माँ समर्थता के साथ सार्थकता की पूंजी समेटे हुए, तरंग आभामंडल की भाँति सौंदर्य की अनुपम कृति, जिसमें भावना का अथाह सागर भी समाया है तो सर्वस्व अर्पण करती हुई ममता का अंबर भी | जिसकी आराधना से आसक्ति के तिमिर मिटते जाते हैं, जिसके गीत भ्रमर गुंजन की भांति कानों की खनक बने हुए है, जो त्याग की प्रतिमूर्ति समान सहज, सुंदर, और यथार्थ के धरातल का आलोक भी है | जिसके कारण ही परम सत्ता के अनूठे सृजन का गौरव भी स्थापित होता है | वही जिसे लोग करुणामयी, सौभाग्यशाली, ममतामयी, मार्मिक और पूजनीय के नाम से पुकारते है, वहीं जो स्थापित सर्वस्व का आधारभूत स्तंभ है, वहीं जो संकल्प की सहजता का प्रतिमान है, वहीं जो स्वार्थ से परे केवल समाज का रंग है, लोग जिसे नारी, महिला, स्त्री, देवी, चपला, चंचला तमाम उपमानों से पुकारते हुए ईश् कृति का धन्यवाद ज्ञापीत करते है, वहीं समाज के रंगों के एकत्रीकरण का तार्किक कारण भी है |
कहा भी जाता है क़ि जिसको बना कर परमात्मा भी स्वयं के हाथों को निहारते नहीं थका, और यकायक उसने भी स्वयं को धन्यवाद सहित उसे देवी के रूप में स्वीकार्यता देते हुए धरती पर असल सृजन का अधिकार दिया है | यक़ीनन ईश्वर की इस अनमोल कृति में हर संबंध, रिश्ते, भावना , समाज, संघर्ष, सत्ता,और सर्वस्व है | सहज रूप से परमात्मा के अनूठे गौरव के स्वागत की परंपरागत हकदार केवल नारी ही है|
जिसकी कल्पना मात्र से जीवन के अगणित अध्याय सिल-सिलेवार दृष्टिपटल पर नृत्य भैरवी का आव्हान करते हुए नाचनें लगते है, उस स्त्री का ज़रा-सा प्रकाश जड़ जीवन में चैतन्यता का बोध करा देता है, संसार की सामंजस्यता की अकेली यौद्धा, नमन-वंदन अभिनंदनीय है |
…एक दर्द यह भी,
हर रूप में स्वीकारी जाने वाली नारी निर्बाध गति से संघर्ष भी करती है तो सृजन भी, इन्ही सब के बाद भी उपेक्षित-सी | ‘यत्र नार्यस्तु पूज्यन्ते रमन्ते तत्र देवता:’ की आध्यात्मिक ताक़त वाला राष्ट्र जिसकी रगों में नारी का सम्मान बसा हुआ है, किंतु दुर्भाग्य इस कलयुगी पौध का जो यौवन के मदमास में अपने गौरवशाली इतिहास की किताबो को कालिख पोतते हुए अपमान के नए अंगवस्त्र तैयार कर रही है, वो भूल गई 'यत्रैतास्तु न पूज्यन्ते सर्वास्तत्रफला: क्रिया’ अर्थात जिन घरों में स्त्रियों का अपमान होता है, वहां सभी प्रकार की पूजा करने के बाद भी भगवान निवास नहीं करते हैं।
आध्यात्मवाद के सहारे जिंदगी जीने वाले राष्ट्र की वैचारिक नस्ल तमाम सारे प्रयासों के बावजूद भी वही मानसिकता के बोझ के तले दबी हुई है जो उसे आज भी आज़ादी के पहले के हालातों से घेर कर कुत्सित रखती है |
बदलाव की आशा स्वयं से होकर गुजरती है, महज मानसिकता में बदलाव आवश्यकता है, वर्तमान में स्त्री कंधे से कंधा मिलकर तो चल ही रही है, बस पौरुष यदि थोड़ा-सा समय के साथ स्त्री को भी समाज की सार्थकता से रूबरू करवाते हुए सम्मान दे दे तो सारी समस्याओं की जड़ ही समाप्त हो जाएगी |