डॉ. शुभ्रा परमार
केरल मे स्थित सबरीमाला मंदिर में महिलाओं के प्रवेश के मामले पर सुप्रीम कोर्ट ने 28 सितंबर 2018 को अपना फैसला सुनाया । जिसमें सुप्रीम कोर्ट ने यह कहा कि केरला हिन्दू प्लेसेज ऑफ पब्लिक वर्कशिप (आथराइजेशन ऑफ एंट्री ) रूल्स, 1965 का कानून हिन्दू महिलाओं के धर्म पालन करने के अधिकार को बाधित करता है । यह कानून संविधान के अनुच्छेद 14,15, 17 के प्रावधानों के ख़िलाफ़ है । यह लिंग भेद में असमान व्यवहार को बढ़ावा देता है ।
सबरीमाला मंदिर दक्षिण का तीर्थस्थल है । पारंपरिक मान्यताओं के चलते सबरीमाला मंदिर में महिलाओं का प्रवेश निषेध किया गया है । विशेष रूप से केवल उन महिलाओं का प्रवेश निषेध है जो मासिक धर्म (10-50 उम्र के बीच) आधारित है बाकी सभी महिलाओं को मंदिर में प्रवेश कि इजाजत है । ऐसा इसलिये किया गया है क्योंकि सबरीमाला में मंदिर के देवता निष्ठिका ब्रह्मचारी रूप में स्थापित हैं । भगवान अय्यप्पा के ब्रह्मचारी स्वरूप के कारण मासिक धर्म वाली महिलाओं को मंदिर में प्रवेश कि इजाजत नही है ।
परंतु सुप्रीम कोर्ट के फ़ैसले के बाद सभी उम्र कि महिलाओं को मंदिर में जाने की इजाजत देने की सिफारिश की गयी है । भगवान अय्यप्पा की संवेदना की स्थिति और संप्रदाय विशिष्ट धार्मिक परंपराओं ने सबरीमाला में महिलाओं के प्रवेश को निषेध किया है जिसे देव सोम बोर्ड ने भी इस बात का समर्थन किया है । भारत मे यह इस प्रकार का एक अलग ही मुद्दा विवादों मे रहा है । हालांकि इससे पहले महाराष्ट्र में अहमद नगर के शनि शिंगणापुर मंदिर, कोल्हापुर में महालक्ष्मी अम्बा मंदिर, नासिक के त्रयंबकेश्वर व कपालेश्वर मंदिर और मुंबई की हाजी अली दरगाह में भी महिलाओं का प्रवेश निषेध था परंतु बाम्बे हाई कोर्ट के आदेश के बाद मंदिरों में प्रवेश की इजाजत दी गई ।
परंतु सबरीमाला मंदिर में महिला प्रवेश के मुद्दे को दक्षिण के संप्रदाय विशिष्ट जन एक अलग विचारधारा से देखते हैं । जिसके चलते वहाँ की महिलाओं के साथ संविधान के अनुच्छेद 25 और 26 की धार्मिक स्वतंत्रता के अधिकार का हनन हो रहा है ।
सबरीमाला मंदिर विवाद (2018) कई महत्वपूर्ण मुद्दों पर सोचने के लिए बाध्य करता है । जैसे – धर्म बनाम आस्था, संविधान बनाम बुद्धिमता, प्रकृति बनाम संस्कृति, न्यायिक सक्रियता बनाम परंपराये, बुद्धिमता बनाम विवेक आधारित मान्यताओं को चुनौती देता है । यह प्रकरण कई विचारधारा और सोच को उठता है जैसे सबरीमाला-सबरीमाला मंदिर में महिलाओं के साथ भेदभाव, हिंदुत्व परंपरा में भेदभाव औए लैंगिग असमानता पर प्रशंचिन्ह । बदलते समय के साथ क्या धार्मिक पौराणिक मान्यताएं बदली जानी चाहिए ? इस पूरे प्रकरण में क्या लोगों की धार्मिक आस्था बढ़ी है या न्यायिक सक्रियता ? यह संपूर्ण विवाद संवैधानिक आदर्शों, धार्मिक विश्वासों और वास्तविकताओं और तर्क संगततता के बीच अन्तर को पाटने की कोशिश करता है ।
आज भारत विभिन्नताओं मे एकता स्थापित करने वाला देश है । आने वाले समय में अब देखना यह है कि भारत विविधताओं और विभिन्नताओं में तर्क संगतता और एकरूपता कैसे स्थापित कर पता है या नहीं । यह भारत में अपने रीतिरिवाज को निभाने के लिए स्वतंत्रता और स्वायत्ता है या नहीं ? क्या यह मुद्दा आस्था का है या स्त्री पुरुष कि बराबरी का ? या न्यायिक स्वाधीनता का यह एक सोचनीय प्रश्न है।
(लेखिका दिल्ली विश्व विद्यालय में सहायक प्राध्यापिका हैं)