ख़ाली डब्बा – लुटते लोग

                                                                  

कभी कभी अपने बुज़ुर्गों की दूरदर्शिता के बारे में सोचकर बहुत आश्चर्य होता है। 1968 में रिलीज़ हुई मुंबई सिनेमा की सुपरहिट फ़िल्म 'नीलकमल' में साहिर लुधियानवी के लिखे गीतों में एक प्रमुख एवं लोकप्रिय गीत था 'ख़ाली डिब्बा खाली बोतल, ले ले मेरे यार – ख़ाली से मत नफ़रत करना ख़ाली सब संसार'। साहिर लुधियानवी द्वारा 55 वर्ष पूर्व लिखे गये इस गीत के एक एक शब्द आज अक्षरशः सही साबित हो रहे हैं। जिस तरह बाज़ार में मिलावट ख़ोरी का बोलबाला है। आटा से लेकर मिर्च मसाला ,दूध घी सब कुछ बाज़ार में असली कम परन्तु मिलावटी अधिक उपलब्ध है, इस गीत में इन सभी वास्तविकताओं पर तफ़सील से रौशनी डाली गयी है। और इसी गीत का मुखड़ा यानी 'ख़ाली डब्बा' ये तो न केवल लगभग सौ प्रतिशत चरितार्थ हो रहा है बल्कि लूट खसोट की यह व्यवसायिक मानसिकता फ़ैशन का रूप भी धारण कर चुकी है।आज आप खाने पीने के किसी भी बड़े से बड़े ब्रांडेड आउटलेट पर चले जायें या फिर इलाक़े की प्रसिद्ध मिठाई की दुकानों या बेकरी आदि पर, आपको लगभग हर जगह बड़े और वज़नी डिब्बे मिलेंगे। इन डिब्बों को दुकानदार सरे आम हज़ारों रूपये प्रति किलो की मिठाई के साथ तोलता है। डब्बों के अंदर गत्ते की ही लाइनें इस तरह विभाजित कर दी जाती हैं ताकि उनमें कम से कम मिठाई आये परन्तु देखने में डिब्बा भरा लगे। इसी तरह हज़ारों रूपये क़ीमत के गिफ़्ट पैक में थोड़ी सी काजू किशमिश  या बादाम आदि रख कर दो तीन गत्ते के डिब्बे या बोतलों में आधा भरकर गत्ते के बड़े,सुन्दर व भारी भरकम डब्बों में पैक कर लैमिनेट कर दिया जाता है ताकि ग्राहक या उपभोक्ता उसे जल्दी खोलने की कोशिश भी न करे और अपने घर जाकर ही खोले। फिर चाहे जश्न मनाये या अपना सिर पीटे, परन्तु अपनी जेब ज़रूर दुकानदार को झाड़ता जाये। यहाँ यह बताना भी ज़रूरी है कि सरकार की तरफ़ से त्यौहारों के समय मिष्ठान विक्रेताओं को प्रायः यह निर्देश दिये जाते हैं कि वे मिठाई के साथ डिब्बे का वज़न न करें। इसके लिये क़ानून भी बनाये गए हैं। परन्तु लगभग पूरे देश में मिष्ठान दुकानदार धड़ल्ले से मिठाई की क़ीमत पर ही गत्ता भी तौल रहे हैं। और अफ़सोस तो यह कि इन भ्रष्ट दुकानदारों की हौसला अफ़ज़ाई भी उपभोक्ताओं का वही बड़ा नव धनाढ्य वर्ग कर रहा है जो स्वयं को लुटता देख कर भी ख़ामोश रहने में ही अपनी 'रईसी की शान' समझता है।   

इसी तरह पूरे बाज़ार में तरह तरह के चिप्स,कुरकुरे और न जाने क्या क्या खाद्य पदार्थ आदि उपलब्ध हैं। इन सभी में माल से अधिक हवा भरी रहती है। इन पाउच के अंदर क्या है यह किसी को पता नहीं चलता क्योंकि इनके दोनों और गूढ़े रंगों में कंपनी अपने ट्रेड मार्क, नाम आदि छापती है। जबकि क़ायदे से एक ओर पारदर्शी पन्नी होनी चाहिये ताकि ग्राहक को पता चल सके कि जिस खाद्य सामग्री को वह ख़रीद रहा है उसकी रंगत,शक्ल सूरत और स्थिति कैसी है। चीन में ज़्यादातर पाउच एक ओर छपे हुये होते हैं और दूसरी तरफ़ पारदर्शी । क्योंकि वहां उपभोक्ता हितों का ध्यान रखा जाता है। हमारे देश में उपभोक्ताओं के हितों की कोई फ़िक्र नहीं जबकि उपभोक्ता हितों का संरक्षण करने वाले तमाम क़ानून भी मौजूद हैं। देश में उपभोक्ता दिवस भी मनाया जाता है और देश भर में उपभोक्ता अदालतें भी मौजूद हैं। 

