सबसे पहले तो यह घोषणा कि रवीश कुमार के प्रति जितना प्रेम आपके मन में है उससे कुछ ज्यादा ही स्नेह अपन भी उनसे करते हैं। और जितनी घृणा आप करते होंगे, उससे कम – ज्यादा अपने मन के किसी कोने में भी शायद कहीं दबी पड़ी होगी। इसलिए यह कहना मुश्किल है कि आने वाला इतिहास पत्रकारिता की दुनिया में रवीश कुमार को एक अच्छे पत्रकार के रूप में याद करेगा या किसी भटक गए एक व्यक्ति के तौर पर… या फिर याद करेगा भी या नहीं, यह भी कौन जाने। लेकिन इतना जरूर जानना चाहिए कि स्वयं को सत्य का सारथी साबित करने और नैतिक मूल्यों का सच्चा संवाहक प्रतिष्ठित करने के प्रयास में रवीश ने जिस मंसा के तहत अपने बहुसंख्यक साथी समुदाय और मीडिया के समूचे संस्थानों को ही मोदी की गोदी में में बैठा हुआ बताकर गोदी मीडिया कहने का कथानक गढ़ने का जो पत्रकारीय पाप किया है, उसके लिए इतिहास तो क्या आप भी उन्हें माफ नहीं करेंगे।
वैसे भी, अर्थशास्त्र तो क्या किसी भी शास्त्र में किसी एक संस्थान को दूसरे संस्थान द्वारा खरीदना कोई अपराध नहीं होता, तो फिर एनडीटीवी की संचालक कंपनी में अडाणी समूह द्वारा हिस्सेदारी खरीदने को अपराध बताने का पाप क्यों किया जा रहा है, यह भी अपनी सामान्य समझ से परे हैं। फिर, हमारे संसार में नौकरियां छोड़ने के सबके अपने कारण होते हैं, इसलिए यह बाकी पत्रकारों के साथ अन्याय होगा कि रवीश के एनडीटीवी छोड़ने को सीधे शहीद की श्रेणी में रखा जा रहा है। वैसे भी, संस्थापक प्रणय रॉय और उनकी पत्नी राधिका रॉय के एनडीटीवी छोड़ने के बाद रवीश के लिए वहां क्या बचा था, यह समझ सकते हैं। लेकिन दोनों मालिकन से ज्य़ादा चर्चा रवीश की है और यह तक कहा जा रहा है कि ‘वे’ एक पत्रकार को न खरीद सके तो पूरा टीवी ही खरीद लिया… यह कुछ ज्यादा ही क्यों हो गया है, यह समझना जरूरी है।
निश्चित रूप से किसी भी पत्रकार के ईमान और उसकी नैतिकता की कीमत कोई नहीं लगा सकता। कीमत तो हमारे गुरू प्रभाष जोशी की भी किसी ने नहीं लगवाई, जब बड़े-बड़े नेता और मुख्यमंत्री तक उनके चरणों में बैठा करते थे, देश के कोने-कोने से उन्हें बुलाने के लिए चार्टर्ड हवाई जहाज दिल्ली भेजे जाते थे, और बड़े से बड़े उद्योगपति प्रभाषजी को चाय पर बुलाने के लिए चाय का पूरा बागान ही खरीदने को तैयार हो जाते थे। लेकिन ‘जनसत्ता’ प्रभाषजी ने छोड़ा, तो उन्होंने न केवल ‘जनसत्ता’ की गरिमा को आंच नहीं आने दी, न जन की ताकत को और न ही सत्ता के शिखर को चुनौती दी, बल्कि उल्टे उन्होंने तो जन से सीधे सरोकारों को भी साधे रखा। मगर, यहां तो स्वय़ं को संस्थान से भी ज्यादा विशाल प्रतिष्ठित होने की कोशिश में रवीश और बौने दिख रहे हैं।
हालांकि, निश्चित रूप से भाषा को जन से जोड़कर न्यूज टेलीविजन को जनमाध्य बनाने का सरोकार निभाने में रवीश की भूमिका रही है, लेकिन इसकी शुरुआत तो हमारे हिंदुस्तान में न्यूज़ टेलीविजन के जनक एसपी सिंह ने ‘आजतक’ शुरू कर के किया था, और प्रिंट में प्रभाष जोशी ने ‘जनसत्ता’ के जरिए किया। अपन गौरवान्वित हैं कि एसपी और प्रभाष जी दोनों के साथ काम करने के अवसर मिले। एसपी तो सरकारों के हर मुद्दे को लेकर सच के साथ सामने आए, और प्रभाषजी ने तो किसी भी सरकार को पलीता लगाने की हर छूट सबको दे रखी थी। लेकिन रवीश की तरह स्वयं को धर्मात्मा साबित करने और सिर्फ पवित्रता का ठेकेदार स्थापित करने को खगोलीय मुद्दा बना दिया हो, ऐसा एसपी और प्रभाषजी की जीवनी में कोई उदाहरण नहीं मिलता।
