संजय सक्सेना
क्या देश में लोकतांत्रिक तरीके से चुनी गईं सरकारों के समानांतर न्यायपालिका अपने हिसाब से देश को चलाना चाहती हैं। क्या यह अदालते तय करेगी कि जनता द्वारा चुनी गई सरकारों पर उनके किसी आदेश को कैसे तवज्जो मिलना चाहिए। कैसे किसी सरकार को कानून व्यवस्था पर नियंत्रण रखने के लिए अपराधियों पर अंकुश लगाना है यह तय करना सरकार का काम है। वह सबसे अधिक जनता के प्रति जवाबदेह होती है। हर पांच साल पर जनता उसके(सरकार) कामकाज की समीक्षा करती है। तब यह नहीं देखा जाता है कि कोर्ट के तमाम आदेशों से सरकार को कामकाज में कितनी परेशानी का सामना करना पड़ा था। यह सही है कि यदि कोई सरकार संविधान के खिलाफ कार्य करती है तो न्यायपालिका उसे ऐसा करने से रोकें,लेकिन अदालतें किन्हीं दो-चार या इससे कुछ अधिक घटनाओं के आधार पर किसी सरकार के खिलाफ कोई अवधारणा बनाकर उसके हाथ नहीं बांध सकती है। इससे अपराधियों के हौसले बढ़ते हैं,जिससे कानून व्यवस्था प्रभावित होती है। फिर न्यायपालिका केन्द्र और राज्य सरकारों को लताड़ लगाती हैं कि वह कानून व्यवस्था को संभाल नहीं पा रही हैं। यह कैसे हो सकता है कि एक तरफ सुप्रीम कोर्ट की मात्र दो जजों की खंडपीठ पूरे देश में बुलडोजर न्याय पर रोक लगा देती है तो दूसरी ओर करीब-करीब उसी समय बॉम्बे उच्च न्यायालय बच्चों व महिलाओं के खिलाफ अपराधों के मामले में पुलिस के अगंभीर रवैये पर सवाल खड़ा करती है।
बता दें 17 सितंबर को सुप्रीम कोर्ट ने बुलडोजर से गैरकानूनी ध्वस्तीकरण पर चिंता जताते और इसे संवैधानिक मूल्यों के विरूद्ध बताते हुए इस पर पहली अक्टूबर यानी अगली सुनवाई तक के लिये रोक लगा दी है। सुप्रीम अदालत ने कहा अगर अवैध ध्वस्तीकरण का एक भी मामला है वह संवैधानिक मूल्यों के विरूद्ध है। कोर्ट की इजाजत के बगैर कोई संपत्ति नहीं ढहाई जाएंगी, जिसमें किसी अपराध में आरोपित की संपत्ति भी शामिल है। यह आदेश जस्टिस बीआर गवई और जस्टिस केवी विश्वनाथन की पीठ ने अपराध के आरोपितों की संपत्ति पर बुलडोजर चलाने का आरोप लगाने वाली याचिकाओं पर सुनवाई के दौरान दिया। हालांकि उत्तर प्रदेश व मध्य प्रदेश सरकार की ओर से पेश सलिसिटर जनरल तुषार मेहता ने अंतरिम आदेश का जोरदार विरोध किया। उनका कहना था कि कोर्ट के सामने यह धारणा पेश की जा रही है कि किसी अपराध में आरोपित समुदाय विशेष के लोगों की संपत्तियां ही ढहाई जा रही है, जबकि वह उदाहरण दे सकते हैं कि मध्य प्रदेश में हिंदुओं के घर भी ढहाए गए हैं। उन्होंने कहा कि याची ऐसा एक भी उदाहरण पेश करें जिसमें कानून का पालपन नहीं किया गया है,लेकिन कोर्ट ने सरकारी पक्ष के विरोध को दरकिनार कर दिया और कहा कि एक सप्ताह तोड़फोड़ नहीं होगी तो क्या हो जाएगा। कोर्ट ने स्पष्ट किया कि सार्वजिनक संपत्ति जैसे सड़क, फुटपाथ, रेलवे लाइनों या जल निकायों आदि का अतिक्रमण तोड़े जाने पर यह रोक लागू नहीं होगी। मतलब साफ है