कश्मीर के इतिहास में 1953 के बाद पहला मौका आया, जब 25 अगस्त 2008 को कश्मीर में कोई अखबार नहीं निकला । घाटी में सेना की मौजूदगी का एहसास पहली बार पिछले दो दशक के दौरान मीडिया को भी हुआ । 1988 में बिगडे हालात कई बार बद-से-बदतर हुये लेकिन खबरो को रोकने का प्रयास सेना ने कभी नहीं किया। अब सवाल उठ रहे है कि क्या वाकई घाटी के हालात पहली बार इतने खस्ता हुए हैं कि आजादी का मतलब भारत से कश्मीर को अलग देखना या करना हो सकता है। जबकि आजादी का नारा घाटी में 1988 से लगातार लग रहा है । लेकिन कभी खतरा इतना नहीं गहराया कि मीडिया की मौजूदगी भी आजादी के नारे को बुलंदी दे दे । या फिर पहली बार घाटी पर नकेल कसने की स्थिति में दिल्ली है, जहां वह सेना के जरिए घाटी को आजादी का नारा लगाने का पाठ पढ़ा सकती है।
दरअसल, हालात को समझने के लिये अतीत के पन्नो को उलटना जरुरी होगा । क्योकि दो दशक के दौरान झेलम का पानी जितना बहा है, उससे ज्यादा मवाद झेलम के बहते पानी को रोकता भी रहा है । इस दौर के कुछ प्यादे मंत्री की चाल चलने लगे तो कुछ घोड़े की ढाई चाल चल कर शह-मात का खेल खेलने में माहिर हो गये । घाटी के लेकर पहली चाल 1987 के विधान सभा चुनाव के दौरान दिल्ली ने चली थी । बडगाम जिले की अमिरा-कडाल विधानसभा सीट पर मोहम्मद युसुफ शाह की जीत पक्की थी । लेकिन नेशनल कान्फ्रेंस के फारुख अब्दुल्ला के लिये सत्ता का रास्ता साफ करने का समझौता दिल्ली में हुआ । कांग्रेस की सहमति बनी और बडगाम में पीर के नाम से पहचाने जाने वाले युसुफ शाह चुनाव हार गये । न सिर्फ चुनाव हारे बल्कि विरोध करने पर उन्हे गिरफ्तार कर लिया गया । युसुफ शाह के चार पोलिंग एंजेट हामिद शेख, अशफाक मजिद,जावेद अहमद मीर और यासिन मलिक भी गिरफ्तार कर लिये गए । चारो पोलिग एजेंट 1987 में प्यादे की हैसियत रखते थे । लेकिन इस चुनाव परिणाम ने फारुख अब्दुल्ला के जरिए घाटी को दिल्ली के रास्ते चलने का जो मार्ग दिखाया, उसमें संसदीय लोकतंत्र के हाशिये पर जाना भी मौजूद था । जिससे कश्मीर में 1953 के बाद पहली बार आजादी का नारा गूंजा । कोट बिलावल की जेल से छूट कर मोहम्मद युसुफ शाह जब बडगाम में अपने गांव सोमवग पहुंचे तो हाथ में बंदूक लिये थे । और चुनाव में हार के बाद जो पहला भाषण दिया उसमें आजादी के नारे की खुली गूंज थी । युसुफ शाह ने कहा,
” हम शांतिपूर्ण तरीके से विधानसभा में जाना चाहते थे । लेकिन सरकार ने हमें इसकी इजाजत नहीं दी । चुनाव चुरा लिया गया । हमे गिरफ्तार किया गया , और हमारी आवाज दबाने के लिये हमें प्रताड़ित किया गया । हमारे पास दूसरा कोई विकल्प नही है कि हम हथियार उठाये और कश्मीर के मुद्दे उभारे ।”
