिक व्यतिक्रम’ नहीं किया है लेकिन जो नए नेता आएंगे, यदि उन्हें वैचारिक विकास नहीं करने दिया जाएगा, सत्ता की समस्याओं का हल स्वयं नहीं निकालने दिया जाएगा और अपनी शब्दावली स्वयं गढ़ने का मौका नहीं दिया जाएगा तो जनता की नज़र में वे रंगीन कठपुतलियों से ज्यादा कुछ न होंगे| उनकी साख क्या होगी और उन्हें अपना नेता कोई क्यों मानेगा? क्या यह संघ की राजनीति का अवसान नहीं होगा?