विकास वित्तपोषण का गहराता संकट

शोभा शुक्ला 

    अमरीकी राष्ट्रपति ट्रम्प ने जो निर्णय लिए हैं उनका सीधा असर विकासशील देशों में विकास वित्तपोषण (डेवलपमेंट फ़ाइनेंसिंग) पर पड़ा है। उदाहरण के लिए , अमरीकी सरकार की दाता एजेंसी (यूएसएआईडी) के फ़िलहाल बंद हो जाने से अनेक अफ्रीकी देशों में एचआईवी के साथ जीवित लोग जीवनरक्षक एंटीरेट्रोवायरल दवाएँ लेने में असमर्थ हो सकते हैं। दक्षिण एशिया के देशों में 16 लाख परिवार मातृत्व और शिशु स्वास्थ्य सेवा से वंचित हो सकते हैं। अमरीका ने जिस तरह से विकास वित्तपोषण को एक झटके में खंडित किया है, उसकी निंदा तो होनी चाहिए, परंतु जो देश अमरीकी अनुदान से विकास वित्तपोषण कर रहे थे, उनको भी विवेचना करनी होगी कि विकास का वित्तपोषण किसकी मूल जिम्मेदारी है और लोगों की प्राथमिकता क्या है? और वे 'विकास' की आड़ में किन शर्तों पर अनुदान और अमीर देशों के बैंक से क़र्ज़ ले रहे थे?

    दशकों से अमरीकी बैंक जैसे विश्व बैंक और उनसे  संबंधित एजेंसियों ने, और ऐसे ही अन्य देशों के बैंकों  ने विकास वित्तपोषण की आड़ में अनेक देशों को क़र्ज़ दे कर उनकी आर्थिक स्थिति को अधिक जटिल बना दिया है।

    हालत यह है कि अफ़्रीका के कुछ विकासशील देश, शिक्षा या स्वास्थ्य या विकास को पोषित करने के बजाय, अमीर देशों के कर्ज को अदा करने को मजबूर हैं।

     आगामी जून 2025 में सभी सरकारें विकास के लिए वित्तपोषण सम्मेलन में भाग लेंगी। यह तो समय ही बताएगा कि इस बैठक से विकास वित्तपोषण का कोई जन हितैषी रास्ता निकलेगा भी, या समस्या और अधिक गहरी हो जाएगी।

विकास की प्रभावशीलता और कार्यसाधकता केंद्रीय होनी चाहिए

     विकासशील देशों को यह देखना होगा कि विकास प्रभावशीलता और कार्यसाधकता सर्वोपरि रहे। सीएसओ पार्टनरशिप फॉर डेवलपमेंट इफेक्टिवनेस (सीपीडीई) की रिपोर्ट के अनुसार, पिछले सालों में यह सर्वविदित हो गया था कि पारंपरिक दाता एजेंसियाँ अपने वायदों पर अधिक समय तक खड़ी नहीं उतर सकती।

    उदाहरण के लिए, कनाडा देश की दाता एजेंसी, सीडा का 12 साल पहले ही विदेश विभाग में विलय हो  चुका  है। ऑस्ट्रेलिया की दाता एजेंसी भी इसी तरह परिवर्तित हो गई। इंग्लैंड का डिपार्टमेंट ऑफ़ इंटरनेशनल डेवलपमेंट (अंतरराष्ट्रीय विकास का विभाग) भी अपने नए रूप (यूके ऐड) में आ गया था । जब 13-14 साल पहले, एक विकासशील देश ने इंग्लैंड से सैन्य जहाज़ न ख़रीद कर, फ़्रांस से ख़रीदे, तो इंग्लैंड की संसद में सवाल उठा था कि इंग्लैंड उस विकासशील देश को दान क्यों दे रहा है? इसके बाद उस विकासशील देश को मिल रहे अनुदान में कटौती की गई। इससे साफ़ ज़ाहिर है कि अमीर देशों के दान बिना शर्तों के नहीं आते। या यू कहा जाए कि अमीर देश, दान की आड़ में, अपने हितों की ही भरपाई करते हैं। संभवत: इसीलिए अमीर देशों की सरकारी दाता एजेंसियाँ  उनके विदेश मंत्रालय में विलय कर दी गई क्योंकि 'विकास वित्तपोषण' के बहाने  उनको तो अपनी विदेश नीति (और बाज़ार) को ही बढ़ाना है।

     विकास वित्तपोषण में न सिर्फ़ प्रभावशीलता और नतीजे को प्राथमिकता नहीं मिलती बल्कि पारदर्शिता, जवाबदेही, और लोकतांत्रिक रूप से विकास कार्य के स्वामित्व की भी बात तय नहीं होती।