उसके बाद युसुफ शाह ने नारा लगाया, ” हमें क्या चाहिये–आजादी । गांव वालों ने दोहराया -आजादी ” बड़गाम के सरकारी हाई सेकेन्डरी स्कूल से पढाई करने के बाद डॉक्टर बनने की ख्वाईश पाले युसुफ शाह को मेडिकल कालेज में तो एडमिशन नहीं मिला लेकिन राजनीति शास्त्र पढ़ कर राजनीति करने निकले युसुफ शाह के नाम की यहां मौत हुई और आजादी की फितरत में 5 नवंबर 1990 को युसुफ शाह की जगह सैयद सलाउद्दीन का जन्म हुआ । जो सीमा पार कर मुज्जफराबाद पहुंचा और हिजबुल मुजाहिद्दीन बनाकर आंतकवादी हिंसा को अंजाम देते देते पाकिस्तान के तेरह आंतकवादी संगठन के जेहाद काउंसिल का मुखिया बन गया।
दो दशक बाद जब आजादी के नारे घाटी में गूंजते हुये दिल्ली को ललकार रहे हैं, तो सैयद सलाउद्दीन ने भी जेहादियो से कश्मीर में हिंसा के बदले सिर्फ आजादी के नारे लगाने का निर्देश दिया है ।
लेकिन आजादी के नारे को सबसे ज्यादा मुखरता 1989 में मिली । यहां भी दिल्ली की चाल कश्मीर के लिये ना सिर्फ उल्टी पडी बल्कि आजादी को बुलंदी देने में राजनीतिक चौसर के पांसे ही सहायक हो गये । इतना ही नहीं राजनीति 180 डिग्री में कैसे घुमती है, यह दो दशक में खुलकर नजर भी आ गया । 8 दिसंबर 1989 को देश के तत्कालिन गृहमंत्री मुफ्ती मोहम्मद सईद की बेटी रुबिया सईद का अपहरण हुआ । रुबिया का अपहरण करने वालो उसी युसुफ शाह के पोलिंग एंजेट थे, जिनकी पहचान घाटी में प्यादे सरीखे ही थी । मेडिकल की छात्रा रुबिया का अपहरण सड़क चलते हुआ । यानी उस वक्त तक किसी कश्मीरी ने नहीं सोचा था कि कि किसी लड़की का अपहरण घाटी में कोई कर भी सकता है । अगर उस वक्त के एनएसजी यानी नेशनल सिक्युरटी गार्ड के डायरेक्टर जनरल वेद मारवाह की माने तो रुबिया के अपहरण के खिलाफ घाटी की मानसिकता थी । आम कश्मीरी इस बात को पचा नहीं पा रहा था कि रुबिया का अपहरण राजनीतिक सौदेबाजी की लिये करना चाहिये । लेकिन दिल्ली की राजनीतिक चौसर का मिजाज कुछ था । दिल्ली के अकबर रोड स्थित गृहमंत्री के घर पर पहली बैठक में उस समय के वाणिज्य मंत्री अरुण नेहरु , कैबिनेट सचिव टी एन शेषन, इंटिलिजेन्स ब्यूरो के डायरेक्टर एम के नारायणन और एनएसजी के डायरेक्टर जनरल वेद मारवाह मौजूद थे । जिसके बाद बीएमएफ के विशेष विमान से वेद मारवाह को श्रीनगर भेजा गया । 13 जिसंबर को केन्द्र के दो मंत्री इंन्द्र कुमार गुजराल और आरिफ मोहम्मद खान भी श्रीनगर पहुचे । अपहरण करने वालो की मांग पांच आंतकवादियो की रिहायी की थी । जिसमें हामिद शेख,मोहम्मद अल्ताफ बट,शेर खान, जावेद अहमद जरगर और मोहम्मद कलवल थे । अगर एनएसजी के डायरेक्टर जनरल वेद मारवाह की मानें तो अपहरण से रिहायी तक के हफ्ते भर के दौर में कभी दिल्ली की राजनीति को नहीं लगा कि मामला लंबा खिचने पर भी अपहरणकरने वालो के खिलाफ धाटी में वातावरण बन सकता है । खुफिया तौर पर कभी उसके संकेत नहीं दिये गये कि रुबिया का कहां रखा गया होगा, इसकी जानकारी जुटायी जा रही है या फिर कौन कौन से लोग अपहरण के पीछे है, कभी खुफिया व्यूरो को क्लू नहीं मिला।
