अजय कुमार,लखनऊ
मोदी सरकार ने उच्च पदों पर नौकरियों में सीधी भर्ती (लेटरल एंट्री) का अपना एक फैसला क्या वापस लिया, विपक्ष ने इसे मोदी को घेरने का हथियार बना लिया। पूरा विपक्ष अपनी पीठ ठोंक रहा है। पीठ ठोंकने वालों में यूपी के नेता मायावती और अखिलेश यादव सबसे आगे नजर आ रहे हैं। बसपा सुप्रीमो मायावती और सपा प्रमुख अखिलेश यादव को तो लगता है कि इससे यूपी की राजनीति की धुरी ही बदल जायेगी। बसपा प्रमुख मायावती की प्रतिक्रिया आई थी कि उनके तीव्र विरोध के बाद सरकार ने सीधी भर्ती वाला निर्णय वापस लिया है। वहीं, सपा प्रमुख अखिलेश यादव दावा कर रहे हैं कि पिछले दरवाजे से आरक्षण को नकारते हुए नियुक्तियों की साजिश आखिरकार पीडीए की एकता के आगे झुक गई। मतलब यह है कि फैसला केंद्र ने वापस लिया लेकिन अखिलेश और मायावती खुद इसका क्रेडिट ले रहे हैं। वैसे सियासत इसी को कहा जाता है।
वैसे यह पहली बार नहीं हुआ है कि परस्पर विरोधी बसपा और सपा नेताओं के सुर एक जैसे सुनाई पड़ रहे हों, इसी तरह के सुर आरक्षण में वर्गीकरण के मुद्दे पर भी देखने को मिले थे,ज बसपा ने बंद का समर्थन किया तो अखिलेश ने भी तुरंत इसके समर्थन में पोस्ट लिख कर अपना पक्ष रख दियस। बात यहीं तक सीमित नहीं है, आरक्षण से जुड़े हर मुद्दे पर मायावती और अखिलेश लगातार आक्रामक दिख रहे हैं। आखिर क्या वजह है कि आरक्षण के मुद्दे पर दोनों के सुर एक हैं? या दोनों के बीच एक रेस लगी हुई है कि दलितों और पिछड़ों का ज्यादा हितैषी कौन है? आखिर इस मुद्दे के जरिए मायावती और अखिलेश कौन-सी राजनीति साध रहे हैं?
सपा के द्वारा बसपा के दलित वोट बैंक में बड़ी सेंधमारी कर ली गई है। तब से मायावती की एक ही कोशिश है कि किसी तरह अपना दलित वोटबैंक वापस लाया जाए। इसके लिए मायावती लगातार दलित हितों से जुड़े मुद्दे उठा रही हैं। इस बीच सुप्रीम कोर्ट ने एससी-एसटी आरक्षण में वर्गीकरण पर अपना मत दिया,तो मायावती की उम्मीद को पंख लग गये। मायावती ने तुरंत इस मुद्दे को लपक लिए। सबसे पहले उनकी प्रतिक्रिया आई। इसे पूरी तरह गलत ठहराते हुए उन्होंने भाजपा के साथ ही सपा-कांग्रेस सहित अन्य पार्टियों को भी घेरना शुरू कर दिया। वह संसद में संविधान संशोधन लाने की मांग पर अड़ गईं। इस मुद्दे पर उन्होंने दो बार प्रेस कॉन्फ्रेंस की और सोशल मीडिया के जरिए कई बयान दिए। शुरुआत में कांग्रेस ने इस पर सधी प्रतिक्रिया दी, लेकिन मायावती के आक्रामक रुख को देखते हुए सपा ने भी खुलकर मोर्चा खोल लिया। इसी बीच 69,000 शिक्षक भर्ती का मामला भी उठा,जिस पर सपा और बसपा दोनों ही आक्रामक दिखे। अखिलेश यादव को लगा कि अब यदि चुप रहे तो पिछले लोकसभा चुनाव में जो दलित वर्ग उनके साथ जुड़ा है, कहीं वापस बसपा में न चला जाए। उन्होंने सीधी भर्ती के मामले में 2 अक्टूबर को आंदोलन का ऐलान भी कर दिया। मायावती भी अपने बयानों के जरिए इस मुद्दे पर आक्रामक रूख बनाये हुए हैं