     सीपीडीई रिपोर्ट ने अनुसार, 2000 से ही संयुक्त राष्ट्र की विकास वित्तपोषण प्रक्रिया के ज़रिए ये वायदे बारंबार किए गए कि विकास वित्तपोषण की न केवल धनराशि बढ़ेगी बल्कि उसकी गुणात्मकता भी बढ़ेगी जिससे कि लोकतांत्रिक रूप से विकासशील देश अपने विकास की दिशा को निर्धारित कर सकें, प्रभावशीलता और कार्यसाधकता के साथ कार्य करें, और स्पष्ट जवाबदेही  और पारदर्शिता भी बरक़रार रहे। परंतु असलियत ठीक इसके विपरीत है। अनेक वैश्विक संकट मंडरा रहे हैं, लगभग सभी सतत विकास लक्ष्यों को हम पूरा करने में असफल रहे हैं, और विकास वित्तपोषण प्रणाली भी संकटग्रस्त है।

विकास वित्तपोषण कांफ्रेंस का जीरो ड्राफ्ट मसौदा है असंतोषजनक

     आगामी विकास वित्तपोषण कांफ्रेंस के लिए जो "जीरो ड्राफ्ट" मसौदा सरकारों ने 17 जनवरी 2025 को जारी किया है वह असंतोषजनक है। उसमें समयबद्ध प्रतिबद्धताएँ नहीं हैं, विकास प्राथमिकताएं नहीं हैं, और कोई ठोस सुधार की बात नहीं है।

     उदाहरण के तौर पर, संयुक्त राष्ट्र में सभी सरकारों ने अपने सकल राष्ट्रीय कमाई (ग्रॉस नेशनल इनकम या जीएनआई) की  कम-से-कम 0.7% धनराशि को विकास वित्तपोषण में निवेश करने का वायदा किया है। परंतु पिछले सालों के आंकड़ें देखें तो अनेक देशों ने ऐसा नहीं किया है। इस मसौदे में इस वायदे को दोहराया तो गया है परंतु इसको समयबद्ध तरीके से कैसे लागू करेंगे और पिछले सालों के बकाये को कैसे अर्जित कर विकास कार्य में निवेश करेंगे, यह बात नहीं है। सीपीडीई का मानना है कि सकल राष्ट्रीय कमाई की  0.7% धनराशि में से जो रकम पिछले सालों में विकास वित्तपोषण को नहीं दी गई है, वह उधार मानी जाये – और उसको समयबद्ध तरीके से विकास कार्यों में लगाया जाए।

     विकास वित्तपोषण के लिए जो रकम सरकारों ने वायदे के बाद भी नहीं दी है वह अमरीकी डॉलर 7.1 ट्रिलियन है। इस रकम को वसूल  कर के विकास वित्तपोषण में लगाना चाहिए – जैसे कि शिक्षा, स्वास्थ्य सुरक्षा, सामाजिक सुरक्षा, जेंडर समानता आदि।

     विकास वित्तपोषण को अमीर देशों के बाज़ार और विदेश नीति से मुक्त करना होगा। इस मसौदे में यह बात स्पष्ट नहीं है कि बिना दाता अमीर देशों की प्रत्यक्ष-अप्रत्यक्ष दख़लंदाज़ी के, विकासशील देश कैसे अपनी विकास प्राथमिकताओं को स्वतंत्र रूप से निर्धारित करेंगे, कैसे पारदर्शिता और जवाबदेही रखेंगे, और कैसे यह सुनिश्चित करेंगे कि विकास कार्य जन हितैषी हों और उनका स्वामित्व स्थानीय रहे। उसूलन तो विकास प्राथमिकताएं स्थानीय स्तर पर जनता द्वारा ही तय होनी चाहियें, एवं उनका प्रबंधन और स्वामित्व भी स्थानीय होना चाहिए।

     सीपीडीई रिपोर्ट की एक अहम माँग यह है कि जब व्यापार संधि आदि कानूनन रूप से बाध्य होती हैं तो विकास वित्तपोषण के समझौते कानूनन रूप से बाध्य क्यों नहीं होते? क्या व्यापार बढ़ाने को मानव विकास से अधिक प्राथमिकता मिलनी उचित है? इसीलिए विकास वित्तपोषण को क़ानूनी-रूप से बाध्य करना आवश्यक है और उसको व्यापार आदि से अधिक प्राथमिकता भी मिलनी चाहिए।

      जाने-माने जन स्वास्थ्य विशेषज्ञ डॉ सुगाता मुखोपाध्याय का कहना है कि समय आ गया है जब हमें सीमित संसाधनों में अधिक-से-अधिक कार्य करना होगा। हम लोगों ने पूर्व में अनेक गुना व्यय किया है जिसको रोका जा सकता था। उदाहरण के तौर पर, अनावश्यक यात्राएँ (विशेषकर हवाई यात्राएँ), 5/7 स्टार होटल में प्रवास और विकास-संबंधित बैठकें, अत्यधिक फीस, उच्च-स्तरीय दौरे, आदि। जिन लोगों के लिए विकास कार्य होना है जब वे ग़रीबी, भुखमरी, और बेरोज़गारी से जूझ रहे हैं और रोग-ग्रस्त हैं, तो उनके लिए कार्य करने वाले लोग कैसे इतना अधिक आरामतलब हो सकते हैं? यह केवल विकास-कार्य करने वालों पर ही लागू नहीं होता बल्कि समाज के लिए हमारे सभी चुने हुए प्रतिनिधियों पर भी लागू होना चाहिए।

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