डॉ. वेदप्रताप वैदिक
समलैंगिकता को लेकर हमारा सर्वोच्च न्यायालय और सरकार, दोनों ही अपना समय बर्बाद कर रहे हैं। दोनों में से कोई भी इस मुद्दे पर अपनी दो-टूक राय जाहिर नहीं करना चाहता। समलैंगिकता मुद्दा बनी थी, अंग्रेज के लिए। क्योंकि 1857 के स्वाधीनता संग्राम ने लंदन के छक्के छुड़ा दिए थे। अंग्रेज अफसर पैसे और हुकूमत के लालच में भारत तो आ जाते थे लेकिन डर के मारे अपने बीवी-बच्चों को वहीं छोड़ आते थे। ऐसी स्थिति में अपनी वासना को वे अपने मातहत पुरुष कर्मचारियों के माध्यम से शांत करना ज्यादा सुरक्षित समझते थे। स्त्रियों के साथ सहवास तो संतानोत्पत्ति के कारण पकड़ा जा सकता था लेकिन समलैंगिकता को प्रमाणित करना लगभग असंभव था।
उसी का इलाज किया लाॅर्ड बेबिंगटन मैकाले ने। मैकाले की फौज और सरकारी मशीनरी को इस बीमारी से बचाने के लिए 1861 में ‘इंडियन पीनल कोड’ की धारा 377 का जन्म हुआ। यह धारा अभी तक भारत के गले में अटकी हुई है। यह धारा रहे या न रहे, इससे कोई खास फर्क नहीं पड़ता। स्वेच्छा और सहमति से दो अविवाहित पुरुष या दो स्त्रियां या दो स्त्री-पुरुष आपस में क्या संबंध रखते हैं, इससे किसी तीसरे को क्या मतलब ? यदि वे विवाहित होते हुए विवाहेतर संबंध रखेंगे तो वह कानूनन अपराध है। कानून का दखल तो तभी होगा जबकि पुलिस को पता चलेगा। जो स्वेच्छा से समलैंगिक संबंध करेंगे, वे पुलिस में क्यों जाएंगे ?
पिछले डेढ़ सौ साल में, खास तौर से 70 साल में धारा 377 के कितने मामले सामने आए हैं ? इसमें शक नहीं कि समलैंगिक संबंध अप्राकृतिक हैं और सृष्टि-क्रम के विरुद्ध हैं। कोई भी समाज इसे प्रोत्साहित क्यों करना चाहेगा लेकिन इसे अपराध मानकर आजीवन कारावास दिया जाए, यह तो अक्ल का दीवाला ही है। जीवन एक बहुत उलझी हुई पहेली है। उसकी हर समस्या का समाधान कानून से नहीं हो सकता। समलैंगिक संबंधों को शिक्षा और संस्कार द्वारा हतोत्साहित करना बेहतर है। इसीलिए इंडियन पीनल कोड की धारा 377 को रद्द किया जाना चाहिए और इस मुद्दे पर देश का समय फिजूल बर्बाद नहीं किया जाना चाहिए।