 कुछ दिन पूर्व देश में इस समय तेज़ी से फैल चुकी एक विदेशी बेकरी कंपनी द्वारा बेचा जाने वाला एक बिस्कुट का डिब्बा हाथ लगा। इस कंपनी का केक,पेस्ट्री,बन,ब्रेड आदि ख़रीदना लोग अपना स्टेट्स सिंबल समझते हैं। मात्र 250 ग्राम बिस्कुट के इस गोल प्लास्टिक के डिब्बे की क़ीमत थी लगभग एक हज़ार रूपये। इस डिब्बे में एक एक बिस्कुट (कुकीज़ ) अलग अलग पन्नी में सील था। इसकी क़ीमत देखकर स्वभावतः इस बात का गुमान हुआ कि हो न हो यह बिस्कुट निहायत ही लज़ीज़ व असाधारण होगा। परन्तु यक़ीन जानिये कि वह बिस्कुट स्वाद में न तो मीठा था न ही ख़स्ता न ही क्रंची। चबाने के बाद दांतों व मसूड़ों में चिपक ज़रूर रहा था। यानी हमारे देश की साधारण बेकरियों पर इससे दस गुना कम क़ीमत पर इससे भी स्वादिष्ट व ताज़े बिस्कुट उपलब्ध हैं। फिर सहसा मस्तिष्क में यह प्रश्न भी उठा कि यदि मुझ से इसी लगभग चार हज़ार रूपये क़ीमत वाले फीके व स्वादहीन बिस्कुट का गुणगान करने के लिये कहा जाये तो मुझे क्या लिखना चाहिये। सहसा इस व्यावसायिक पाखण्ड पर पर्दा डालने में आज के प्रचलित बहाने ज़ेहन में आये। यानी -"चार हज़ार रूपये किलो वाला अमुक विदेशी बेकरी का यह बिस्कुट आपको रखे शुगर फ़्री और सिर्फ़ शुगर फ़्री ही नहीं बल्कि आपको रखे कोलेस्ट्रॉल फ़्री भी"। ज़ाहिर है जब बिस्कुट में चीनी ही नहीं पड़ेगी तो शुगर फ़्री होना ही है और जब घी नहीं डाला जायेगा तो कोलेस्ट्रॉल फ़्री भी होगा। सवाल यह है कि जब इसमें न तो घी है न ही चीनी फिर आख़िर इसका मूल्य इतना अधिक क्यों ? ऐसा इसलिये कि यह ब्रांडेड है,और ब्रांड ही बिकता है,इसी बेकरी के थैले हाथों में लटका कर उपभोक्ता का स्टेटस सिम्बल परवान चढ़ता है। यहां आपको यह भी बताते चलें कि इसी बेकरी के केक,बिस्कुट आदि चार हज़ार रूपये से कहीं ज़्यादा क़ीमत के भी उपलब्ध हैं यानी आठ से दस हज़ार रूपये प्रति किलो तक।

मिठाइयों के बड़े नामी व ब्रांडेड आउटलेट्स का भी यही हाल है। मंहगी से मंहगी मिठाई के नाम पर केवल चांदी के नाम का वरक़ लपेटा जाता है। जबकि लोगों का कहना है कि चांदी के नाम पर जो वरक़ लपेटा जाता है वह भी चांदी नहीं बल्कि अलुमिनियम का होता है। गोया चांदी के वरक़ के नाम पर उपभोक्ताओं को ज़हर खिलाया जा रहा है। पिछले दिनों तो टी वी पर एक ख़बर प्रसारित हुई कि पचास हज़ार रूपये किलो तक की मिठाई भी बाज़ार में बिक रही है। बताया जा रहा था कि इसमें केसर और सोने के वरक़ का प्रयोग किया गया है। अब मिठाई ख़रीदने वाला भला यह कैसे सुनिश्चित करे कि इतनी मंहगी मिठाई में केसर और सोने का वरक़ है भी या नहीं और वह भी असली है या नक़ली ? बहरहाल,भ्रष्टाचारियों,मिलावटख़ोरों,कम नापने-तौलने वालों को खुली छूट का कारण दरअसल हमारे ख़ामोशी और अनापत्ति है। लिहाज़ा बेहतर होगा कि यदि हम इस ज़ुल्म और संगठित लूट के ख़िलाफ़ आवाज़ उठाने में अपनी 'तौहीन' समझते हों तो कम से कम ख़ाली डब्बा-ख़ाली बोतल जैसा गीत आज के दौर में भी गुनगुनाकर अपने बुज़ुर्गों की दूरदर्शिता पर तो गर्व कर ही सकते हैं।