देश में लोकसभा चुनाव हों और पाकिस्तान की इंट्री न हो ऐसा बहुत कम ही देखा गया है। पाकिस्तान के चुनाव में भी प्रायः भारत विशेषकर कश्मीर का मुद्दा उठाया जाता है। दोनों जगह इसका मक़सद एक ही होता है कि जनता का ध्यान 'कथित राष्ट्रवाद ' में उलझाकर उसे रोज़गार,मंहगाई,शिक्षा,स्वास्थ्य तथा मूलभूत सुविधाओं के बारे में सोचने व चर्चा करने का मौक़ा ही न दिया जाये। इस बार स्वयं प्रधानमंत्री ने अपने भाषणों में पाकिस्तान को ज़ोर शोर से याद किया है। दरअसल पाकिस्तान में इमरान ख़ान सरकार के एक पूर्व मंत्री रहे चौधरी फ़वाद हुसैन ने यह कह दिया कि पाकिस्तान को राहुल गांधी का समर्थन करना चाहिए क्योंकि मोदी सरकार की नीतियां पाकिस्तान के ख़िलाफ़ हैं । हालांकि फ़वाद उस हद तक भी नहीं गये जैसे कि प्रधानमंत्री मोदी ने अमेरिका जाकर 'अब की बार ट्रंप सरकार' का नारा तक लगवा दिया था। हालांकि चौधरी फ़वाद हुसैन के इस बयान पर राहुल गाँधी या कांग्रेस द्वारा कोई प्रतिक्रिया व्यक्त नहीं की गयी है। परन्तु प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने उनके इसी बयान को आधार बना कर बात का बतंगड़ खड़ा करने की कोशिश ज़रूर की है। वे चुनावी जनसभाओं में कहते फिर रहे हैं कि "पाकिस्तान ‘कांग्रेस के शहज़ादे’ को प्रधानमंत्री बनवाना चाहता है"। मोदी कहते हैं कि ‘कांग्रेस मरी, तो पाकिस्तान रोया’। अब पाकिस्तान दुआ कर रहा है। कांग्रेस के शाही परिवार के शहज़ादे को प्रधानमंत्री बनाने के लिए पाकिस्तान उतावला हो रहा है।" प्रधानमंत्री मोदी का इशारा पाते ही पूरे देश में भाजपाई 'सेनापति' राहुल और कांग्रेस पर हमलावर हो उठे हैं और कांग्रेस को पाकिस्तान परस्त बताने की पुरज़ोर कोशिश होने लगी है। ऐसे में कांग्रेस व भाजपा व उनके नेताओं के पाकिस्तान से रिश्तों का तुलनात्मक अध्ययन किया जाना बेहद ज़रूरी है।
ग़ौर तलब है कि भारत पाकिस्तान के मध्य अब तक चार युद्ध हुये हैं। इनमें पहला युद्ध आज़ादी के फ़ौरन बाद 1948 में लड़ा गया जिसका केंद्र कश्मीर था। उसके बाद 1965 में दूसरा युद्ध हुआ जबकि 1971 में वह तीसरा ऐतिहासिक युद्ध हुआ जिसने विश्व का भूगोल बदल दिया। इसी युद्ध में पाकिस्तान के दो टुकड़े हुए व बांग्लादेश नामक नये राष्ट्र का जन्म हुआ। यह तीनों ही युद्ध कांग्रेस के शासनकाल में लड़े गये। जबकि 1999 में एन डी ए के शासनकाल में अटल बिहारी वाजपई के प्रधानमंत्रित्व काल में ऑपरेशन विजय नामक कारगिल युद्ध, मई और जुलाई 1999 के बीच लड़ा गया। इस युद्ध में पाकिस्तान की सेना ने कश्मीरी उग्रवादियों के वेश में उनसे मिलकर नियंत्रण रेखा पार करने और भारत की ज़मीन पर कब्ज़ा करने का दुस्साहस किया था। उपरोक्त सभी युद्ध में पाकिस्तान को भारतीय सेना के हाथों मुंह की खानी पड़ी थी। परन्तु पाकिस्तानी सरकार विशेषकर पाक सेना को 1971 का वह युद्ध भुलाये नहीं भूलता जिसने न केवल पाकिस्तान का नक़्शा बिगाड़ दिया बल्कि इसी युद्ध में पाकिस्तानी सेना द्वारा भारतीय सेना के समक्ष विश्व का अब तक का सबसे बड़ा सैन्य आत्म समर्पण भी करना पड़ा था। अपनी उसी टीस को मिटने के लिये पाकिस्तान आज तक भारत विरोधी साज़िशें यहाँ तक कि भारत में आतंकवाद तक को प्रायोजित करता रहता है। लिहाज़ा यह प्रचारित करना कि पाकिस्तान कांग्रेस का हितैषी है सरासर दुष्प्रचार के सिवा और कुछ नहीं।
