हजारों-हजार सालों का हिन्दी का समृद्धशाली इतिहास और गौरवशाली वर्तमान जिस पर सम्पूर्ण विश्व अपना समाधान खोजता है। बात यदि गीता और रामायण जैसे धर्मग्रंथों की हो या आदिवासी या दलित विमर्श की हो, इतिहास के मोहनजोदड़ों संस्कृति की हो चाहे सभ्यता के युगपरिवर्तन की। विश्व जितना भारत को जान पाया है वो बदौलत हिन्दी साहित्य ही है जिसका प्रसार और प्रभाव विश्व की अन्य भाषाओँ में अनुवाद से हुआ है। हर व्यावहारिक, सामाजिक और सांस्कृतिक समस्याओं का समाधान हिन्दी साहित्य में उपलब्ध है। परन्तु हिन्दी जिस दिशा में आज जा रही है वो हिन्दी के लिए ही खतरा पैदा कर रहा है।
वर्तमान समय विपणन या कहे प्रचार-प्रसार का है, जिसमें एक छोटी-सी चाय उत्पादक या विपणन संस्थान भी जब बाजार में अपना उत्पाद लाती है, तो उसके लिए एक मार्केटिंग योजना बनाती है। और उत्पाद कितना भी अच्छा हो उसके लिए वर्तमान दौर में एक अच्छी मार्केटिंग योजना का क्रियान्वन अधिक मायने रखता है, बिना श्रेष्ठ मार्केटिंग और प्रचार-प्रसार के सोना या हीरा भी ज्यादा ग्राहकों तक नहीं पहुँचाया जा सकता। तब तो समय या कहें बाजार की मांग के अनुसार पैकेजिंग और ब्रांडिंग के युग में यह बात हर महत्वपूर्ण उत्पाद, योजना, भाषा, व्यक्ति और कंपनी पर लागू होती है।
हिन्दी भाषा भी वर्तमान में समृद्धशाली तो है परन्तु बड़े और झंडाबरदार लोगो के व्यामोह से ग्रसित भी है। हिन्दी का शाश्वत और क्षमतावान साहित्य वैश्विक पटल के साथ-साथ हिंदुस्तान में भी प्रचार और प्रसार मांगता है। हिन्दी के पास अधिक संभावनाशील और ऊर्जावान साहित्यकार तो है परन्तु उनका प्रबंधन और विपणन (मार्केंटिंग) का दायरा कमजोर होने से हिन्दी के रचनाकारों का पेट अंग्रेजी के रचनाकारों की अपेक्षा अमूमन खाली ही नज़र आता है। भारत की लगभग ५० करोड़ से अधिक आबादी आज हिन्दी को अपनी प्रथम भाषा मानती तो है, परन्तु उसकी साहित्यसर्जना युवा पीढ़ी से उतनी दूर भी होते जा रही है, यह कटु सत्य है।
देशभर में हो रहे हिन्दी के आयोजनों, साहित्य उत्सवों, लिटरेचर फेस्ट, पुस्तक मेला, गोष्ठी, परिचर्चा और टीवी चैनलों आदि में जब हिन्दी साहित्य का पक्ष रखा जाता है तो सबसे पहले तो आयोजकों को इस व्यामोह से बाहर निकलना होगा कि फलाँ नाम बड़ा है, बड़े लोग है आदि। उसे ये देखना चाहिए कि किसने कितना काम हिन्दी भाषा के लिए किया है, किस क्षेत्र में किया है, उसका अध्ययन का दायरा कितना है और उसके पास समाज को चिंतन देने के लिए कितना विस्तारित क्षेत्र है। चूँकि इस दिशा में हिन्दी के साहित्यकारों और झंडाबरदार जो हिन्दी की चिंता कर रहे है उन्हें ज्यादा ध्यान देकर प्रवक्ताओं की फौज तैयार करना होगी जो सार्थक मंचों पर हिन्दी का पक्ष रख सके।
एक अच्छे प्रवक्ता के अभाव में हिन्दी के गुण-व्याकरण से समाज अपरिचित-सा रह जाता है और जानकारी का अभाव हिन्दी को अंग्रेजी या अन्य भाषा से बौना सिद्ध करता है। वैसे ही जैसे इस राष्ट्र में राजनैतिक समीकरणों और योजनाओं के साथ-साथ सरकार के अच्छे-बुरे काम या विपक्ष का मंतव्य रखने के लिए, टेलीविजन कार्यक्रमों में बैठे प्रवक्ताओं का अध्ययन ही उस दल का सटीक और व्यावहारिक पक्ष रखता है।
हिन्दीभाषा के प्रचार-प्रसार हेतु देश में कई संस्थान सक्रियता से कार्य कर रहे है, कोई पेट की भाषा बनाने पर जोर दे रहा है तो कोई राष्ट्रभाषा, कोई साहित्य में शुचिता की बात कर रहा है तो कोई नवांकुरों के प्रशिक्षण की। इन संस्थानों में अग्रणी नागरी प्रचारिणी सभा, मातृभाषा उन्नयन संस्थान, वैश्विक हिन्दी सम्मेलन, भारतीय भाषा सम्मलेन आदि है, इन संस्थानों को जिम्मेदारीपूर्वक हिन्दी के प्रवक्ताओं को तैयार करना होगा, जिनके व्याख्यान, उद्बोधन, आलेख और समाचार चैनलों पर हिन्दी का पक्ष रखने के तरीकों से हिन्दी का व्यापक प्रचार-प्रसार संभव है।
केवल कविता या कहानी लिखने मात्र से हिन्दी भाषा का सम्मान बने या बरकरार रहे ये संभव कम है। हिन्दी को जनभाषा के तौर पर स्थापित करने लिए सर्वप्रथम हिन्दी के गूढ़ समाधान परक साहित्य को जनमानस के बीच सरलता से पहुँचाना होगा। जो काम हिन्दी के प्रवक्ता बखूबी कर सकते है।
यदि इस दिशा में कार्य किया जाये तो हर नगर, जिला और प्रान्त से हिन्दी के प्रवक्ताओं को तैयार किया जा सकता है। उन्हें वरिष्ठजनों के मार्गदर्शन में अधिक सक्षमता से तैयार किया जा सकता है। उन्हें विस्तृत अध्ययन हेतु प्रेरित करके हिन्दी का पक्ष रखने के लिए जनता के बीच भेजा जा सकता है। क्योंकि वर्तमान बाजार विपणन (मार्केटिंग) आधारित है। और हिन्दी के प्रवक्ताओं की मांग भी बाजार आधारित है तभी हिन्दी का सर्वोच्च सदन हिन्दी के यशगान में अग्रणी हो सकता है। अन्यथा बेहतर मार्केटिंग के अभाव में हिन्दी क्षणे-क्षणे बाजार से गायब ही हो जाएगी।