– डॉ. दीपक आचार्य
यह देश हमारा है। न यह धर्मशाला है और न ही रैनबसेरा। न अजायबघर-चिड़ियाघर है, न मौज-मस्ती का डेरा।
यह केवल भूभाग नहीं है बल्कि हमारी मातृभूमि है जिसके बारे में कहा गया है कि जननी-जन्मभूमिश्च स्वर्गादपि गरीयसी। यह स्वर्ग से भी बढ़कर है।
यह भोग भूमि नहीं है बल्कि कर्म भूमि है जहाँ से श्रेष्ठ और यशस्वी कर्म करते हुए ऊध्र्वगामी यात्रा की जा सकती है, स्वर्ग और मोक्ष की प्राप्ति संभव है। इसलिए इसे दूसरे देशों की तरह न समझें।
इसका जर्रा-जर्रा शुचिता, संस्कृति, संस्कारों और परंपराओं से बंधा हुआ है और इसलिए भारत वह भूमि है जहां जन्म पाने के लिए देवी-देवता भी तरसते हैं।
दुर्भाग्य से इस देश में कुछ समय से बेवक्त और गैर जरूरत ऎसी खरपतवार पैदा होकर पसरने लगी है जिसका न मातृभूमि से कोई सरोकार है, न संस्कारों और परंपराओं से, कर्म,त्याग और तपस्या, मर्यादाओं, परंपराओं, देशभक्ति से कोई लेना-देना है, न किन्हीं अच्छाइयों से।
ये लोग केवल भारत का बदनाम करने, कलंकित करने और हीनता पैदा करने के लिए ही पैदा हुए हैं। इन लोगों को अच्छी तरह पता है कि देशभक्ति उनके खून में नहीं हैं, उन्मुक्त और स्वच्छ भोग विलासी देह न सेवा भाव रख पाती है, न परोपकार का कोई मन।
अपने कर्म, व्यक्तित्व और व्यवहार-स्वभाव से भी ये अपने भीतर सुगंध का कोई कतरा तक पैदा नहीं कर पाते इसलिए वैचारिक सडान्ध और दुष्टों को आश्रय-प्रश्रय देकर अपने आपका वजूद कायम करने और बनाए रखने के लिए सारी लाज-शरम छोड़ कर उन बयानों और कामों में जुटे हुए हैं जिनसे कि बिना कुछ खर्च किए इन्हें पब्लिसिटी भी प्राप्त होती रहे और अस्तित्व भी बना रहे।
इन लोगों को पता ही नहीं कि वे क्या बकवास करते जा रहे हैं, कितना झूठ पर झूठ बोले जा रहे हैं, चाहे जैसी उन्मादी बातें कहते जा रहे हैं और बौद्धिक पागलपन के तमाम व्यवहारों का दिग्दर्शन करा रहे हैं। बड़े-बड़े लोग न बढ़िया दिख रहे हैं न बढ़िया हो पा रहे हैं।
दुर्भाग्य से आजकल उन लोगों पर अधिक फोकस होता जा रहा है जो विचित्र, हास्यास्पद और ऊटपटांग कामों और विचारों के सहारे जिन्दा रहने की कोशिशों में रमे हुए हैं।
अभिव्यक्ति की आजादी क्या मिली हुई है, ये लोग कीचड़ उछालने से लेकर कपड़े फाड़ देने तक के सारे काम करने में किसी तरह की शर्म का अनुभव नहीं करते।
सत्य, धर्म और यथार्थ से बेखबर या इनकी उपेक्षा करने वाले धर्महीन, झूठे, धूर्त, पाखण्डी और मक्कार लोगों की एक ऎसी फसल दिख रही है जो नील गायों या टिड्डियों की तरह देश को चट कर जाने का ही काम करती है।
इन्हें हमेशा चटखारे लेने के लिए कुछ न कुछ चाहिए होता है। कभी जुगाली के लिए, कभी गुदगुदाने का आनंद पाने के लिए और कभी जीभ का स्वाद बदलने का कोई न कोई मुफतिया पदार्थ या रस। बीमारियों की तरह सब तरफ ये पसरते जा रहे हैं।
एक इंसान के रूप में इनके चरित्र को देखा जाए तो कहीं से नहीं लगता कि मनुष्यता का कोई कतरा भी इनमें मौजूद है। लगता है कि इनसे जो जानवर सौ गुना अच्छे हैं जो अपनी सीमाओं को भी जानते हैं और कर्तव्यों से लेकर अधिकारों तक को भी।
जानवर सब जानते हुए अपनी-अपनी मर्यादाओं का कभी व्यतिक्रम नहीं करते। और ये लुच्चे-लफंगे और टुच्चे लोग हर थोड़े-थोड़े दिनों कोई न कोई बखेड़ा खड़ा करने के आदी हो गए हैं।
नाकारा और तमाशबीनों की एक पूरी की पूरी जमात ही हो गई है जिसने निशाने पर आतंकवादी, देशद्रोही और नक्सलवादी नहीं, चोर-उचक्के और बेईमान नहीं बल्कि देश के लिए जीने और मरने वाले, मातृभूमि की सेवा के लिए सर्वस्व न्यौछावार कर देने वाले कर्मयोगी हैं।
जो कोई देश और समाज के लिए कुछ अच्छा करने की कोशिश करता है उससे पहले नुगरों की फौज सामने आ धमकती है कभी झूठ के लच्छे पराठों की तरह और कभी रायता फैलाने वाले रायताखोरों की तरह।
पता नहीं देश के इन बड़े-बड़े बन गए लोगों को पागलपन के दौरे क्यों पड़ने लगते हैं। लोगों के दिलों में राज करने की भावनाएं खत्म होती जा रही हैं और केवल सस्ती पब्लिसिटी के जरिये धींगामस्ती और खौफियाना व्यक्तित्व के बूते खुद के वजूद को बरकरार रखने के सारे हथकण्डों का इस्तेमाल पूरी बेशर्मी से करना ही ध्येय होता जा रहा है।
देश की संस्कृति, परंपराओं और सभ्यता की बजाय चंद लोग इस देश को सराय, रैनबसेरा और धर्मशाला समझ कर अपनी चला रहे हैं और हम हैं कि चुपचाप बैठे हुए उन लोगों को बर्दाश्त कर रहे हैं जिन्हें उनके घरेलू पालतु कुत्ते और घरवाले भी पसन्द नहीं करते।
कैसे-कैसे सड़े हुए विकृत चेहरे, गुटखा ठूँसे हुए बदबूदार मुँह और दुर्गन्ध देती जिस्म से भरे, विकृत और व्यभिचारी चाल-चलन के लोग हमारे देश में दिखने लगे हैं।
देश की आबोहवा को दूषित करने वाले इन लोगों को सबक सिखाना हम असली भारतीयों का आज का सबसे पहला फर्ज है जिसे निभाने के लिए हमें मातृभूमि की सेवा को सर्वोपरि प्राथमिकता देते हुए आगे आने की आवश्यकता है।
पानी सर तक आ गया है और ऎसे में भी हम बर्दाश्त करते रहे तो यह देश इतना अधिक प्रदूषित हो जाएगा कि कुछ बचेगा ही नहीं सिवाय लूट-खसोट, गुलामी और उन्मुक्त धींगामस्ती के। देश पहले है बाकी सब बाद में। समय पुकार रहा है, अनुकूलताएं उठ खड़ी हुई हैं। अभी नहीं तो कभी नहीं।