क्रांतिकारी राष्ट्रसंत मुनि तरुणसागर
क्रांतिकारी राष्ट्रसंत एवं कड़वे प्रवचन के लिये चर्चित मुनि तरुणसागरजी महाराज ने मौत को महोत्सव का रूप देकर इस संसार से विदा ले ली है। दिल्ली के राधेपुरी इलाके में चातुर्मास के दौरान उन्हें एकाएक असाध्य बीमारी ने घेर लिया। उनके देवलोकगमन से न केवल समूचे जैन समाज में बल्कि राष्ट्र में एक रिक्तता का वातावरण निर्मित हो गया है। उन्होंने अपनी साधना, त्याग, तपस्या, साहित्य-सृजन, संस्कृति-उद्धार के उपक्रमों से एक नया इतिहास बनाया है। एक सफल साहित्यकार, प्रवक्ता, साधक एवं प्रवचनकार के रूप में न केवल जैन समाज बल्कि सम्पूर्ण अध्यात्म-जगत में सुनाम अर्जित किया। मृत्यु के इस महोत्सव के साक्षात्कार के लिये असंख्य श्रद्धालुजन देश के विभिन्न भागों से पहुंचे। अनेक धर्मगुरु, राजनेता, समाजसेवी, पत्रकार, साहित्यकार भी दर्शनार्थ पहुंचे और उनके अमरत्व की इस अनूठी एवं विलक्षण यात्रा में सम्मिलित होकर, उनके अन्तिम दर्शनों का लाभ लिया। ऐसे दिव्य एवं तेजस्वी संत का देह से विदेह होना सम्पूर्ण मानवता की एक अपूरणीय क्षति है।
भारत का इतिहास संत और मुनियों की गौरवमयी गाथाओं से भरा है। इस देश की धरती पर अनेक तीर्थंकर, अवतार, महापुरुष एवं संतपुरुष अवतरित हुए जिन्होंने अपने व्यक्तित्व एवं कर्तृत्व से समाज व राष्ट्र को सही दिशा और प्रेरणा दी। महापुरुषों की इस अविच्छिन्न परम्परा में मुनि श्री तरुणसागरजी भी एक ऐसे ही क्रांतिकारी संत थे जो देश में हिंसा और क्रूरता के खिलाफ आवाज बुलंद कर रहे थे तथा अहिंसक समाज की संरचना में संलग्न थे। वे बहुआयामी साहित्य के सृजनकार थे। एक महान् साधक एवं आध्यात्मिक युगपुरुष भी थे। अपने साहित्य के माध्यम से वे मानवीय मूल्यों के प्रति जनचेतना का सृजन अनेक वर्षों से कर रहे थे। समाज में व्याप्त बुराइयों एवं विसंगतियों को दूर करने के लिये अपनी लेखनी एवं व्यवहार द्वारा जन-जन को आन्दोलित कर व्यापक परिवर्तन ला रहे थे। उनके ‘कड़वे प्रवचन’ देश और दुनिया में लोकप्रिय ही नहीं हुए, बल्कि जन-जन को जीने की एक नई दिशा एवं नई दृष्टि प्रदत्त की। ‘कड़वे प्रवचन’ उनके क्रांतिकारी व्यक्तित्व की पहचान तो बनें ही इसके साथ-साथ उसने अनेक विश्व कीर्तिमान भी स्थापित किये। ‘कड़वे प्रवचन’ हिन्दी, अंग्रेजी, मराठी, गुजराती, बांग्ला, आसमिया, पंजाबी, उड़िया, नेपाली, तमिल, तेलुगू, मलयालम, कन्नड़, उर्दू आदि भाषाओं में लाखों-लाखों प्रतियांे में प्रकाशित हुआ है।
मुनि श्री तरुणसागरजी उत्साह एवं आशा के पर्याय थे। समाज एवं राष्ट्र के निर्माण की उदग्र आकांक्षाएं उनके मन में अंगड़ाइयां लेती रहती थीं। इसके लिये वे खाना, पीना एवं व्यक्तिगत आराम तक गौण कर देते थे। अनेक संघर्षों, विरोध एवं विषम परिस्थितियों में भी उनका सकारात्मक चिन्तन सदैव व्यक्ति, समाज, राष्ट्र एवं सम्पूर्ण मानवता के कल्याण के स्वप्न देखता था। राजनीति के शिखर पुरुषों के ऊपर उनका आध्यात्मिक प्रभाव था। इसलिये जब भी राष्ट्र में कोई अवांछनीय घटना घटती, वे समाधायक बनकर स्थिति सुलझाने का प्रयत्न करते, जिससे राष्ट्रीय चरित्र खंडित न हो। वे समय-समय पर राष्ट्रीय चरित्र को उन्नत बनाने का संकल्प दुहराते रहे। भारतीय जनता के सोए आत्मविश्वास एवं आत्मशक्ति को जगाने का उपक्रम करते रहते थे। उन्होंने अपने मौलिक चिन्तन एवं अनुसंधान से संसार को चमत्कृत किया है।