इस तमाम सवालों का जवाब समझने के लिए पिछले लोकसभा चुनाव से पहले की स्थितियों और नतीजों पर गौर करना जरूरी है। यूं तो संविधान और आरक्षण बसपा का कोर मुद्दा रहे हैं लेकिन पिछले लोकसभा चुनाव से पहले सपा ने कांग्रेस के साथ गठबंधन करके पीडीए (पिछड़ा-दलित-अल्पसंख्यक) का जो नारा और इंडिया गठबंधन में शामिल होकर संविधान की रक्षा का मुद्दा भी जोर-शोर से उठाया था,उसका फायदा जब इंडिया गठबंधन को मिला तो बसपा सुप्रीमों को अपना राजनैतिक भविष्य अंधकार में नजर आने लगा। इससे पहले मायावती को भी यह उम्मीद नहीं थी कि सपा का यह दांव इतना अधिक कारगर होगा। नतीजे आए तो सपा ने यूपी में अकेले 37 सीटें जीत लीं। साथ में कांग्रेस को भी छह सीटों पर जीत हासिल हुई और बसपा का सफाया हो गया। वोट प्रतिशत भी खिसक कर मात्र करीब साढ़े नौ प्रतिशत पर आ गया। इससे साफ हो गया कि सपा के द्वारा बसपा के दलित वोट बैंक में बड़ी सेंधमारी कर ली गई है। तब से मायावती की एक ही कोशिश है कि किसी तरह अपना दलित वोटबैंक वापस लाया जाए। इसके लिए मायावती लगातार दलित हितों से जुड़े मुद्दे उठा रही हैं। इस बीच सुप्रीम कोर्ट ने एससी-एसटी आरक्षण में वर्गीकरण पर अपना मत दिया,तो मायावती की उम्मीद को पंख लग गये। मायावती ने तुरंत इस मुद्दे को लपक लिए। सबसे पहले उनकी प्रतिक्रिया आई। इसे पूरी तरह गलत ठहराते हुए उन्होंने भाजपा के साथ ही सपा-कांग्रेस सहित अन्य पार्टियों को भी घेरना शुरू कर दिया। वह संसद में संविधान संशोधन लाने की मांग पर अड़ गईं। इस मुद्दे पर उन्होंने दो बार प्रेस कॉन्फ्रेंस की और सोशल मीडिया के जरिए कई बयान दिए। शुरुआत में कांग्रेस ने इस पर सधी प्रतिक्रिया दी, लेकिन मायावती के आक्रामक रुख को देखते हुए सपा ने भी खुलकर मोर्चा खोल लिया। इसी बीच 69,000 शिक्षक भर्ती का मामला भी उठा,जिस पर सपा और बसपा दोनों ही आक्रामक दिखे। अखिलेश यादव को लगा कि अब यदि चुप रहे तो पिछले लोकसभा चुनाव में जो दलित वर्ग उनके साथ जुड़ा है, कहीं वापस बसपा में न चला जाए। उन्होंने सीधी भर्ती के मामले में 2 अक्टूबर को आंदोलन का ऐलान भी कर दिया। मायावती भी अपने बयानों के जरिए इस मुद्दे पर आक्रामक रूख बनाये हुए हैं।
लब्बोलुआब यह है कि सपा और बसपा नेता लगातार यह संदेश देने की कोशिश कर रहे हैं कि दलितों के असली हितैषी वही हैं। बसपा ने लोकसभा चुनाव के बाद कमिटियों का नए सिरे से गठन किया है। उनमें भी साफ झलक देखने को मिली कि दलितों को ज्यादा तवज्जो दी जा रही है। वहीं, अखिलेश यादव भी लोकसभा चुनाव के बाद फैजाबाद के सांसद अवधेश प्रसाद को आगे बढ़ा रहे हैं। संसद से लेकर सार्वजनिक मंचों तक वह अवधेश प्रसाद के साथ नजर आते हैं। संसद में भी अवधेश प्रसाद को लोकसभा में अधिष्ठाता मंडल का सदस्य बनवाया गया। मायावती की तरह मंचों से आंबेडकर और कांशीराम का नाम अक्सर लेते हैं।दरअसल, अभी यूपी में विधान सभा उपचुनाव होने हैं।