तनवीर जाफ़री
बावजूद इसके कि राष्ट्रीय स्वयं सेवक सेवक संघ स्वयं को एक ग़ैर राजनैतिक संगठन बताता है और इसे सामाजिक व सांस्कृतिक संगठन के रूप में प्रचारित करता है। परन्तु वास्तव में यह सत्तारूढ़ भारतीय जनता पार्टी का मुख्य संरक्षक संगठन है। लिहाज़ा देश की वर्तमान राजनीति की दिशा एवं दशा में आर एस एस की अति महत्वपूर्ण भूमिका से इंकार नहीं किया जा सकता। पिछले दिनों संघ से जुड़ी दो गतिविधियों ने देश के राजनैतिक विश्लेषकों का ध्यान अपनी ओर आकर्षित किया। एक तो देश की पांच प्रमुख मुस्लिम हस्तियों का संघ प्रमुख मोहन भागवत से मुलाक़ात करना और दूसरी संघ प्रमुख का दिल्ली की एक मस्जिद में जाकर मस्जिद प्रबंधकों से मुलाक़ात करना। राजनैतिक हल्क़ों में यह क़यास लगाये जाने लगे हैं कि देश में साम्प्रदायिक सद्भाव क़ायम करने की ग़रज़ से दोनों पक्षों की ओर से ऐसे प्रयास किये जा रहे हैं। विश्लेषकों के एक वर्ग का यह भी मानना है कि चूँकि भारतीय जनता पार्टी व संघ के नेता राहुल गाँधी की भारत जोड़ो यात्रा को मिल रही अपार सफलता को देखकर काफ़ी चिंतित हैं कि कहीं कांग्रेस अपने खोए हुये जनाधार को वापस हासिल न कर ले और अल्पसंख्यकों में पुनः अपनी पैठ न बना ले इसलिये संघ व भाजपा देश के मुस्लिम समाज के साथ मधुर संबंध स्थापित करने की दिशा में काम कर रहे हैं।
परन्तु इन प्रयासों के बीच कुछ अहम व बुनियादी सवाल ऐसे भी हैं जिन्हें नज़रअंदाज़ नहीं किया जा सकता। पहला सवाल तो मुस्लिम पक्ष से ही जुड़ा हुआ है। वैश्विक स्तर पर मुसलमानों के विभिन्न वर्गों व समुदायों में नफ़रत,मतभेद,व दुर्भावना का वातावरण व्याप्त है। इस सन्दर्भ में सैकड़ों उदाहरण पेश किये जा सकते हैं। सवाल यह है कि जिस मुस्लिम समाज के विशिष्ट लोग संघ के साथ मुसलमानों के बेहतर संबंध बनाने की दिशा में काम कर रहे हैं क्या उन्हें इससे पहले 'इत्तेहाद-ए-बैनुल-मुसलमीन ' की दिशा में काम नहीं करना चाहिये ? क्या ईरानी इस्लामिक क्रांति के नेता आयतुल्लाह ख़ुमैनी,अब्दुल्लाह बुख़ारी,मौलाना क्लब-ए-सादिक़ साहब जैसे दूरदर्शी मुस्लिम रहनुमाओं के उन प्रयासों को अमली जमा पहनाये जाने की ज़रुरत नहीं है जिसके अंतर्गत ये लोग एक ही मस्जिद में सभी मुसलमानों के नमाज़ अदा करने के पक्षधर थे ? विश्व शांति की दिशा में सबसे अहम भूमिका अदा करने वाले यह क़दम आख़िर सांकेतिक प्रयास तक ही क्यों सीमित रह गये? कहना ग़लत नहीं होगा कि एक अल्लाह,एक रसूल और एक क़ुरआन के मानने वाले मुसलमानों के बीच ही जब एकता व आपसी सद्भाव नहीं है। जब एकेश्वरवादी मुसलमान होने के बावजूद सभी वर्गों के मुसलमानों की मस्जिदें अलग हैं,अज़ान व नमाज़ में अंतर है। एक दूसरे के धर्मस्थलों पर हमले करते हैं,ऐसे में एकेश्वरवाद से इंकार करने वाले हिंदुत्ववादी समुदाय से सद्भाव की बातें करना आख़िर कितना कारगर साबित हो सकता है?
