हाल ही में उत्तरप्रदेश में सम्पन्न हुए विधानसभा चुनावों के पूर्व सभी राजनीतिक पार्टियों ने अपने चुनावी घोषणा पत्र के जरिए जनता से सत्ता में आने की शर्त पर कुछ वादे किए थे, जिसका मूल था कि सत्ता में आने के तुरंत बाद वे उन पर अक्षरस: अमल करेंगे। संयोग से इन वायदों में यूपी की जनता ने भाजपा को अपने लिए मुफीद पाया और उस पर विश्वास करते हुए अपना बहुमत भारतीय जनता पार्टी को दे दिया। सरकार बनते ही भाजपा उन्हें पूरा करने में लग गई। उनमें फिर महिला सुरक्षा के लिए उठाए जाने वाले कदम हों, गन्ना किसानों को दी जाने वाली राशि हो, किसानों का कर्जा माफ करने का संकल्प हो, कानून व्यवस्था के स्तर पर सुशासन स्थापित करने के लिए किए जा रहे प्रयास हों, सड़कों का विकास, सरकारी कार्यालयों, अस्पतालों तथा विद्यालयों में पान, तम्बाकू तथा पान मसाला खाने पर पाबंदी, स्वच्छता का संदेश या फिर अवैध बूचड़खाने सील करने जैसे कानून सम्मत प्रयत्न हों। मुख्यमंत्री बनते ही योगी आदित्यनाथ की सरकार एक साथ सभी ऐसे तमाम विषयों पर ध्यान केंद्रित करते हुए आगे बढ़ रही है जिसका कि सीधा असर व्यापक पैमाने पर समूचे यूपी में दिखाई दे रहा है।
इस विभिन्न विषयों के बीच बूचड़खानों की बंदी भी एक ऐसा विषय है, जिस पर आज उत्तरप्रदेश में राजनीति शुरू हो गई है, लेकिन इसका जो सत्य पक्ष है, क्या उसे जाने वगैर हमारा किसी एक निष्कर्ष पर पहुँचना सही होगा ? जो लोग एक वर्ग विशेष के रोजगार से इसे जोड़कर देख रहे हैं, उन्हें समझना होगा कि रोजगार के नाम पर क्या मानव स्वास्थ्य से खेलने की इजाजत किसी को दी जानी चाहिए ? माना कि यूपी में सरकार बूचड़खाने हटवा रही है, लेकिन क्या वे वैध हैं, जिन्हें सरकार ने अब तक हटवाया है ? यदि इसका कोई उत्तर है तो वह नहीं ही है। सरकार बूचड़खाने हटवा रही है किंतु वह वैध नहीं अवैध हैं, जिन्हें कि मानव स्वास्थ्य के लिए हानिकारक माना गया है। जिनके बंद करने के लिए कई वर्षों पूर्व से नेशनल ग्रीन ट्राइब्यूनल या राष्ट्रीय ग्रीन न्यायाधिकरण (एनजीटी) कहती रही है।
यह बड़ी ही अजीब बात है कि पहले मीडिया से लेकर तमाम निगरानी संस्थाएं और एनजीओ इस के लिए चिल्लाएं कि देखिए,यूपी में कितना मानव स्वास्थ्य के साथ खिलवाड़ किया जा रहा है । प्रदेश सरकार सोई हुई है, मुख्यमंत्री मस्त हैं और जनता पस्त है । नगरीय निकाय भी इस मामले में कुछ करना नहीं चाहते हैं। यह आरोप समय-समय पर लगातार पिछली सरकारों में बूचड़खानों को लेकर उत्तरप्रदेश में लगते रहे हैं । किंतु अब जो सरकार आई है, उसने अपनी नीयत सत्ता में आने के पूर्व ही साफ कर दी थी। यही वजह है कि जनता से भाजपा को प्रचंड बहुमत देकर, कहना चाहिए छप्पर फाड़कर देने वाले बहुमत के साथ विधानसभा में भेजा है। अब सरकार के मुखिया मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ अपने स्तर पर प्रदेश को स्वस्थ, सुन्दर और रोजगार से पूर्ण बनाने के लिए निर्णय ले रहे हैं तो क्यों उनके निर्णयों का विरोध किया जा रहा है ? जबकि इस मामले में उन्होंने साफ कहा है कि जिनके पास बूचड़खाना संचालित करने के लाइसेंस हैं उन्हें परेशान होने की जरूरत नहीं है।
