हर देश की राजनीति समाज का आईना होती है। पिछले तीन वर्षों से हमारे यहां राजनीतिक स्तर पर जो कुछ चलता रहा है, उसका समाज और उसकी प्रक्रियाओं से गहरा संबंध है। मोदी सरकार ने राष्ट्र निर्माण और विकास के मुद्दों के इर्द-गिर्द एक मजबूत पकड़ बनाई है, लोक लुभावन वादों का सिलसिला भी जारी है, लेकिन इन सब स्थितियों के बावजूद देश का अशांत बनना विडम्बना है, क्या यह अशांति एवं तनाव की स्थितियां प्रायोजित है या सरकार की नीतियों के खिलाफ विरोध का स्वर है? एकाएक किसान आन्दोलन एवं किसानों के द्वारा आत्महत्या की घटनाओं ने तो सरकार की परेशानियों को बढ़ाया ही है। साथ-ही-साथ कश्मीर का लगातार अशांत बनना गंभीर चुनौती के रूप में सामने आ रहा है। गौरखालैंड की चिनगारी भी तनाव का कारण बनी हुई है। अर्थव्यवस्था की विरोधाभासी तस्वीर एवं बेरोजगारी आदि स्थितियां देश की लगातार असामान्य होती स्थितियों को ही उजागर कर रही है। लेकिन इस सबके साथ एक अलग राजनीति, जिसका सरोकार जीविका संबंधी प्रश्नों से जुड़ा हुआ है, इस देश की कोख में पनपती हुई दिखाई दे रही है। आश्चर्य नहीं होना चाहिए, यदि आगे आने वाले दिनों में इस देश की जनता नई राजनीति के तहत सक्रिय हो और सामाजिक परिवर्तन का स्रोत बने। क्योंकि समाज में व्यापक स्तर पर एक परेशानी का माहौल बनने लगा है या बनाया जा रहा है।
देश में गजब विरोधाभासी माहौल देखने को मिल रहा है। हाल ही में आए आंकड़ों ने अर्थव्यवस्था की एक ऐसी ही विरोधाभासी तस्वीर पेश की है। एक तरफ खुदरा महंगाई में राहत बरकरार है, वहीं दूसरी तरफ औद्योगिक उत्पादन सूचकांक (आइआइपी) में गिरावट दर्ज हुई है। महंगाई के मोर्चे पर दिख रही राहत के चलते रिजर्व बैंक से नीतिगत दरों में कटौती की मांग तेज हो सकती है। पिछले दिनों जारी हुई द्विमासिक मौद्रिक समीक्षा में रिजर्व बैंक ने रेपो रेट और रिवर्स रेपो रेट को यथावत रखा, जो उद्योग जगत को भी नागवार गुजरा। पर खुदरा महंगाई में नरमी बने रहने का रुख जारी ही रहेगा, यह दावा नहीं किया जा सकता, क्योंकि जीएसटी के संभावित असर को लेकर अनिश्चितता बनी हुई है।
ताजा आंकड़ों के मुताबिक औद्योगिक उत्पादन की वृद्धि दर घट कर अप्रैल में 3.1 फीसद पर आ गई। पिछले साल अप्रैल में औद्योगिक उत्पादन की वृद्धि दर साढ़े छह फीसद थी। गिरावट के पीछे खासकर मैन्युफैक्चरिंग, खनन व बिजली क्षेत्र का लचर प्रदर्शन है। इस समय रोजगार के मोर्चे पर निराशाजनक तस्वीर है, तो इसका एक प्रमुख कारण मैन्युफैक्चरिंग की वृद्धि दर में आई गिरावट भी है। खनन और बिजली के कमजोर प्रदर्शन औद्योगिक क्षेत्र में घटती मांग और ठहराव को दर्शाते हैं। जाहिर है कि न तो बुनियादी उद्योगों में स्थिति संतोषजनक है न मैन्युफैक्चरिंग में। यह हालत तब है जब सरकार ने स्टार्ट अप इंडिया, मेक इन इंडिया, स्किल इंडिया जैसे अनेक कार्यक्रम चला रखे हैं। इन कार्यक्रमों से मैन्युफैक्चरिंग की गति बढ़नी चाहिए थी, पर इसके विपरीत सुस्ती नजर आ रही है। रोजगार के मोर्चे पर और बुरा हाल है। अनुमान है कि देश के तीस फीसद से ज्यादा युवा बेरोजगार हैं। नौकरियों में छंटनी का क्रम भी तीव्रता से जारी है। क्या यह रोजगार-विहीन विकास की बानगी है?