कि न्यायपालिका सिर्फ उस अवैध निर्माण को बचा रही है जो उन ताकतवर लोगों ने किया हैं जो बड़े से बड़ा गुनाह करने के बाद अपने गुनाहों के खिलाफ उच्च स्तर पर पैरवी कर सकते हैं, जिन्होंने नजूल की जमीन पर अपना साम्राज्य खड़ा कर रखा है। अपराध जिनकी आदत बन गया है। अच्छा होता कि बुलडोजर पर रोक लगाने के साथ सुप्रीम कोर्ट इस ओर भी ध्यान देती कि कैसे अपराधियों को जल्द से जल्द उसके अपराध की सजा मिल जाये,लेकिन इस ओर अपवाद को छोड़कर कभी किसी अदालत ने ध्यान नहीं दिया,जिसके कारण अपराध का ग्राफ लगातार बढ़ता जा रहा है और इसका ठीकरा सरकारों के ऊपर थोप दिया जाता है। पीठ ने कहा कि तत्काल प्राथमिकता प्रक्रिया को सुव्यवस्थित करना है ताकि न तो अधिकारी और न ही कोई व्यक्ति किसी कमी का फायदा उठा सके। कार्यपालिका न्यायधीश नहीं हो सकती और अदालत द्वारा जारी निर्देश पूरे भारत में लागू होंगे पीठ ने कहा उसने दो सिंतबर ही स्पष्ट कर दिया था कि अदालत सार्वजिनक सड़क या स्थान पर किसी भी अनाधिकृत निर्माण को संरक्षण नहीं देगी। फुटपाथ के लिए हम कहेंगे कि नोटिस भी जरूरी नहीं है। अगर कोई धार्मिक ढांचा भी है तो उसे गिरा दें,तो फिर अवैध निर्माण पर कार्रवाई के खिलाफ क्यों न्यायपालिका आदेश पारित करती है। सुप्रीम कोर्ट के फैसले के खिलाफ उत्तर प्रदेश सरकार ने हलफनामा दाखिल कर सुप्रीम कोर्ट में कहा कि सिर्फ किसी अपराध में आरोपित होना संपत्ति ध्वस्तीकरण का आधार नहीं होता। कार्रवाई म्युनिसिपल ला के उल्लंघन पर कानूनी प्रक्रिया के तहत की जाती है। प्रदेश सरकार के हलफनामे में लिए गए स्टैंड की कोर्ट ने सराहना की,लेकिन फैसला उसके पक्ष में नहीं सुनाया यह भी एक इत्तेफाक है।
हालांकि, यह पहली बार नहीं है, जब देश में बुलडोजर एक्शन चर्चा का विषय बना है। आपातकाल के दौरान देशभर में 4039 इमारतों पर बुलडोजर चलाया गया था। 1978 में शाह आयोग ने अपनी तीसरी और अंतिम रिपोर्ट में कहा था कि दिल्ली में अधिकांश इमारतें संजय गांधी के आदेश से गिराई गईं। वहीं, अन्य राज्यों में उन्हें खुश करने के लिए यह काम किया गया था।शाह आयोग ने अपनी रिपोर्ट में कहा था कि देशभर में हुई बुलडोजर कार्रवाई में दिल्ली शीर्ष पर थी। अकेले दिल्ली में 1248 इमारतें ढहाई गईं। मध्य प्रदेश में 628, उत्तर प्रदेश में 425, हरियाणा में 300, उड़ीसा में 251, बिहार में 226, पश्चिम बंगाल में 204 और राजस्थान में 163 इमारतें गिराई गई थीं। शाह आयोग की रिपोर्ट में अन्य राज्यों का ब्योरा भी दिया गया था। इसमें बताया गया था कि गंदी बस्तियों को हटाने और नगरों के सुंदरीकरण के लिए बुलडोजर से तोड़फोड़ की गई थी। रिपोर्ट के मुताबिक, कई जगह मनमानी हुई थी तो काफी मामले अमानवीय भी थे। देशभर में चंद घंटों के नोटिस पर ही हजारों परिवार उजाड़ दिए गए थे।
