दुनिया में कहीं भी जब महिलाओं की स्वतंत्रता या उनके अधिकारों की चर्चा छिड़ती है उस समय दुनिया के पुरुषों द्वारा ही सबसे ज़्यादा महिलाओं का महिमांडन करते हुये यह बताने की कोशिश की जाती है कि उनके देश व समाज में किस तरह महिलाओं को स्वतंत्रता हासिल है। कहीं महिलाओं के रुतबे को बढ़ाने के लिये उसे देवी तक का रूप बता दिया जाता है कोई सेना ,जल सेना व वायुसेना में महिलाओं की भर्ती पर इतराता है कोई साधु संत या धर्माधिकारी की गद्दी पर महिला को बिठाकर यह सन्देश देता है कि महिलायें भी पुरुषों के समान हैं। कहीं राजनीति में नाममात्र प्रतिनिधित्व देकर व्यवस्था में महिलाओं की भागीदारी होने का ढिंढोरा पीटा जाता है। गोया पुरुष प्रधान समाज ही इस बात का श्रेय लेने के लिये भी आतुर दिखाई देता है कि देखो- हमने महिलाओं को अमुक अमुक अधिकार प्रदान किये हैं। इतना ही नहीं जब कभी किसी धर्म या जाति विशेष की इस बात के लिये आलोचना होती है कि वहां महिलाओं को आज़ादी नहीं है या उनके अधिकारों का हनन होता है तो उस धर्म जाति विशेष के धर्मगुरु व चिंतक सामने आकर अपने धर्मग्रंथों के कुछ उदाहरण प्रस्तुत कर यह बताने की कोशिश करते हैं कि महिलाओं को इनके समाज ने जितनी आज़ादी दी उतनी किसी दूसरे धर्म या समाज में नहीं।
सवाल यह है कि 'आधी आबादी' के बारे में पुरुषों में बचपन से ही यह धारणा किस आधार पर विकसित की जाती है कि उसके बारे में कोई भी निर्णय लेने का अधिकार प्रायः उसके परिवार के पुरुष समाज को ही है स्वयं महिलाओं को नहीं ? एक लड़की बचपन में ही जब कहीं जाना चाहती है तो उसके साथ कोई पुरुष सदस्य भेजा जाता है। वह कहाँ जाये और कहाँ न जाये यह उसके परिवार का पुरुष तय करता है। बच्ची जब युवावस्था में क़दम रखती है तो इसी पुरुष समाज द्वारा अपनी धार्मिक परंपराओं व रीति रिवाजों का वास्ता देकर उस पर हिजाब व नक़ाब की पाबन्दी लगाई जाती है। जैसे ही वह इसपर अमल करती है वह दूसरे धर्म व समाज के पुरुषों की नज़रों में 'अतिवादी ' नज़र आने लगती है। ये वर्ग इन लड़कियों से हिजाब उतार फेंकने की ज़िद पर अड़ जाता है। यहाँ तक कि इस विषय को राजनैतिक तूल देकर इसे सांप्रदायिक रंग दिया जाने लगता है। किसी लड़की को स्कूल स्तर तक की शिक्षा लेनी है या कॉलेज जाना है यह भी लड़की नहीं उसके परिवार के पुरुष तय करते हैं।
पुरुषों की इन्हीं बंदिशों,निर्देशों यहाँ तक कि तरह तरह की मानसिक प्रतारणाओं का सामने करते हुये जब यही लड़की विवाह योग्य होती है तो प्रायः उसके जीवन साथी चुनने का निर्णय भी उसके परिवार के पुरुष मुखिया या अभिभावक ही लेते हैं। जबकि ज़िन्दिगी उस लड़की को गुज़ारनी है परन्तु किसके साथ गुज़ारनी है यह लड़की तय नहीं कर सकती। ज़ाहिर है अभिभावक व परिजन अपने संभावित दामाद में जो विशेषतायें तलाश रहे हों वही विशेषतायें लड़की भी तलाश करे यह ज़रूरी नहीं। परन्तु आम तौर पर लड़की पर उसके अभिभावक की पसंद ही थोपी जाती है। और यदि किसी लड़की ने अपने साहस व विवेक का प्रयोग करते हुये अपनी पसंद के किसी लड़के से शादी करने का साहस कर भी लिया तो हमारा यही पुरुष समाज उसे किस गति तक पहुंचा देता है यह किसी से छुपा नहीं है। आये दिन हमारे देश में 'ऑनर किलिंग ' के नाम से होने वाली हत्याओं की ख़बरें आती रहती हैं। और बड़े गर्व से ऐसी हत्याओं को 'ऑनर किलिंग ' का नाम भी दिया जा चुका है।