यूपी सरकार के प्रवक्ता सिद्धार्थनाथ सिंह ने भी सरकार की ओर से स्थिति पूरी तरह स्पष्ट की हुई है जिसमें उन्होंने साफ शब्दों में कहा है कि सिर्फ अवैध बूचड़खानों पर ही कार्रवाई की जा रही है, वैध बूचड़खानों पर कोई कार्रवाई कर ही नहीं सकता। वैध बूचड़खानों पर कार्रवाई करने वालों के खिलाफ कार्रवाई करेंगे, मुर्गा या अंडा बेचने वाली दुकानों को बंद करने के आदेश नहीं हैं।
सच पूछिए तो सरकार 'पर्यावरण अदालत' राष्ट्रीय ग्रीन न्यायाधिकरण (एनजीटी) के कहे का ही पालन कर रही है। दो साल पहले एनजीटी अवैध बूचड़खानों पर रोक लगा चुका है। इससे संबंधित क़ानून की बात करें तो बूचड़खानों को लेकर क़ानून पचास के दशक के लागू हैं। वहीं इन्हें रिहायशी इलाक़ों से दूर ले जाने के बारे में सुप्रीम कोर्ट के अलावा राष्ट्रीय हरित न्यायाधिकरण ने अपने आदेश जारी किए हुए हैं। उच्चतम न्यायालय ने वर्ष 2012 में आदेश दिया था कि सभी राज्य सरकारें एक समिति बनाएं जिसका काम शहरों में बूचड़खानों की जगह तय करना और उनका आधुनिकीकरण सुनिश्चित कराना हो। किन्तु सुप्रीम कोर्ट के आदेश को चार साल से अधिक बीत चुके हैं, उत्तरप्रदेश में पिछली सरकार ने इसे जरा भी गंभीरता से नहीं लिया था।
इससे संबंधित यह बात जानना भी सभी के लिए जरूरी है कि लाख आर्थिक नुकसान सहते हुए भी सरकार ने यह कदम आम जन के स्वास्थ्य को ठीक रखने के लिए सख्ती से अमल में लाना उचित समझा है । क्योंकि यह तो सभी को पता होना ही चाहिए कि वे मांस किसका खा रहे हैं और जिसका भी खा रहे हैं वह स्वस्थ जानवर था भी कि नहीं । उत्तर प्रदेश के तमाम बूचड़खानों को बंद करने से राज्य सरकार को करीब 11 हजार 350 करोड़ रुपये के नुकसान होने की आशंका व्यक्त की गई है। इससे जुड़ा एक तथ्य यह भी है कि यहां अब तक करीब 356 बूचड़खाने संचालित किये जा रहे थे , जिनमें से सिर्फ 40बूचड़खाने ही वैध हैं, इन्हें केंद्र सरकार की कृषि एवं खाद्य प्रसंस्करण निर्यात विकास प्राधिकरण (एपीईडीए) से बाकायदा लाइसेंस मिला हुआ है।
वस्तुत: योगी सरकार के इस कदम को किसी विशेष समुदाय की आजीविका या इस दृष्टि से जोड़कर नहीं देखना चाहिए कि भाजपा ने अपनी सरकार राज्य में बनाते ही एक वर्ग विशेष पर अपने नियम और सिद्धांत थोपने शुरू कर दिए हैं। पशु मांस आहार किसी समुदाय, वर्ग से जुड़ा विषय नहीं है, कुछ धर्मों को छोड़कर प्राय: अधिकांश धर्म, समुदायों में जानवर के मांस को भोजन के रूप में किसी न किसी तरह लिया ही जाता है। देखा जाए तो सरकार वही कर रही है जो सुप्रीम कोर्ट की गाइडलाइन है। जिसके करने के लिए वर्षों से पर्यावरण की राष्ट्रीय अदालत (एनजीटी) राज्य सरकार से कह रही थी। भारतीय संविधान के अनुसार, जन-स्वास्थ्य और सफाई, अस्पताल एवं दवाखाने राज्य सूची के अंतर्गत आते हैं, जबकि जनसंख्या,परिवार नियोजन, चिकित्सा, शिक्षा, खाद्य पदार्थों एवं अन्य वस्तुओं में मिलावट इत्यादि विषयों को समवर्ती सूची में रखा गया हैं। वैसे राज्य के नीति निर्देशक सिद्धांतों के तहत अनुच्छेद 47 में भी जन स्वास्थ्य में सुधार सम्बन्धी प्रावधानों को शामिल किया गया है। सरकार तो अभी वही कर रही है जो मानव स्वास्थ्य की दृष्टि से हमारा संविधान हमें निर्देशित करता है, इसलिए इस विषय पर राजनीति करना कहीं से भी उचित नहीं है।
(लेखक : पत्रकार एवं फिल्म प्रमाणन बोर्ड की एडवाइजरी कमेटी के सदस्य हैं।)