परन्तु इसी सन्दर्भ में भाजपा नेताओं विशेषकर स्वयं प्रधानमंत्री मोदी के पाकिस्तान के प्रति उदारतापूर्ण बर्ताव की बात करना भी ज़रूरी है। याद कीजिये जून, 2005 में भारतीय जनता पार्टी के तत्कालीन अध्यक्ष लालकृष्ण आडवाणी पाकिस्तान के संस्थापक नेता क़ायदे आज़म मोहम्मद अली जिन्ना की कराची स्थित मज़ार पर श्रद्धांजलि देने गये थे। उसी समय वे पाकिस्तान के प्रथम प्रधानमंत्री लियाक़त अली ख़ान की मज़ार पर भी श्रद्धांजलि देने गये थे। इस दौरान आडवाणी ने जिन्ना को धर्मनिरपेक्ष नेता बताते हुए कहा था कि वह एक अलग शख़्सियत थे तथा उन्होंने इतिहास बनाया था। उस समय संघ व भाजपा में तो आडवाणी के इस क़दम का विरोध ज़रूर हुआ था मगर कांग्रेस ने चुनाव में इसे मुद्दा कभी नहीं बनाया गया।
उसके बाद मई 2014 में जब नरेंद्र मोदी पहली बार प्रधानमंत्री बने उस समय उन्होंने दक्षेस देशों के प्रमुखों को अपने शपथ ग्रहण कार्यक्रम में आमंत्रित किया। इसमें पाकिस्तान के प्रधानमंत्री नवाज़ शरीफ़ भी भारत आए थे । उस समय प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने शरीफ़ को उनकी मां के लिये एक शॉल भेंट किया था । शरीफ़ जब वह बेशक़ीमती शॉल लेकर पाकिस्तान पहुंचे तो उनकी बेटी मरियम शरीफ़ ने इस तोहफ़े के लिए मोदी का शुक्रिया अदा किया। मरियम ने टि्वटर पर लिखा, 'मेरी दादी के लिए इतना बढि़या शॉल गिफ़्ट करने के लिए आपको बहुत-बहुत धन्यवाद, प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी। मेरे पिता ने खुद अपने हाथों से यह तोहफ़ा दादी को दिया।' इस के फ़ौरन बाद जून 2014 के प्रथम सप्ताह में ही नवाज़ शरीफ़ ने भी प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की मां के लिए तोहफे में 'रिटर्न गिफ़्ट ' के रूप में एक क़ीमती साड़ी भेजी। उस समय मोदी ने भी ट्वीट किया था -' कि नवाज़ शरीफ़ ने मेरी मां के लिए शानदार सफ़ेद साड़ी भेजी है। मैं उनका आभारी हूं। जल्द ही मैं साड़ी अपनी मां के पास भेज दूंगा।'और उसी दिन देर शाम तक शरीफ़ का ये क़ीमती तोहफ़ा मां हीराबेन तक पहुंच भी गया था । इस तोहफ़े के लिए नरेंद्र मोदी ने उस समय प्रधानमंत्री नवाज़ शरीफ़ का शुक्रिया भी अदा किया था। पड़ोसी देश के साथ आत्मीयता और क़ीमती तोहफ़ों के लेनदेन की ऐसी मिसाल कांग्रेस के शासनकाल में तो कभी नहीं सुनाई दी?
नरेंद्र मोदी व शरीफ़ के बीच आत्मीयता के रिश्ते की यही एक कहानी नहीं। याद कीजिये 25 दिसंबर, 2015 को जब वो पहली बार नवाज़ शरीफ की पोती के निकाह में शामिल होने के लिये बिना किसी पूर्व घोषित कार्यक्रम के पाकिस्तान पहुंच गये थे। उस दिन वो शरीफ की पोती की निकाह में भी शामिल हुए थे। उस समय मोदी ने नवाज़ शरीफ को अफ़ग़ानिस्तानी गुलाबी साफ़ा भी तोहफ़े में दिया था, जिसे शरीफ़ ने उसी समय विवाह समारोह में पहना भी था। तो क्या आडवाणी या मोदी का पाकिस्तान के प्रति दोस्ताना व सद्भावपूर्ण रवैया सौहार्द बनाने की कोशिश माना जाये और पाकिस्तान की नज़रों में हमेशा खटकने वाली कांग्रेस पार्टी को पाकिस्तान परस्त ? 2015 में अमित शाह बिहार चुनाव के दौरान कहते फिरते थे कि यदि लालू -नितीश का महागठबंधन चुनाव जीता और भाजपा हारी तो पाकिस्तान में पटाख़े फूटेंगे। आज वही नितीश कुमार भाजपा के साथ हैं तो क्या अब नितीश की जीत पर पाकिस्तान में पटाख़े नहीं फूटेंगे ? अवसरवादिता और राजनैतिक शातिरपने की भी आख़िर कोई इन्तेहा होती है ? सच तो यह है कि कांग्रेस व भाजपा के नेताओं के पाकिस्तान से रिश्तों के रिकार्ड ख़ुद इस बात के गवाह है कि पाकिस्तान किसका दोस्त है और किसका दुश्मन ?