युवक-युवतियों के परस्पर प्रेम प्रसंग के क़िस्से संभवतः पृथ्वी के अस्तित्व में आने के बाद से ही प्रचलित होने लगे थे। संतों देवताओं ऋषि मुनियों से लेकर पैग़ंबरों व महापुरुषों तक से जुड़ी अनेक दास्तानों में ऐसे क़िस्से सुनने व पढ़ने को मिलते हैं। परन्तु आज यदि कोई युवती अपनी इच्छानुसार अपने किसी प्रेमी युवक से मिलने या उसके साथ घूमने फिरने की इच्छुक हो तो उसे उस अतिवादी व उपद्रवी पुरुष समाज की प्रताड़ना व उनके लठ का सामना करना पड़ता है जो एक दुसरे को जानते ही नहीं। उन उपद्रवियों का पूर्वाग्रह इसी बात को लेकर होता है कि ऐसे प्रेमी उनकी संस्कृति व सभ्यता के दुश्मन हैं। तो क्या किसी युवती को प्रताड़ना देना उसे अपमानित करना किसी सभ्य समाज की संस्कृति व सभ्यता का हिस्सा माना जा सकता है।
जब हम अपनी संस्कृति व सभ्यता की तुलना पश्चिमी देशों की संस्कृति-सभ्यता से करते हैं तो हमें उसमें पाश्चात्य सभ्यता के नाम पर केवल 'नंगापन' ही दिखाई देता है। क्योंकि शायद हमारी नज़रें शरीर के नंगे हिस्से के आगे कुछ देखना ही नहीं चाहतीं। हमें उसकी योग्यता,उसके गुण,उसकी शिक्षा उसकी वैज्ञानिक व आधुनिक सोच जैसे तमाम गुण नज़र नहीं आते। तो क़ुसूर उसके नंगे शरीर का है या पुरुषों की संकीर्ण नज़रों का ? मज़े की बात तो यह है कि यही पुरुष समाज जिसे पाश्चात्य सभ्यता में नंगापन दिखाई देता है वही पुरुष समाज अपने कथित 'सांस्कृतिक व सभ्यतावादी ' देश में महिलाओं के लिये कितना मान सम्मान रखता है यह पूरी दुनिया को पता है। बलात्कार और जघन्य व क्रूरतापूर्ण बलात्कार के ऐसे ऐसे क़िस्से हमारे देश में सुनने को मिलते हैं जिन्हें सुनकर रूह काँप उठती है। दो महीने की बच्ची से लेकर 85 वर्ष की अति वृद्ध महिला तक को हमारे 'सभ्यतावादी ' पुरुष नहीं बख़्शते। यहाँ बाप और भाई की गोद में बेटी बहन सुरक्षित है या नहीं इस बात की कोई गारंटी नहीं है। परन्तु संस्कार,भाषण और योजनाओं के ढिंढोरे व दिखावे में बेटी देवी भी है,पूज्य भी है,बेटी बचाओ बेटी पढ़ाओ के नारे भी हैं।
लिहाज़ा महिलाओं पर शिकंजा कसने की प्रवृति छोड़कर पुरुष समाज को अपनी सोच,विचार,संकुचित मानसिकता, बदलने की ज़रुरत है। जब महिलाओं को इस बात में कोई आपत्ति या दख़ल नहीं कि कोई पुरुष साधू या नागा क्यों बनता है,कोई अपने लिंग की पूजा क्यों करवाता है,कोई जटा या दाढ़ी क्यों रखता या नहीं रखता है,कोई कितनी पत्नियां रखता है,कोई शाकाहारी या मासांहारी क्यों है,कोई क्या खाता पीता है कहाँ आता जाता है फिर आख़िर सारी बंदिशें व निगरानियाँ महिलाओं के लिये ही क्यों। वैसे भी यदि हम किसी पूर्वाग्रह के बिना निष्पक्ष तरीक़े से सोचें व अपनी खुली नज़रों से देखें तो हम यही पायेंगे कि जिन जिन देशों में महिलायें अपने बारे में कोई भी निर्णय लेने के लिये स्वतंत्र हैं वही देश व समाज तरक़्क़ी भी कर रहा है। और जहां जहां अतिवादी व रूढ़िवादी पुरुष समाज महिलाओं पर अपना वर्चस्व बनाये हुये है वही देश व समाज लगभग सभी क्षेत्रों में पिछड़ा तो है ही,साथ साथ उन्हीं जगहों पर महिलाओं के साथ ज़ुल्म,अत्याचार व बर्बरता की ख़बरें भी अधिक सुनाई देती हैं। लिहाज़ा यदि देश व समाज को आधुनिक समयानुसार आगे ले जाना है तो पुरुषों को स्वयं पर नियंत्रण रखना होगा अपनी विकृत सोच बदलनी होगी। साथ ही विश्व की 'आधी आबादी ' को भी कुछ अपने व अपने भविष्य के लिये तय करने का अवसर देना ही होगा।