देश के राजनीतिक पटल पर चुनाव प्रबंधन के उस्ताद के रूप में अचानक प्रकट हुए प्रशांत किशोर की उस्तादी खतरे में है। उनके चुनावी फंडे फालतू साबित हुए और खाट बिछाने के बावजूद कांग्रेस की खटिया खड़ी खड़ी हो गई। आनेवाले दिन प्रशांत किशोर के लिए भारी संकट से भरे होंगे। कांग्रेस की करारी हार के बाद अब चुनावों में उन्हें कोई काम मिल जाए, तो उनकी किस्मत।
यूपी के चुनाव ने प्रशांत किशोर के पराभव की पटकथा लिख दी है। चुनाव के शर्मनाक नतीजों के बाद कांग्रेस तो क्या किसी भी राजनीतिक दल में अब उनके लिए कोई इज्जतदार जगह नहीं बची है। भविष्य में किसी राजनीतिक दल का कोई छोटा – मोटा काम मिल गया, तो उनके लिए बहुत बड़ी बात होगी। प्रियंका गांधी ने चलते चुनाव में ही उनसे किनारा कर लिया था, और सोनिया गांधी ने तो शुरू से ही उन्हें कोई भाव नहीं दिया। कांग्रेस के बड़े नेता अपने परंपरागत सेटअप में सैंध लगाने के कारण प्रशांत किशोर से पहले से ही दूरी बनाए हुए थे, मगर अब हार के बाद उनके सारे पैसे अटक गए हैं। कांग्रेस पर प्रशांत किशोर का बहुत बड़ा बिल बाकी है। चुनाव से पहले ही वे इसकी वसूली चाहते थे। लेकिन कांग्रेस मुख्यालय से मामला आगे सरकाया जाता रहा कि चुनाव हो जाने दीजिए, फिर कर लेंगे। मगर, अब उनका धंधा बंद होने की कगार पर है। कांग्रेस को अब समझ में आ रहा है कि राजनीति सिर्फ राजनीतिक तरीकों के जरिए ही साधी जा सकती है, नए नए फंडों से नहीं। और, चुनाव रणनीतिक कौशल से जीते जाते हैं, इवेंट मेनेजमेंट से नहीं।
राहुल गांधी को खाट सभाएं करने का नया फंडा पेश करनेवाले प्रशांत किशोर कांग्रेस की खटिया खड़ी करवानेवाले साबित हुए। कांग्रेस के सारे दिग्गज नेता तो पहले से ही कह रहे थे कि उनको जमीनी राजनीति की कोई समझ नहीं है, इसलिए उन पर बहुत भरोसा करने की जरूरत नहीं है। लेकिन राहुल गांधी को प्रशांत किशोर ने विश्वास में ले लिया था, सो उन्होंने अपने किसी भी नेता की नहीं सुनी। राहुल ने उन्हें को सर आंखों पर बिठा लिया था और जैसा प्रशांत किशोर कहते रहे, वैसा ही वे करते रहे। सो, अब भुगत भी रहे हैं। देश देख रहा है कि प्रशांत किशोर ने राहुल गांधी की राजनीति का सत्यानाश कर दिया, कांग्रेसियों का भट्टा बिठा दिया और यूपी में कांग्रेस को इतिहास की तस्वीरों में दर्ज होने के गर्त में धकेल दिया।
यूपी में कांग्रेस की ऐतिहासिक हार के बाद राजनीतिक दलों को अब समझ में आ जाना चाहिए कि विश्लेषण और सर्वेक्षण वगैरह करवाने तक तो प्रोफेशनल एजेंसियों से भले ही काम लिया जाना चाहिए। लेकिन पार्टी के अंदरूनी मामलों में उनका दखल कतई नहीं हो। प्रशांत किशोर ने सबसे बड़ी गलती यही की कि पार्टी की रणनीति बनाने से लेकर समाजवादी पार्टी से समझौता कराने और रैलियों की तारीख, जगह और वक्त तक तय करने का काम भी उन्होंने अपने हाथ में ले लिया। यहां तक कि गठबंधन में सीटों का बंटवारा, नेताओं के दौरे, भाषण के मुद्दे, रोड़ शो के रास्ते और टिकट बांटने तक में उन्होंने दखल देकर कई बड़े नेताओं को नाराज भी किया। यूपी के एक बड़े नेता ने तो चलते चुनाव में ही राहुल गांधी को यहां तक साफ साफ कह दिया था कि दशकों तक पार्टी की सेवा करनेवालों को भी अब क्या बाहरी लोगों के निर्देश पर ही चुनाव में हर काम करना होगा ?