यही स्थिति दूसरी तरफ़ भी है। ख़बर है कि मुस्लिम-संघ सद्भाव हेतु प्रयासरत मुस्लिम प्रतिनिधियों से संघ प्रमुख भागवत ने जिहाद,काफ़िर और गऊ जैसे विषयों पर अपनी स्थिति स्पष्ट करने को कहा। जिहाद और काफ़िर जैसे विषय तो शाब्दिक व्याख्या और अर्थों की ग़लतफ़हमी,समझ या नासमझी की वजह से विवादों का कोई मुद्दा नहीं। परन्तु गाय को लेकर केवल मुसलमानों को कटघरे में खड़ा करना तो निश्चित रूप से भारतीय मुसलमानों के विरुद्ध देश के हिन्दुओं में नफ़रत पैदा करने का ही यह एक सुनियोजित प्रयास है? कोई भी अमन पसंद समझदार मुसलमान गोहत्या का पक्षधर नहीं। परन्तु इस बात का क्या जवाब है कि मई 2015 में जब तत्कालीन केंद्रीय राज्य मंत्री मुख़्तार अब्बास नक़वी ने कहा था कि -'भारत में जो लोग गोमांस खाये बिना नहीं रह सकते वे पाकिस्तान चले जाएं'। उसी समय नक़वी के इस बयान को गृह राज्य मंत्री किरण रिजिजू ने 'अवांछनीय व आपत्तिजनक बयान' बताया था । रिजिजू ने कहा था कि -'गोहत्या क़ानून को पूर्वोत्तर राज्यों पर थोपा नहीं जा सकता। यहां बहुसंख्य लोग गोमांस खाते हैं। उन्होंने यह तक कहा था कि -'मैं अरुणाचल प्रदेश से हूं, मैं गोमांस खाता हूं , क्या कोई मुझे ऐसा करने से रोक सकता है? इसलिए इस मुद्दे को लेकर ज़्यादा संवेदनशील होने की ज़रूरत नहीं है। हमें एक दूसरे की भावनाओं का सम्मान करना चाहिए।' उन्होंने यह भी कहा था कि-' देश में सभी लोगों की संस्कृति, परंपराओं, आदतों और भावनाओं का सम्मान किया जाना चाहिए'। भाजपा में सैकड़ों गोभक्षक मंत्री,सांसद व विधायक हैं। चनावों के दौरान तो भाजपा नेताओं द्वारा बीफ़ पार्टियां भी की जा चुकी हैं। क्या इन लोगों से भी कभी गऊ हत्या को लेकर स्थिति स्पष्ट करने को कहा गया ? गोवा,मेघालय त्रिपुरा अरुणाचल असम जैसे अनेक राज्यों में आम लोग इसका सेवन करते हैं परन्तु सवाल उन मुसलमानों से ही क्यों जोकि मुख़्तार अब्बास नक़वी की तरह गौमांस खाने वालों को पाकिस्तान भेजने की बात करते हों ? उस रिजिजू से क्यों नहीं जो केंद्रीय गृह मंत्री भी हैं और यह भी कहते कि – 'मैं गोमांस खाता हूं , क्या कोई मुझे ऐसा करने से रोक सकता है'? और साथ ही मंदिरों में 'नन्दी' की पूजा करते भी नज़र आते हों ?
अब रहा सवाल धार्मिक सद्भाव का,तो यहाँ भी स्थिति कमोबेश मुसलमानों जैसी ही है। वर्ण व्यवस्था पर आधारित हिन्दू समाज का एक बड़ा वर्ग अपनी मनुवादी परम्पराओं का अनुसरण करता हुआ जाति आधारित वर्गों में इस क़द्र बंटा हुआ है कि कथित स्वर्ण व कथित निम्न जाति के मंदिर अलग अलग हैं। सवर्णों द्वारा दलितों पर अत्याचार करने के तमाम क़िस्से रोज़ सुनाई देते हैं। 14 अक्टूबर 1956 की उस घटना को इतिहास के पन्नों से आख़िर हम कैसे मिटा सकते हैं जो हमें यह बताते हैं कि वर्ण व्यवस्था की इसी अपमानजनक व्यवस्था से क्षुब्ध होकर डॉ॰ भीमराव आंबेडकर ने नागपुर में अपने लगभग पांच लाख से अधिक अनुयायिओं के साथ वर्ण व्यवस्था आधारित हिन्दू धर्म त्याग कर बौद्ध धर्म स्वीकार किया था? यहां भी किसी अन्य धर्म या देश को ज़िम्मेदार ठहराये जाने के बजाये पूरी ईमानदारी से आत्मावलोकन करने की ज़रूरत है। भीमा कोरे गांव के इतिहास को आख़िर कैसे मिटाया जा सकता है ? फिर भी सांप्रदायिक सद्भाव के प्रयास कहीं भी और किसी ओर से भी किये जा रहे हों उनका स्वागत ज़रूर किया जाना चाहिये परन्तु इस मार्ग में प्रयत्नशील सभी समुदायों के रहबरों द्वारा साम्प्रदायिक वैमनस्य की खाई पाटने से पहले अपने व अपने समाज में आत्मावलोकन करना भी बेहद ज़रूरी है। परस्पर सद्भाव की दिशा में यह क़दम सबसे महत्वपूर्ण क़दम साबित होगा।
( ये लेखक के अपने विचार हैं, आवश्यक नहीं कि भारत वार्ता इससे सहमत हो )