चाहे कोई माने या मन माने, लेकिन सच्चाई यही है कि स्वयं का सामर्थ्य सिद्ध करने की कोशिश में प्रणय राय ने जनविश्वास से जीती सरकार का विश्वास हनन करने के लिए पत्रकारिता में पाखंड को चुना, और उस पाखंड को प्रदर्शित करने के मोहरे के रूप में रवीश कुमार को सर्वाधिक एयरटाइम देकर चर्चित बन जाने का अवसर भी दिया। और इसे अपन रवीश की कला का कमाल मानते हैं कि कमाल खान जैसे भाषा की पकड़ रखनेवाले सौम्य साथी को पछाड़ते हुए वे एनडीटीवी में ही नहीं समूचे न्यूज टेलीविजन में भाषा के सर्वोच्च शिखर पर स्थापित हो गए। अब दिवंगत कमाल खान तो खैर इस दुनिया में नहीं है, लेकिन होते तो जरूर सोचते कि उनसे चूक कहां हो गई। वैसे, अपना मानना है कि चाहते होते तो कमाल खान भी रवीश की तरह अपनी हर खबर को एकतरफा दिखा सकते थे, लेकिन चूक तो कमाल खान तभी गए थे, क्योंकि वे संतुलन साधने में विश्वास करते थे। पर, रवीश तो खैर साधना किसे कहते है, शायद यही नहीं जानते थे, इसीलिए मालिकों की षड्यंत्र साधना के शिकार हो गए। इसीलिए, वे नरेंद्र मोदी का नाम जब जब लेते हैं, तो चेहरे के बदलते भाव और होठों पर खास किस्म की मुस्कान तारी होती साफ इंगित होती है, जो कि कमाल खान में आ ही नहीं सकती थी। अब आप ही तय करें कि दोनों में सरल कौन था और कुटिल कौन है।
हम देखते, सुनते व पढ़ते रहे हैं जिससे लगता है कि रवीश के पास शब्दों की, तथ्यों की और तर्कों की, तीनों की ताकत है। पहले कभी शायद शब्द उन्हें चुनने रहे पड़ते हों, लेकिन विरोध की व्याख्या में तो जो मन में आए, बोल लीजिए, सब चल ही जाता है और लोग भी चटखारे ले लेकर सुन भी लेते हैं। सो, कल तक जिस तरह से दर्शक एनडीटीवी पहुंचता था, अब भी वह खुद चल कर उनके पास पहुंच ही जाएगा, मंच चाहे कोई भी हो।
चाहें, तो रवीश इस सबका जवाब देने के लिए स्वतंत्र है, लेकिन अपन जानते हैं कि वे जवाब नहीं देंगे, क्योंकि वे जानते हैं कि जवाब देने से विवाद बढ़ेगा और जिसका जवाब दिया जा रहा है उसका कद भी। लेकिन यह तो आप भी जानते ही होंगे कि जवाब देने के वक्त ही जवाब न देने की ललित कला भी रवीश ने उन नरेंद्र मोदी से कही सीखी है, जिनका वे विरोध करते रहे हैं। मोदी भी कहां जवाब देते हैं, किसी को। फिर मोदी ने भी स्वयं को सत्य का साझीदार साबित करने का अश्वमेध यज्ञ जैसा लोकतांत्रिक अभियान चलाकर विश्व विजेता होने के स्वांग की सफलता में सबका उपयोग करते हुए विरोधियों को भ्रष्ट, झूठे, मक्कार और बेईमान के अलावा जनविरोधी साबित किया। किंतु अपनी मोदी विरोध की मुखरता को नए मानक पर पहुंचाने की कोशिश में रवीश ने भी तो समूचे साथी समाज को ही गोदी मीडिया कहकर अपराधी साबित करने का पाप किया। फिर भी यदि आप अगर रवीश को हीरो मानते हैं , तो उस पाप के भागीदार आप भी होंगे।
सरकारों में बैठे लोग अपनी स्वार्थसिद्धि के लिए पदों का उपयोग करते होंगे, और किसी गांव में नालियां बनवाने में वहां का सरपंच पैसे भी खाता होगा, लेकिन देश का मुखिया होने के नाते इस तरह के हर काम के लिए भी सिर्फ और सिर्फ प्रधानमंत्री और उनकी पार्टी को ही जिम्मेदार बताया जा रहा हो, तो बताने वाले की नीयत पर संदेह करना भी आवश्यक हो जाता है। फिर एक तो नरेंद्र मोदी के पास प्रचंड से भी ज्यादा प्रचंड और लगभग अखंड सा दिखाई पड़ने वाला बहुमत है, और इतना कमजोर हमारा लोकतंत्र नहीं है, कि कोई एक पत्रकार अपने पैनेपन से उसमें छेद कर दे, इसलिए हमारे साथी रवीश कुमार को महान बनाने और शहीद बनाने का संकल्प तज कर पत्रकारीय पैमानों की चिंता कीजिए, रवीश तो क्या और भी कई यहां से वहां और वहां से जाने कहां कहां आते जाते रहेंगे, मगर पत्रकारिता की पावनता रहनी चाहिए, उसकी परंपरा रहनी चाहिए।
( लेखक राजनीतिक विश्लेषक हैं)