मोदी सरकार ने गरीबों और पिछड़े वर्गों की तरफ अपनी प्रतिबद्धता दिखाई, लेकिन उस प्रतिबद्धता को साकार कराने में उसने कुछ खास मुस्तैदी नहीं दिखाई। साथ-साथ नोटबंदी के द्वारा सुधार की जो प्रक्रिया शुरू की गई थी, उसके दुष्प्रभाव भी सामने आने लगे है। बाजार मंदी की चपेट में है और एक नया भ्रष्टाचार पनपा है। नोटबंदी, वैश्वीकरण और आर्थिक सुधार ने सभी को, और खासतौर से आम आदमी को यह सपना दिखाया कि एक बार आर्थिक सुधार की प्रक्रिया आगे बढ़ गई तो सभी के लिए संपन्नता का प्रवाह होगा और हालात सुधरेंगे। आर्थिक सुधार के सपने ने लोगों को इस खतरे से आगाह नहीं किया था कि नोटबंदी का उद्देश्य एवं वैश्वीकरण की प्रक्रिया फेल भी हो सकती है। सच तो यह है कि जिन कॉर्पोरेशंस ने शुरू में नौकरियां दी थीं, वे धीरे-धीरे छंटनी करने लगे। साथ-साथ आर्थिक सुधारों के नाम पर सरकार सामाजिक सेक्टर से अपना हाथ खींचने लगी। इसके कारण गरीबों और कमजोर वर्गों के लिए खड़ा किया गया सामाजिक सहायता का ढांचा कमजोर होने लगा। चाहे स्वास्थ्य का क्षेत्र हो या शिक्षा का, सरकार की ओर से बार-बार यह आश्वासन दिए जाने के बावजूद कि नागरिक का स्वास्थ्य और शिक्षा उसकी जिम्मेदारी है, इस दिशा में ठोस काम नहीं किया जा सका।
जमीन के अधिकार से जुड़े सवालों और बड़ी संख्या में आदिवासियों, दलितों और अल्पसंख्यकों के विस्थापन ने नई परेशानियां पैदा की हैं। अनेकानेक जनसंघर्ष शुरू हुए और अभी भी चल रहे हैं। कॉर्पोरेट के दबाव में सरकार ने ऐसे सभी आंदोलनों के प्रति दमन की नीति अपनाई। यदि निष्पक्ष जायजा लें तो ऐसा लगेगा कि इन सब प्रश्नों और मुद्दों का देश की राजनीति से कोई सरोकार नहीं रह गया है। बल्कि ये मुद्दे अब भी राजनीतिक स्वार्थों की रोटियां सेंकने का हथियार मात्र है।
मोदी सरकार की नोटबंदी कालेधन एवं भ्रष्टाचार पर नकेल कसने की मुहिम का हिस्सा भले ही रही हो, लेकिन कोई भी सभ्य सोच रखने वाला व्यक्ति यह मानेगा कि किसी लोकतांत्रिक समाज में भ्रष्टाचार पर अंकुश लगाने के लिए इस तरह के प्रयोग लम्बी तैयारी के बाद ही होने चाहिए। क्योंकि उनकी सारी मुहिम डाइवर्सनरी-रास्ता भटकाने वाली ही साबित हुई है। कॉर्पोरेट दुनिया में जिस प्रकार का संकट आया हुआ है और प्रोपर्टी, शेयर, सट्टा बाजार अस्त-व्यस्त हो गया है, साथ ही आर्थिक और औद्योगिक विकास में जिस तरह कमजोरी देखने में आ रही है, उसके संदर्भ में मोदी की मुहिम लोगों का ध्यान गंभीर आर्थिक मुद्दों से हटाने का काम कर रही है।
मैं इस तर्क को पूरी तरह नकारना नहीं चाहूंगा कि शायद मोदी सरकार के समर्थक भ्रष्टाचार को लेकर संजीदा हैं, लेकिन कई ऐसे प्रश्न हैं, जिनका न तो उत्तर दिया गया है और न ही उनके बारे में कोई सूझबूझ दिखाई गई है। इस देश में बहुत बड़े पैमाने पर भ्रष्टाचार कॉर्पोरेट जगत और पूंजीवादी व्यवस्था से जुड़ा है। लेकिन मोदी की मुहिम के लिए यह चिंता का विषय नहीं है। उनके यहां इस बात की समझ भी नहीं है कि भ्रष्टाचार की समस्या, जिसकी जड़ें समाज में दूर तक फैली हैं, कानून की जादुई छड़ी हिला कर समाप्त नहीं की जा सकती। ज्वलंत और मौलिक आर्थिक मुद्दे, जिनकी तरफ से फिलहाल हमारा दिमाग हटाया गया था, पुनः सामने खड़े हो रहे हैं।
आज कई राज्यों के किसान कर्ज माफी की मांग कर रहे हैं। यह एक आर्थिक एवं नीतिगत मुद्दा है। प्रश्न यह है कि क्या कर्ज माफी चुनावी मुद्दा होना चाहिए? यह तो शुद्ध रूप से नीतिगत मामला है और नीति बनाने वाली संस्थाओं पर छोड़ देना चाहिए था। लेकिन क्यों राजनीति लाभ लेने के लिये इसे भुनाया गया? आखिर किस आधार पर उत्तर प्रदेश के किसानों का कर्ज माफ करने का एलान खुद प्रधानमंत्री की ओर से किया गया? क्या अन्य राज्यों के किसान की उत्पादकता उत्तर प्रदेश के किसानों से ज्यादा है? इस साल देश में रिकॉर्ड 274 मिलियन टन अनाज पैदा होने का अनुमान है। गेहूं और चावल के साथ दालों का उत्पादन भी जरूरत से ज्यादा हुआ है। विडंबना देखिए कि इसके बाद भी किसान आंदोलन की राह पर हैं, क्यों?
क्योंकि वोट पाने की ललक में पार्टियां पहले गैर जिम्मेदाराना वादे करती हैं और फिर या तो मुकर जाती हैं या आंशिक रूप से उन्हें पूरा करके समूचे देश में आक्रोश पैदा करती हैं। आज अगर देश के सभी किसानों का कर्ज माफ करना पड़े तो करीब ढाई लाख करोड़ रुपये खर्च करने पड़ेंगे। क्या केंद्र या राज्य की सरकारें इतनी बड़ी राशि खर्च करने की स्थिति में हैं और अगर हैं तो क्या अर्थव्यवस्था उसे वहन करने की हालत में होगी? कर्ज माफ करना हो या कश्मीर-दार्जिलींग की अशांति, आदिवासी-दलित से जुड़ी समस्याएं हो या बेरोजगारी का प्रश्न-सरकार की ओर से इन समस्याओं के समाधान के लिये जिस तरह के प्रयत्न किये जा रहे हैं, वे कैंसर के मरीज को दर्द की गोली देने से अधिक कुछ भी नहीं है।