सियासत की करवट, उधेड़बुन में उलझी मध्यप्रदेश कांग्रेस, बारिश के मौसम में भी भोपाल का बढ़ता तापमान, अपनी ही पार्टी के वरिष्ठ के खिलाफ मंत्री के ऊँचें स्वर, आबकारी अधिकारी की सौदेबाजी, विधायकों को हिस्सा दिलवाना, अपनी ही सरकार के मंत्री का पुतला जलना, राजा-महाराजा का बगावत पर उतर आना, प्रदेश कांग्रेस की कमान के लिए छटपटाना, पूर्व अध्यक्ष का दुःख जाहिर करना, बंटाधार का चिट्ठी-पत्री का खेल खेलना आदि बहुत सी घटनाएँ बीते हफ्ते मध्यप्रदेश कांग्रेस के भाग्य में जुड़ तो गई किन्तु इसके पीछे मुख्यमंत्री कमलनाथ की चुप्पी भी विचारणीय और निर्णायक बनी हुई है।
इतना तो तय है कि पंद्रह वर्षों के वनवास के बावजूद भी कांग्रेस सरकार में आने के बाद से ही कही न कही विवादों में घिरी ही रही है। कभी कर्ज माफ़ी का शौर तो कही बगावती सुरो की लटकी हुई तलवार, कही अपनी ही पार्टी के वरिष्ठों की अनदेखी तो कही युवा तुर्क की तीमारदारी। विवादों और मध्यप्रदेश सरकार का चोली-दामन का साथ पहले दिन से ही बना हुआ है। सिंधिया की अनदेखी के बाद से ही सरकार कभी एक सूत्र में बंधी नज़र नहीं आई।
इन्ही के बीच दिग्गी का बढ़ता हस्तक्षेप भी पार्टी के अन्य लोगों को नागवार नहीं गुजर रहा, और गुजरे भी क्यों, जब सरकार के बनाने की मेहनत में दिग्गी के खेल से कौन वाकिफ नहीं है। अपने १० साल के बंटाधार कार्यकाल के चलते कांग्रेस ने १५ वर्ष का वनवास भोगा, उसके बावजूद भी यदि मौजूदा सरकार को मिस्टर बंटाधार पर ही भरोसा रहेगा तो अपनों का विरोध तो झेलना ही पड़ेगा। मध्यप्रदेश के वनमंत्री उमंग सिंघार ने यदि दिग्गी के चिट्ठी लिखने पर आपत्ति जताई है तो गलत क्या किया? यदि आप स्वयं को वरिष्ठ नेता मानते है तो दूरभाष पर मंत्रियों से चर्चा करते, बैठक करते, किन्तु आपने चिट्ठी लिख कर सोशल मीडिया में फ़ैलाने को हथियार बनाया, आपकी मंशा चाहे जो रही हो परन्तु नज़र तो यही आया कि सरकार दिग्गी चला रहे है या वो अपना प्रभाव दिखाना चाह रहे है, यह तो पार्टी हित नहीं था।
सिंधिया की नाराज़गी का कारण भी दिग्गी
कांग्रेस के वरिष्ठ नेता ज्योतिरादित्य सिंधिया के खिलाफ कई मर्तबा दिग्गी मोर्चा खोल चुके है, हमेशा ही सिंधिया के वजूद पर हमला करने के कारण ही पूर्व केंद्रीय मंत्री सिंधिया खुद को मध्यप्रदेश सरकार से दूर रख रहे थे, यहाँ तक कि उन्होंने दिग्गी की खुरापात के चलते खुद को कांग्रेस से भी सिमित कर लिया। आखिरकार केवल एक व्यक्ति के कारण पार्टी को गर्त में पहुँचाने जैसे मामले में भी हाई कमान की चुप्पी सोचने पर विवश करती है।
अरुण यादव क्यों हो गए सरकार से दूर?
चुनाव के पूर्व अरुण यादव की सक्रियता से सभी वाकिफ है, उसके बाद दिग्गी के बढ़ते हस्तक्षेप ने यादव को भी कांग्रेस या कहें मध्यप्रदेश सरकार से दूर ही कर दिया। कही कोई जिक्र नहीं यादव का, जब कि संकट की घडी में यादव ने भी कांग्रेस के लिए बहुत संघर्ष किया। और बतौर प्रदेश अध्यक्ष प्रदेश भर में कांग्रेस को मजबूत करने की दिशा में काम किया।
कहाँ गए कान्तिलाल भूरिया?
चुनाव का हारना-जितना चलता रहता है, किन्तु उसके बावजूद भी सशक्त आदिवासी नेतृत्व के रूप में स्थापित कान्तिलाल भूरिया भी चुप-चुप से ही रह रहे है। आखिर क्या मिस्टर बंटाधार का खौफ है या फिर पार्टी से सबको दूर करने की एक चाल मात्र। किन्तु भूरिया का यूँ चुप बैठ जाना आदिवासी गढ़ में कांग्रेस की जमीन कमजोर कर देगा।
आखिरकार क्यों चुप है कमलनाथ?
इतने बवाल के बावजूद भी मुख्यमंत्री और प्रदेश कांग्रेस अध्यक्ष कमलनाथ का चुप रह जाना किसी बड़े मामले का संकेत दे रहा है। या तो खुद कमलनाथ भी दिग्गी के हस्तक्षेप से परेशान है, जिसके चलते उमंग या अन्य के कंधे से बन्दुक दिग्गी की तरफ चली हो या फिर कोई बड़ा तूफान कांग्रेस में आने वाला है, जिसके पहले सफाई जरुरी मानी जा रही हो। किन्तु यह खेल इतना भी आसान नहीं है कि अपनी ही पार्टी के वरिष्ठ नेता दिग्गी के विरुद्ध कोई अदना इतनी आसानी से मोर्चा खोल दे, इसमें कमलनाथ का मौन उनका उमंग को अघोषित समर्थन माना जा सकता है।
इन्हीं सब के बीच उमंग सिंघार का दिग्गी विरोध इसलिए भी माना जा सकता है क्योंकि दिग्गी ही शायद उमंग का मंत्रीपद छुड़वा कर प्रदेश संगठन में काबिज करने का खेल खेलना चाहते हो। बात जो भी हो किन्तु अंततः नुकसान कांग्रेस का ही होना तय है। क्योंकि कांग्रेस पहले ही केंद्र में अपना अस्तित्व कमजोर कर चुकी है, ३७० के विरोध के चलते कांग्रेस का केंद्रीय किरदार कमजोर साबित हुआ है। उसके बाद प्रदेश में भी लोकसभा में सूपड़ा साफ़ होने के बाद कर्ज माफ़ी पर उठते सवाल, तबादला नीति का प्रभाव, सिंधिया की ख़ामोशी, मंत्रियों पर ठेकेदारों से मिलिभगत के वायरल होते आडियो भी कांग्रेस को प्रदेश में गर्त में ले जाने में कोई कसर नहीं छोड़ रहे है। इसके बाद भी यदि आलाकमान ने सही समय पर सही निर्णय नहीं लिया और दिग्गी का हस्तक्षेप बरक़रार रहा हो यकीं मानना कांग्रेस खुद के वजूद को मिटा देगी। वैसे भी कमलनाथ की चुप्पी यही इशारा दे रही है कि खेल वही चल रहा है जो कमलनाथ चाह रहे है, यानि 'होइहि सोइ जो कमलनाथ रचि राखा।'