महत्वपूर्ण है कि उस वक्त के आई बी के मुखिया ही अभी देश के सुरक्षा सलाहकार है । और उस वक्त समूची राजनीति इस सौदे को पटाने में धोखा ना खाने पर ही मशक्कत कर रही थी । चूंकि अपहरण करने वालो ने सौदेबाजी के कई माध्यम खोल दिये थे इसलिये मुफ्ती सईद से लेकर एम के नारायणन तक उसी माथापच्ची में जुटे थे कि अपहरणकर्ताओ और सरकार के बीच बात करने वाला कौन सा शख्स सही है । पत्रकार जफर मिराज या जाक्टर ए ए गुरु या फिर मस्लिम युनाइटेड फ्रंट के मौलवी अब्बास अंसारी या अब्दुल गनी लोन की बेटी शबनम लोन । और दिल्ली की राजनीति ने जब पुख्ता भरोसा हो गया कि बाचचीत पटरी पर है तो पांचों आंतकवादियो को छोड दिया गया । और रुबिया की रिहायी होते ही सभी अधिकारी– मंत्री एक दूसरे को बधाई देने लगे । लेकिन रिहायी की शाम लाल चौक पर कश्मीरियो का हुजुम जिस तरह उमडा उसने दिल्ली के होश फाख्ता कर दिये क्योकि जमा लोग आंतकवादियो की रिहायी पर जश्न मना रहे थे और आजादी का नारा लगा रहे थे ।
वेद मारवाह ने अपनी किताब “अनसिविल वार” में उस माहौल का जिक्र किया है जो उन्होने कश्मीर में रुबिया और आंतकवादियो की रिहायी की रात देखा । “शाम सात बजे रिहायी हुई । मंत्री विशेष विमान से दिल्ली लौट आये । कश्मीर की सड़को लोगो का ऐसा सैलाब था कि लगा समूचा कश्मीर उतर आया । जश्न पूरे शबाब पर था । सडको पर पटाखे छोडे जा रहे थे । युवा लडकों के झुंड गाडियों को रोक कर अपने जश्न का खुला इजहार कर रहे थे । मंत्रियो को छोचने जा रही सरकारी गांडियो को भी रोका गया । सरकारी गेस्ट हाउस में जश्न मनाया जा रहा था । वर्दी में जम्मू-कश्मीर पुलिस के कई पुलिसकर्मी भी जश्न में शामिल थे । आंतकवादियो के शहर को अपने कब्जे में ले रखा था, इससे छटांक भर भी इंकार नहीं किया जा सकता । क्योंकि सभी यह महसूस कर रहे थे कि उन्होने दिल्ली को अपने घुटनों पर झुका दिया । और इन सब के बीच आजादी के नारे देर रात तक लगते रहे । ”
दरअसल, दिल्ली की राजनीति यही नही थमी । सबसे पहले खुफिया ब्युरो को अपहरण कांड में असफल साबित हुई थी उसके ज्वाइंट डायरेक्टर जो एन सक्सेना को जम्मू कश्मीर पुलिस का डायरेक्टर जनरल बना दिया गया । राज्य के पुलिसकर्मियों को कुछ समझ नही आया। उनमे आक्रोष था लेकिन दिल्ली की राजनीति उफान पर थी । कानून व्यवस्था हाथ से निकली । 20 दिसबंर 1989 को रेजिडेन्सी रोड जैसी सुरक्षित जगह पर यूनियन बैक आफ इंडिया लूट लिया गया । 21 दिसंबर को इलाहबाद बैक के सुरक्षाकर्मी की हत्या कर दी गयी । 