राष्ट्रीय राजमार्ग हों या अंतरराज्यीय मार्ग अथवा शहरों,क़स्बों व गांव की सड़कें या गलियां,कहने को तो इनका निर्माण जनता की ज़रूरतों व जन सुविधाओं के मद्देनज़र किया जाता है। परन्तु समय पूर्व इनका क्षतिग्रस्त या ध्वस्त हो जाना तो कभी कभी यही एहसास दिलाता है कि इन सड़कों का निर्माण आम लोगों की सुविधाओं के लिये नहीं बल्कि सत्ता संरक्षण में पलने वाले भ्रष्ट ठेकेदारों व इनकी कंपनियों पर जनता के पैसे लुटाने व इन्हें मालामाल करने ग़रज़ से ही किया जाता है। केवल सड़कें व गलियां ही नहीं बल्कि जगह जगह हो रहे पार्कों के सौन्दर्यीयकरण,उनमें लगने वाले व्यायाम संबंधी उपकरण,शहरों में नवनिर्मित प्रवेश द्वार,नये चौराहे,रेलवे प्लेटफ़ॉर्म्स व क्वार्टर्स, आदि सभी जगह भ्रष्टाचार सिर चढ़कर बोलता दिखाई देता है। परन्तु सरकार है कि ‘भ्रष्टाचार पर ज़ीरो टॉलरेंस ‘ की अपनी रट लगाये रहती है। हर विपक्षी दल, सत्तारूढ़ दल पर भ्रष्टाचार व भ्रष्टाचारियों को बढ़ावा देने का आरोप लगाकर उसे ख़ूब बदनाम कर सत्ता हासिल करता है और कुछ इसी तरह का दावा करता है जैसे कि ‘बहुत हुआ भ्रष्टाचार-अब की बार मोदी सरकार ‘। तो क्या मोदी सरकार आने के बाद देश में भ्रष्टाचार ख़त्म हो गया है,या कम हो गया है ? क्या भ्रष्टाचारियों और दोनों हाथों से जनता का पैसा लूटने वालों के दिलों में ‘भ्रष्टाचार पर ज़ीरो टॉलरेंस ‘ रखने का दावा करने वाली मोदी सरकार अथवा देश के कई राज्यों में चल रही भाजपा सरकार के प्रति कुछ डर-ख़ौफ़ पैदा हुआ है? आइये कुछ उदाहरणों से यही समझने की कोशिश करते हैं।
सबसे बड़ी और ताज़ा मिसाल तो बुंदेलखंड एक्सप्रेस-वे की ही है। ज़बरदस्त प्रचार-प्रसार और धूम धड़ाके गाजे बाजे के साथ गत 16 जुलाई को प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी और मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ के करकमलों से इस एक्सप्रेस-वे का उद्घाटन जालौन (उत्तर प्रदेश ) के कैथेरी में किया गया था। बुंदेलखंड एक्सप्रेस-वे को बुंदेलखंड के विकास के लिये मील का पत्थर बताया गया है। चित्रकूट के भरतकूप से प्रारंभ होकर इटावा के कुदरेल में मिलने वाले 296 किलोमीटर लंबे एक्सप्रेसवे के निर्माण में 15 हज़ार करोड़ रुपये की लागत आई है। प्रधानमंत्री मोदी द्वारा इसके उद्घाटन के मात्र 5 दिन बाद ही यह बहुमूल्य एक्स्प्रेसवे एक दो नहीं बल्कि अनेक जगहों से धंस गया। कई जगह तो सड़क धंसने की वजह से दुर्घटनाएं भी हुईं। ज़रा सोचिये कि जिस एक्सप्रेसवे का उद्घाटन स्वयं प्रधानमंत्री व मुख्यमंत्री ने किया हो और वह अपनी गुणवत्ता एक सप्ताह भी प्रमाणित न कर सके ,पहली ही बरसात के चार दिन भी न झेल सके। उस मार्ग के लंबे समय तक टिकाऊ बने रहने की क्या उम्मीद की जा सकती है ? इस घटना से एक बात यह भी साबित होती है कि जिस कंपनी को इसके निर्माण का ठेका मिला उसके स्वामी के हाथ कितने लंबे हैं की उसे ‘भ्रष्टाचार पर ज़ीरो टॉलरेंस ‘ की बात करने वाले प्रधानमंत्री व मुख्यमंत्री का भी कोई भय नहीं ?