26 जून 1967 को दमोह जिले के गुहंची गांव में जन्मे मुनि तरुणसागरजी का पूर्व नाम पवन कुमार जैन था। पिता श्री प्रतापचंद जैन के घर-आंगन में माता श्रीमती शांतिबाई की कोख से जन्मा यह बालक बाल्यावस्था से ही विलक्षण प्रतिभा-संपन्न था। मुनिश्री की प्राइमरी शिक्षा अपने गांव में हुई। इसके बाद जब वे माध्यमिक शिक्षा के लिए अपने गांव से 2 किलोमीटर दूर झालोन ग्राम में पढ़ रहे थे, तब एक दिन वहां युग प्रवर्तक जैनाचार्य पुष्पदंतसागरजी महाराज का आगमन हुआ। बालक पवन विद्यालय से अपने घर लौटते हुए मार्ग में आचार्यश्री का प्रवचन सुना। प्रवचन से वह बड़ा प्रभावित हुआ और जीवन को अध्यात्म के मार्ग पर ले जाने के लिये संकल्पित हो गया, उनके भीतर का संतत्व जाग उठा और 13 वर्ष की उस किशोरावस्था में उन्होंने गृह-त्याग कर दिया। 18 जनवरी, 1982 को अकलतरा (जिला-बिलासपुर, म.प्र) में देशव्यापी विरोध के बावजूद आचार्य श्री पुष्पदंतसागरजी के करकमलों द्वारा क्षुल्लक दीक्षा लेकर बालक पवन ने एक नया इतिहास रच डाला। उन्होंने जैन श्रमण जीवन की कठोर साधनाएं साधकर यह सिद्ध कर दिखाया कि धर्म पचपन में नहीं, बचपन मंे किया जा सकता है। निरन्तर अध्ययन-मनन किया एवं साधना को निरंतरता प्रदान करते हुए 20 जुलाई, 1988 को बांसवाडा जिले के बागीदौरा (राजस्थान) में दिगम्बरत्व का बाना लेकर समाज की नग्नता को ढकने के लिए अपने तन के वस्त्र तक छोड़ दिए।
किसी भी देश की माटी को प्रणम्य बनाने एवं कालखंड को अमरता प्रदान करने में साहित्यकार और धर्मगुरु की अहं भूमिका होती है। धर्मनेता होते हुए भी मुनि तरुण सागरजी राष्ट्र की अनेक समस्याओं के प्रति जागरूक ही नहीं थे, अपितु समय-समय पर समस्याओं के समाधान के अनेक विकल्प भी प्रस्तुत करते रहते थे। यही कारण है कि उनकी सांस-सांस में मानवीय मूल्यों के उत्थान की आहत सुनाई देती थी, उनकी वाणी में लोकमंगल और सर्वकल्याण की भावना प्रतिध्वनित होती रहती थी, उन्होंने जीवन के बहुमूल्य क्षण अपाहिज मानवता की सेवा में समर्पित कर दिए। ऐसे दूरद्रष्टा और उदात्त महापुरुष का असमय विदा हो जाना आहतकारी है, उनके राष्ट्रीय कर्तृत्व को उकेरना सूर्य को दीपक दिखाना होगा या मोम के दांतों से लोहे के चने चबाना। फिर भी समय-समय पर उनके व्यक्तित्व को मापने के प्रयास होते रहे हंै। उनका विरोध भी बहुत हुआ। वे विरोध को विनोद मानते रहें। कभी हरियाणा विधानसंभा में उनके प्रवचन से एक विवाद खड़ा हुआ, तो कभी आप की अदालत में उनकी उपस्थिति विवाद का कारण बनी। विरोध की स्थितियों के बावजूद किसी ने उन्हें ‘युग चेतना के प्रतिनिधि’ कहा तो किसी ने ‘नए युग का मसीहा’ कहा। किसी ने ‘राष्ट्र संत’ के रूप में उनकी अभ्यर्थना की तो किसी ने ‘कान्त द्रष्टा’ के रूप में अभिवंदना की। उनकी प्रवचन-सभा में जैन-अजैन का भेद समाप्त हो गया। परिणामस्वरूप उनका व्यक्तित्व और अधिक राष्ट्रव्यापी तथा सार्वजनीन बनता चला गया। विशेष अवसरों पर अनेक बार उन्होंने इस संकल्प को व्यक्त किया।
मुनि तरुणसागरजी उनका व्यक्तित्व जितना सम्मोहक था, उनके विचार उतने ही प्रभावशाली थे। जैन-मुनियों में काफी बड़े-बडे़ संत हुए हैं, लेकिन देश और विदेश की गैर-जैन जनता पर अपनी छाप छोड़नेवाले मुनि तरुणसागरजी अद्वितीय संत थे। संसार की ऐसी कौन सी समस्या है, जिस पर मुनिजी के विचार प्रकट न हुए हों। देश के राजनीतिक, सांस्कृतिक, सामाजिक सभी ज्वलंत प्रश्नों पर तरुणसागरजी की दो टूक राय रही है। वे अपनी राय कभी छुपाते नहीं थे। देश के बड़े नेता को भी वे अपनी बात साफ-साफ कह देते थे, लेकिन उनके विचारों को पढ़ने से पता चलता है कि कोई महापुरुष ‘सत्यं वद्, प्रियं वद्’ की साधना कैसे करता है। इस अत्यंत दुर्लभ और अति-मानवीय गुण के स्वामी होने के कारण ही मुनि तरुणसागरजी का नाम देश के दिग-दिगन्त मंे गूंजता रहा है और रहेगा।