उधर,सुप्रीम कोर्ट जब बुलडोजर कार्रवाई पर रोक के साथ अवैध कब्जेदारों के प्रति थोड़ा संवेदनशील नजर आ रही थी तभी बच्चों व महिलाओं के खिलाफ अपराधों के मामले में पुलिस के अगंभीर रवैये पर बॉम्बे उच्च न्यायलय चिंता व्यक्त कर रहा था। बॉम्बे उच्च न्यायालय ने अपनी टिप्पणी मंे एक संवेदनशील मुद्दे की ओर ध्यान आकृष्ट कराया है, जो गंभीर चिंता का विषय है। उल्लेखनीय है कि देश में महिलाओं और बच्चों के खिलाफ बढ़ते अपराध एक गंभीर मुद्दा बन चुका है। जिसकी पुष्टि राष्ट्रीय अपराध रिकॉर्ड ब्यूरो (एनसीआरबी) के आंकड़े भी करते हैं। इनके अनुसार, पिछले दस वर्ष में महिलाओं के विरूद्ध अपराधों में 75 फीसदी की वृद्धि हुई है। कुछ हफ्ते पहले ही जिला अदालतों के सम्मेलन में प्रधानमंत्री मोदी ने भी महिलाओं व बच्चों की सुरक्षा को एक ज्वलंत मुद्दा बताते हुए ऐसे मामलों में त्वरित न्याय की बात उठाई थी। बच्चों के मामले में तो आंकड़े और भी ज्यादा खतरनाक हैं। एनसीआरबी के अनुसार, 2022 में देश में हर घंटे बच्चों के खिलाफ औसतन 18 अपराध हुए, जो एक भयावह स्थिति है। यह स्थिति इसलिए भी खतरनाक है, क्योंकि 2022 की तुलना में 2023 में कुल अपराधों की संख्या में कमी आई है, लेकिन केवल बच्चों के खिलाफ अपराधों में नौ फीसदी की वृद्धि हुई है। साइबर अपराधों ने इसे और गंभीर बना दिया है। एनसीआरबी की रिपोर्ट में पाया गया है कि 2022 में बच्चों के खिलाफ साइबर अपराध के जो मामले दर्ज किए गए, वे 2021 की तुलना में 32 फीसदी अधिक हैं। दरअसल बच्चों की ऑनलाइन गतिविधियां, खासकर सोशल मीडिया और गेमिंग प्लेटफार्म पर बढ़ती मौजदूगी, उन्हें साइबर अपराधियों का आसान शिकार तो बन रही है, फिशिंग, हैकिंग, साइबर बुलिंग और ऑनलाइन धोखाधड़ी जैसे अपराध बच्चों के मानसिक स्वास्थ्य पर भी गहरा असर डाल रहे हैं। साइबर अपराधों में बच्चों के फंसने का एक बड़ा कारण उनकी इंटरनेट तक आसान पहंुच और उनमें डिजिटल साक्षरता की कमी होना है बच्चों में गलत प्रवृत्तियों को बढ़ावा मिलने में कोविड महावारी के दौर का भी योगदान है, जब करोड़ो बच्चे ऑनलाइन पढ़ाई के लिए मोबाइल के संपर्क में आए थे। दरअसल, देश में संबंधित कानून होने के बावजूद तकनीकी विकास की वजह से साइबर अपराधों की बढ़ती जटिलता एक चुनौती बनी हुई है। ऐसे में, कानून प्रर्वतन एजेंसियों को सतर्कता से काम करना ही होगा, लोगों को भी अपने डिजिटल व्यवहार के प्रति जागरूक होना होगा। कुल मिलाकर, महिलाओं और बच्चों की सुरक्षा सुनिश्चित करने के लिए कानूनों को अधिक प्रभावी ढंग से लागू करने की जरूरत है लेकिन यह भी ध्यान रखना चाहिए कि महिलाओं और बच्चों के खिलाफ बढ़ते अपराधों को रोकने के प्रयास केवल सरकार तक सीमित नहीं हैं, बल्कि ये सामजिक बदलाव की भी मांग करते हैं। न्यायपालिका को भी बढ़ते अपराधों के लिये सरकार पर टिप्पणी करने के बजाये इस ओर ज्यादा ध्यान देना चाहियें कि कैसे अपराधी को जल्द से जल्द सजा सुनाई जाये।
(ये लेखक के अपने विचार हैं, लेखक स्वतंत्र टिप्पणीकार है)