इसी तरह लगभग तीन वर्ष पहले चंडीगढ़ दिल्ली राष्ट्रीय राजमार्ग पर सद्दोपुर से अंबाला को बाईपास करता हुआ एक नया राजमार्ग बनाया गया है जो हरियाणा से राजस्थान की तरफ़ जाता है। यह मार्ग भी शुरू होने के मात्र एक महीने के भीतर ही जगह जगह से धंसने लगा था। अभी तक सद्दोपुर-पेहोवा के बीच इस मार्ग पर जगह जगह मरम्मत के काम चल रहे हैं। कई बार और कई जगह से इसे एक तरफ़ से बंद कर वन वे कर दिया जाता है जिससे यातायात बुरी तरह प्रभावित व बाधित हो रहा है। इस भ्रष्टाचार व लापरवाही की वजह से कई दुर्घटनायें भी हो चुकी हैं। परन्तु असंगठित जनता भ्रष्ट लुटेरे ठेकेदारों व सत्ता में बैठे इनके संरक्षकों के संयुक्त व संगठित नेटवर्क का भला कैसे मुक़ाबला कर सकती है।
देश उस घटना को भी नहीं भूल सकता जबकि 27 नवंबर 2003 को भारतीय राष्ट्रीय राजमार्ग प्राधिकरण (एनएचएआई) में इंजीनियर रहे सत्येंद्र दूबे की गया रेलवे स्टेशन के पास गोली मार कर हत्या कर दी गई थी। दुबे तत्कालीन प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी की महत्वाकांक्षी स्वर्णिम चतुर्भज परियोजना से संबद्ध एक ईमानदार अभियंता थे। दुबे ने परियोजना के क्रियान्वयन में चल रही कुछ अनियमिताओं के सिलसिले में प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी को पत्र लिखा था। इस पत्र की जानकारी भ्रष्टाचारियों को लग गयी। उस समय इस बात को लेकर काफ़ी विवाद और हंगामा भी हुआ कि पीएमओ को लिखे दूबे के पत्र की जानकारी दूसरे लोगों को कैसे लगी। यहाँ तक कि दुबे की मौत के बाद जब आईआईटी के उनके सहपाठियों ने एकजुट होकर अपनी आवाज़ बुलंद की कि दुबे मरे नहीं बल्कि भ्रष्टाचार के ख़िलाफ़ लड़ते हुए शहीद हुए हैं। देश ही नहीं, विदेशों में भी दुबे की मौत को लेकर प्रदर्शन हुए उसके बाद उनकी हत्या की जांच सीबीआई को सौंप दी गई।
इसी तरह बिहार के ही सीतामढ़ी ज़िले के एक और कार्यकारी अभियंता योगेंद्र पांडेय की हत्या भ्रष्टाचारियों के संयुक्त नेटवर्क द्वारा कर दी गयी थी। पांडेय पथ निर्माण विभाग के कार्यकारी अभियंता थे और वह सीतामढ़ी में कार्यरत थे। उनका विभाग उन्हें ईमानदारी से काम करने के लिए जानता था। वे ठेकेदारों व अधिकारियों की सांठ-गांठ और निर्माण कार्य में कोताही बरतने वाले ठेकेदारों के ख़िलाफ़ रहा करते थे। उन पर पूर्व में हमला भी कराया जा चुका था और उन्होंने अपनी सुरक्षा की मांग भी की थी। परन्तु उस पर कोई कार्यवाही नहीं हुई। बिहार के तक़रीबन 20,000 इंजीनियरों ने इस हत्याकांड की भी सीबीआई से जांच की मांग की थी। 1970 के दशक में कानपुर नगर महापालिका के ईमानदार अभियंता भगवती प्रसाद दीक्षित पर भ्रष्ट व गुंडे ठेकेदारों द्वारा किये गये जानलेवा हमले की घटना ने उन दिनों देश में खलबली मचा कर रख दी थी। अपने लिये इंसाफ़ मांगते मांगते थक चुके दीक्षित ने तत्कालीन प्रधानमंत्रियों इंदिरा गाँधी व राजीव गाँधी के विरुद्ध लोकसभा का कई बार चुनाव भी लड़ा और हर जगह वे अपने ऊपर हुए ज़ुल्म व अपने द्वारा उजागर भ्रष्टाचार की फ़ाइलें लेकर घूमते। कभी अमेठी कभी चिकमगलूर तो कभी राय बरेली में वे अपने घोड़े पर बैठकर चुनाव लड़ते। हर जगह उनकी ज़मानत ज़ब्त हो जाती। आख़िरकार इंसाफ़ की राह देखते देखते व भ्रष्टाचार के विरुद्ध बिगुल बजाते बजाते दीक्षित स्वयं अल्लाह को प्यारे हो गये परन्तु उन्हें इंसाफ न मिल सका।
इसतरह के सैकड़ों उदाहरण इस निष्कर्ष पर पहुँचने के लिए पर्याप्त हैं कि भ्रष्टाचार के लंबे हाथ जो पी एम और सी एम कार्यालयों तक अपनी मज़बूत पकड़ रखते हों आम आदमी या कोई आर टी आई एक्टिविस्ट अथवा व्हिसिल ब्लोअर या कोई पत्रकार उनका मुक़ाबला आख़िर कैसे कर सकेगा।? इसलिये ‘भ्रष्टाचार पर ज़ीरो टॉलरेंस ‘ जैसी लाख बातें करने के बावजूद यह सवाल हमेशा बरक़रार रहेगा कि क्या कभी ख़त्म भी होगा सत्ता संरक्षण में पोषित होने वाला ‘असीमित भ्रष्टाचार ‘?
(ये लेखक के अपने निजी विचार हैं और लेखक अपने लेख के लिए स्वयं उत्तरदायी होगा)