चुनाव जितानेवाले उस्ताद के रूप में खुद को प्रचारित करने के बावजूद प्रशांत किशोर यूपी और उत्तराखंड में कांग्रेस को दिलासा देने लायक बहुमत तक नहीं दिला पाए। यूपी में कभी राज करनेवाली कांग्रेस के पास पिछली विधानसभा में 28 सीटें थीं। मगर उनकी सलाह पर रुपया पानी की तरह बहाने के बावजूद 403 में से कांग्रेस सिर्फ 7 विधायकों पर संतोष करने को मजबूर है। कुल 500 करोड़ में सिर्फ 7 विधायक। उधर, उत्तराखंड में भी केवल 15 विधायक जीते और खुद मुख्यमंत्री हरीश रावत की दो जगहों से हार भी वे नहीं बचा पाए। चुनाव तो पंजाब में भी थे, जहां कांग्रेस को भारी बहुमत मिला। मगर, वहां कैप्टन अमरिंदर सिंह ने प्रशांत किशोर तो पहले से ही अपने से बहुत दूर रखा था, और दिल्ली दरबार के बड़े से बड़े कांग्रेसी नेता का दखल भी नहीं स्वीकारा।
यह साफ हो गया है कि सिर्फ एक चुनाव जीतती हुई मजबूत पार्टी में ही प्रशांत किशोर के चुनावी फंडे काम आ सकते हैं। कमजोर और हारती हुई पार्टी को जिताने के लिए वे कुछ नहीं कर सकते। प्रशांत किशोर अपने बारे में 2014 के लोकसभा चुनाव और बिहार का उदाहरण रखते हैं। लेकिन उस लोकसभा चुनाव में देश में मोदी लहर थी और उसके बाद बिहार में भी नीतीश कुमार जब लालू यादव को अपने साथ लाए, तो बहुत मजबूत स्थिति में उभरे थे। दरअसल, लोकसभा चुनाव में नरेंद्र मोदी ने प्रशांत किशोर के ‘स्ट्रेटेजी बेस्ड पॉलिटिकल इवेंट्स सिस्टम’ का चुनावी उपयोग इसीलिए किया, क्योंकि ये इवेंट्स उनके विचारों, उनके कार्यक्रमों और उनकी प्रतिभा को प्रसारित और प्रचारित करने के लिए सहायक थे। लेकिन नरेंद्र मोदी के नेतृत्व में बीजेपी को मिली प्रचंड जीत का सेहरा प्रशांत किशोर ने अपने माथे बांधा था। पर, उस चुनाव में मोदी के मंसूबे बहुत ऊंचे थे, सो कौन क्या श्रेय ले रहा है, इसकी उनको कोई खास परवाह भी नहीं थी। और बीजेपी के किसी नेता ने तो विरोध इसलिए नहीं किया, क्योंकि तब प्रशांत किशोर तब सीधे मोदी के आदमी थे। मगर, केंद्र में सरकार बनते ही बीजेपी अध्यक्ष अमित शाह ने प्रशांत किशोर को दरवाजा दिखा दिया। तो बिहार का बेटा होने की दुहाई देकर प्रशांत किशोर नीतीश कुमार के साथ हो लिए। लेकिन अब उनसे यह सवाल क्यों नहीं किया जाना चाहिए कि बिहार में भी यूपी की तरह लालू यादव, नीतीश कुमार, कांग्रेस, और बीजेपी सारे अलग अलग चुनाव लड़ रहे होते, तो भी क्या वे नीतीश को बिहार में जिता पाते ? यूपी और उत्तराखंड में कांग्रेस की शर्मनाक हार ने यह साबित कर दिया कि पेशेवर सलाहकारों की सलाहों पर किसी राजनीतिक दल के लिए चुनाव जीतना संभव नहीं है। अब तक के इतिहास की सबसे शर्मनाक हार से कांग्रेस को तो फिर से खड़ा होने में सालों लगेंगे ही, प्रशांत किशोर की दुकान भी बंद हो जाएगी। न हो तो कहना।