मुनिश्री तरुणसागरजी के प्रवचन शास्त्र-सम्मत तो होते ही थे किन्तु इतने सरल, व्यावहारिक, रोचक एवं बोधगम्य होते थे जो सीधे हृदय को स्पर्श कर जाते थे। उनके प्रवचनों में हर जगह अपार जनसमुदाय की माजूदगी इसका साक्षात् प्रमाण है। उनके प्रवचन सर्वग्राही थे। यही कारण है कि उनकी धर्मसभाओं में न केवल जैन बल्कि वैष्णव, सिंधी-पंजाबी बल्कि मुसलमान तक शिरकत करते देखे जा सकते थे। मुनिश्री का चिंतन अत्यंत व्यापक और उदार था। वे केवल जैन धर्म या जैन समाज के हित में नहीं सोचते थे बल्कि उनके चिंतन में राष्ट्रीयता और विश्व कल्याण की मंगल भावनाएं निहित थी। यही कारण है कि वे जैन संत नहीं अपितु जन-जन के रूप में पहचाने जाते थे। उनकी दृढ़ मान्यता थी कि व्यक्ति-सुधार से ही राष्ट्र-सुधार संभव है।
धर्म के संबंध में मुनिश्री का चिंतन था कि धर्म ओढ़ने की नहीं, जीने की चीज है। आज धर्म को जिया नहीं जा रहा है। यही कारण है कि भारत धर्मप्राण देश होने के बावजूद भी अनेक बुराइयों की गिरफ्त में है तथा निरंतर समस्याओं से जूझ रहा है। मानव सेवा और जनकल्याण के प्रति समर्पित मुनिश्री ने देश के कई प्रांतों में करीब हजारों किलोमीटर की पैदल यात्रा करके मार्ग में समागत हजारों-लाखों लोगों को धर्म का उपदेश देकर उन्हें मांसाहार, नशा तथा अन्य बुराइयों से मुक्ति दिलाई। युवाओं को सामाजिक बुराइयों और व्यसनों से मुक्ति दिलाना उनका एक मिशन भी था। आधुनिकता और भौतिकता के दुष्चक्र से मुक्त होकर इस लोक में सुख और समृद्धि के साथ सार्थक जीवन जीने और जीवन-मुक्ति की दिशा में अग्रसर होने के लिए मुनिश्री तरुणसागरजी जो उपदेश दे रहे थे, उन उपदेशों से प्रेरणा लेने की जरूरत है।
लोगों का अनुभव है कि वे जब बोलते थे तो केवल मुंह से नहीं बोलते थे, उनका रोम-रोम बोलता था, कण-कण बोलता था। उनकी भाव-भंगिमा इतनी सजीव होती थी कि प्रवचनों में प्राण आ जाते थे। जो भी उनके मुखारविन्द से फूटी ज्ञानगंगा के झरनों में स्नान कर लेता था वह बार-बार इसकी अभिलाषा रखता था। वे कहते थे कि जब तक इस मुल्क में आदर्शों को व्यावहारिक और सार्वजनिक जीवन में स्थान नहीं मिलेगा, तब तक जीवन, व्यक्ति, परिवार, समाज और राष्ट्र समस्याओं से मुक्त नहीं हो सकता इसलिए वे महावीर स्वामी को चैराहे पर खड़ा करने की बात करते थे। वे कहते थे- ‘‘मैं महावीर को मंदिरों से मुक्त करना चाहता हूं। यही कारण है कि मैंने आजकल तुम्हारे मंदिरों में प्रवचन करना बंद कर दिया है। मैं तो शहर के व्यस्ततम चैराहों पर प्रवचन करता हूं क्योंकि मैं महावीर को चैराहे पर खड़ा देखना चाहता हूं। मेरी एक ही आकांक्षा है कि महावीर जैनों से मुक्त हों ताकि उनका संदेश, उनकी चर्या, उनका आदर्श-जीवन दुनिया के सामने आ सके।’’ निश्चित ही यह बड़े दुस्साहस की बात थी कि आज तक किसी जैन मुनि ने इस तरह की बात नहीं कही लेकिन मुनिश्री ने जो क्रांति की घोषणा की थी, वह समय की मांग है। मुनिश्री ने भगवान महावीर द्वारा निरूपित अहिंसा, अनेकांत और अपरिग्रह का पाठ दुनिया को पढ़ाने का बीड़ा उठाया था और अपने इस लक्ष्य की पूर्ति के लिए अहर्निश संलग्न रहते हुए अब अपनी यात्रा मोक्ष की ओर अग्रसर कर दी है। उन्होंने अपने जन्म से ही नहीं बल्कि मृत्यु से भी संसार को उपकृत किया है। ऐसे महामानव को प्रणाम।