20 से 25 दिसबंर के बीच श्रीनगर समेत छह जगहो पर पुलिस को आंतकवादियों ने निशाना बनाया । दर्जनों मारे गये। इससे ज्यादा घायल हुये । जनवरी के पहले हफ्ते में कृष्म गोपाल समेत आई बी के दो अधिकारियो की भी हत्या कर दी गयी । इस पूरे दौर पर दिल्ली गृह मंत्रालय की रिपोर्ट मानती है कि डीजीपी समेत कोई वरिश्ठ अधिकारी श्रीनगर में हालात पर काबू पाने के लिये नहीं था। सभी जम्मू में थे । राजनीति यहां भी नही थमी । फारुख अब्दुल्ला ने जिन अधिकारियो की मांग की, उसे दिल्ली ने भेजना सही नहीं समझा । यहा तक की जनवरी में दिल्ली ने मान लिया की फारुख कुछ नही कर सकते । राज्यपाल जगमोहन को बनाया गया । और 18 जनवरी1990 को फारुख ने इस्तीफा दे दिया । घाटी में फिर आजादी के नारे लगने लगे । लेकिन इसके बाद जगमोहन और श्रीनगर जब आमने सामने आये तो आजादी का नारा इतना हिंसक हो चुका था कि समूची घाटी इसकी चपेट में आ गयी । कश्मीर में दंगो के बीच कत्लेआम और कश्मीरी पंडितो के सबकुछ छोड कर भागने की स्थिति को दिल्ली ने भी देखा । लेकिन कश्मीर की हिंसा को और आजादी के नारे की गूंज दिल्ली के राजनीतिक गलियारे में खो गयी ।
1991-1996 तक कांग्रेस के पीवी नरसिंह राव की सरकार में कश्मीर में आजादी का नारा बुलंद होता गया । सेना की गोलिया चलती रही मरते कश्मीरियों की तादाद पचास हजार तक पार कर गयी । दुनिया के किसी प्रांत से ज्यादा सेना की मौजूदगी के बावजूद सीमापार का आंतक आजादी के नारे में उभान भरता गया । लेकिन ना आजादी के नारे पर नकेल कसने की पहल दिल्ली ने की ना ही इस दौर में जम्मू में पंडितो के बहते आंसू रोकने की ।
पहले अधिकारियो का उलट-फेर । फिर राज्यपाल का खेल । और अब चुनावी गणित साधने की कोशिश के बीच आजादी का नारा अगर एकबार फिर उफान पर है और दिल्ली की राजनीति पहली बार आजादी की गभीरता को समझ रही है तो मीडिया पर नकेल कसने के बजाय उसे अपनी नीयत साफ करनी होगी । कश्मीर देश का अभिन्न अंग है और अन्य राज्यों की तरह ही इसे भी सुविधा-असुविधा भोगनी होगी, यह कहने से दिल्ली अब भी घबरा रही है । कहीं इस घबराहट में नेहरु गलत थे और श्यामाप्रसाद मुखर्जी सही थे का विवाद जन्म देकर आजादी का नारा कहीं ज्यादा हिसंक बनाने की नयी राजनीतिक तैयारी तो नहीं की जा रही है? सवाल है कश्मीर को लेकर हमेशा इतिहास के आसरे समाधान खोजने की खोशिश हो रही है जबकि घाटी में नयी पीढी जो आजादी का नारा लगा रही है, वह शेख अब्दुल्ला को नही उमर अब्दुल्ला को पहचानती है । नेहरु की जगह उनके सामने राहुल गांधी है । लेकिन इसी दौर में समाज बांटने की राजनीति का खेल जो समूचे देश में खेला जा रहा है वह भी जम्मू-कश्मीर देख रहा है । इसलिये पहली बार आजादी का सवाल सुधार से आगे निकल कर विकल्प का सवाल खडा कर रहा जिससे दिल्ली का घबराना वाजिब है ।