हाल ही में सुप्रीम कोर्ट ने सड़क दुर्घटना में जख्मी लोगों को मदद करने और अस्पताल पहुंचाने वाले लोगों को अब पुलिस या अन्य कोई भी अधिकारी द्वारा जांच के नाम पर परेशान नहीं करने संबंधी केंद्र सरकार के जारी दिशानिर्देशों पर मुहर लगाते हुए एक फरमाना जारी किया है। यह सरकार और सुप्रीम कोर्ट स्वागतयोग्य पहल है। सड़क दुर्घटनाओं में ज्यादातर मौत समय पर चिकित्सा नहीं मिलने के कारण होती है। अधिकतर मामलों में देखा गया है कि हादसों के शिकार खून से लथपथ मदद के लिए तड़पते रहते हैं, देखने वालों की भीड़ जमा हो जाती है, लेकिन कोई आगे आकर झटपट उठा कर अस्पताल जाने की हिम्मत कोई नहीं दिखता है। सबको पुलिस के पचड़े में पड़ने का डर सताता है। ऐसे नजारे देश के हर शहर में देखने को मिल जाएंगे। करीब बीस बरस पहले की बात है। देश की राजधानी दिल्ली में सड़क हादसे के मददगारों में पुलिस का ऐसा खौफ था कि लोग दुर्घटना पीड़ित को भीड़ में घेर कर उसकी बेबशी देखते हुए पुलिस के आने का इंतजार करते रहते थे।
एक के बाद एक मौतों के बाद दिल्ली पुलिस ने समाचार पत्रों में इस्तहारे देकर यह अपील की कि आप सड़क हादसे में पीड़ित को पास के अस्पताल पहुंचाए, पुलिस मददगार को परेशान नहीं करेगी। अपील के बाद भी लोगों के मन में खौफ कायम रहा। अब जब सुप्रीम कोर्ट ने पुलिस द्वारा मददगार का परेशान नहीं करने का स्पष्ट फरमान दे दिया तो मन को सकुन मिलता है। सुप्रीम कोर्ट का यह दिशा निर्देश तब सफल होंगे जब व्यवहारिक रूप से पुलिस लोगों को परेशान नहीं करेगी। हालांकि कोर्ट ने कहा है कि पुलिस मुसीबत के समय दूसरों की मदद करने वाले नेक लोगों को कोई अधिकारी प्रताड़ित न कर सके इसका प्रचार कराए, जिससे सड़क दुर्घटनाओं के पीड़ितों की जिंदगी बचाने वाले लोगों को पुलिस या अन्य अधिकारियों द्वारा प्रताड़ित किए जाने के डर को दूर किया जाना चाहिए। सुप्रीम कोर्ट द्वारा पूर्व न्यायाधीश के एस. राधाकृष्णन की अध्यक्षता वाली तीन सदस्यीय समिति की सिफारिशों के आधार पर केंद्र सरकार ने पिछले साल सितंबर में ही इस दिशा में दिशानिर्देश जारी कर एक अधिसूचना जारी की थी। समिति की सिफारिश में कहा गया था कि सड़क दुर्घटनाओं के पीड़ितों की जिंदगी बचाने वाले लोगों को पुलिस या अन्य अधिकारियों द्वारा प्रताड़ित किए जाने से डरने की जरूरत नहीं है।
सड़क हादसे में पीड़ित को यदि मददगार पुलिस के डर को दरकिनार कर अस्पताल पहुंचा दे तो उसकी वहां एक दूसरे तरह की कठिनाई शुरू हो जाती है। अस्पताल के कर्मचारी त्वरित इलाज शुरू करने से पहले कागजी फॉरमालटिज पूरी कराने और पुलिस को बुलाने में पर जोर देते हैं। यदि अस्पताल निजी हो तो परेशानी बढ़ जाती है। निजी अस्पताल वालों को इस बात का डर रहता है कि यदि उन्होंने अनजान का इलाज शुरू किया तो उसका खर्च कौन भरेगा। फिर पुलिस की औपचारिकता का अलग झमेला। यह अच्छी बात है कि सरकार ने इस ओर भी ध्यान दिया है।
केंद्रीय स्वास्थ्य एवं परिवार कल्याण मंत्रालय की ओर से भी सभी पंजीकृत सार्वजनिक एवं निजी अस्पतालों को दिशा-निर्देश जारी किए गए हैं कि वे सहायता करने वाले व्यक्ति से अस्पताल में घायल व्यक्ति के पंजीकरण और दाखिले के लिए किसी प्रकार के शुल्क की मांग नहीं की जाएगी। अधिसूचना में यह भी प्रावधान है कि घायल की सहायता करने वाला व्यक्ति उसके पारिवारिक सदस्य अथवा रिश्तेदार है तो भी घायल व्यक्ति को तुरंत इलाज शुरू किया जाएगा, भले ही उनसे बाद में शुल्क जमा कराया जाए। लेकिन सवाल यह है कि सरकार और कोर्ट की यह पहल अस्पताल प्रशासन और पुलिस कितनी शिद्दत से अमल करेंगे। जिस तरह सरकार अपनी महत्वकांक्षी योजनाओं पर करोड़ों रुपए खर्च कर प्रचार प्रसार कर जनता तक पहुंचाती है, वैसे ही नई और सराहनीय पहल को भी मजबूत प्रचार प्रसार से जन जन तक पहुंचा कर जनता को जागरुक करना चाहिए, जिससे सड़क हादसे के शिकार त्वरित मेडिकल सुविधा नहीं मिलने के कारण अब और मौत के मुंह में समाने से बच सकें।