राजस्थान की राजनीति में गत दिनों एक बार फिर स्वार्थी व सत्ता की घोर चाहत रखने वाली राजनीति का बदनुमा चेहरा देखने को मिला। हुआ यह कि राजस्थान में बहुजन समाज पार्टी के सभी 6 के 6 विधायक कांग्रेस पार्टी में शामिल हो गए। दलबदल की इस घटना के बाद राजस्थान विधानसभा में कांग्रेस के विधायकों की संख्या अब 100 से बढ़कर 106 हो गई है। हालाँकि पहले भी राज्य में अशोक गहलोत की कांग्रेस सरकार को बसपा का बाहर से समर्थन हासिल था। क़ानूनी एतबार से इस घटना को दलबदल नहीं बल्कि एक दल के विधायकों का दूसरे दल में "विलय" का नाम दिया जाता है। ऐसे "विलय" जैसे फ़ैसलों में किसी प्रकार की क़ानूनी अड़चन भी नहीं होती।परन्तु क्या नैतिकता के मापदंड पर भी ऐसा तथाकथित "विलय " या दलबदल खरा उतरता है ?आज लगभग पूरे देश में बड़े पैमाने पर ऐसी ख़बरें सुनी जा रही हैं कि कल का कांग्रेसी या सपाई या किसी अन्य दल का कोई नेता विधायक,या सांसद भारतीय जनता पार्टी में शामिल हो गया। ज़ाहिर है चूँकि इन दिनों भाजपा की सत्ता पर पकड़ मज़बूत है इसलिए "माननीयों" का पलायन भाजपा की तरफ़ ही हो रहा है। दलों में तोड़ फोड़ करने तथा विपक्ष को अत्यंत कमज़ोर करदेने की सोच रखने वाले नेता चूँकि भाजपा में बहुतायत में हैं इसलिए नेताओं के भाजपा में शामिल होने की ख़बरें इन दिनों कुछ ज़्यादा ही सुनाई दे रही हैं। इन्तेहा तो यह है कि भारतीय जनता पार्टी ने बिहार व कर्नाटक जैसे राज्यों में जहाँ जनता ने उसे विपक्ष में बैठने के लिए मत दिया था वहां भी वह जोड़ तोड़ कर सत्ता में आ गयी। इससे पूर्व गोवा व मणिपुर राज्यों में भी यही खेल खेला जा चुका है।
ऐसा प्रतीत होता है कि निर्वाचित होने के बाद सत्ता पक्ष में बैठे बिना 'माननीय' की राजनीति ही अधूरी है। ज़ाहिर है सत्ता की पंक्ति में खड़े होने के बाद निर्वाचित "माननीयों" के मंत्री बनने की संभावनाएं प्रबल हो जाती हैं। और यही लगभग प्रत्येक नेता की तमन्ना भी होती है कि वह चुनाव भी जेते और फिर उसे मंत्रिमंडल में भी शामिल किया जाए। आश्चर्य की बात तो यह है कि दलबदल या विचार परिवर्तन के बाद भी ऐसे माननीय बड़ी ही बेशर्मी के साथ अपनी छाती चौड़ी कर पुनः अपने उन्हीं मतदाताओं के पास वोट मांगने जाते हैं जिनसे पिछली बार किसी दूसरे दल के उम्मीदवार के रूप में वोट माँगा था। और अक्सर जनता उन्हें पुनः दूसरे दल का प्रत्याशी होने के बावजूद जिता भी देती है। इधर "नेताजी" के पास भी अपनी इस दलबदल या विचारधारा के परिवर्तन का एक बहुत ही सधा हुआ जवाब तैयार रहता है। वे अपने मतदाताओं को समझाते हैं कि "यह दलबदल या निष्ठा परिवर्तन केवल जनता की भलाई के लिए किया गया है ताकि क्षेत्र का विकास हो सके। और ज़ाहिर है प्रगति व विकास कार्यों के लिए सत्ता का साथ या संरक्षण ज़रूरी होता है"। ऐसे तर्कों को सुनकर भले ही जनता स्वयं को राजनैतिक दृष्टि से ठगा हुआ क्यों न महसूस करे परन्तु "क्षेत्र के विकास" के तर्क को सुनकर वह भी यह जानते हुए भी ख़ामोश हो जाती है कि "नेताजी" द्वारा उसे ठगा ही गया है।
ख़बरों के मुताबिक़ मध्य प्रदेश में भी इन दिनों एक हाई प्रोफ़ाइल राजनैतिक ड्रामे की स्क्रिप्ट लिखी जा रही है। कोई आश्चर्य नहीं कि मध्य प्रदेश की जनता जिसने राज्य की शिवराज सिंह चौहान की भाजपा सरकार को सत्ता से हटाया था और कमल नाथ के नेतृत्व में कांग्रेस की सरकार बनाए जाने की राह आसान की थी वहां भी कुछ ऐसा ही राजनैतिक ड्रामा देखने को मिले जिसकी मध्य प्रदेश की जनता को उम्मीद भी न हो। ऐसे दलबदलुओं के पास सिद्धांत अथवा विचारधारा नाम की कोई चीज़ ही नहीं होती। बल्कि इनके लिए इससे भी महत्वपूर्ण इनका राजनैतिक भविष्य होता है। मान लीजिये की अगर इन्हें इस बात का आभास हो जाए कि उनकी पार्टी इस बार उन्हें चुनाव मैदान में उतारने नहीं जा रही है। और किसी और नेता को प्रत्याशी बनाए जाने की संभावना है। उसी समय से "थाली के ये बैंगन" अपने राजनैतिक भविष्य की चिंता करने लगते हैं और टिकट हेतु अन्य दलों की और ताकने झाँकने लगते हैं। यदि कोई जीत भी जाय और विपक्ष में है तो वह मंत्री बनने की शर्त पर दल बदल कर लेता है या क़ानूनी अड़चनों से बचने के लिए अपनी पार्टी में विभाजन करवा देता है।
इसी प्रकार कई बड़े नेता गठबंधन में शामिल होने के लिए अवसरवादिता की पूरी परख रखते हैं। कब संयुक्त प्रगतिशील गठबंधन का हिस्सा बनना है और कब राष्ट्रीय जनतांत्रिक गठबंधन में शामिल होना है ये हुनर व "दूरदर्शिता " इन्हें बख़ूबी आती है। लोक जान शक्ति पार्टी के नेता राम विलास पासवान ऐसे "दूरदर्शी" नेताओं के लिए एक 'आदर्श' नेता हैं। इन्हें राजनीति का "मौसम वैज्ञानिक" भी कहा जाता है। देश में कई नेता ऐसे भी हैं जिन्होंने सत्ता में रहते हुए अपने पदों का भरपूर दुरूपयोग किया। अकूत संपत्ति अर्जित की और घोर अनियमिताओं का सहारा लेते हुए खूब मनमानी की। ऐसे नेताओं के सर पर सी बी आई या अन्य जांच एजेंसियों की नज़रें रहती हैं। उन्हें भय रहता है कि कहीं हमारा रुतबा और आज़ादी ख़त्म न हो जाए और कहीं हम सलाख़ों के पीछे न डाल दिए जाएं। ऐसे नेता भी सत्ता पक्ष के नेताओं से अपने रुसूख़ के आधार पर सांठ गाँठ कर अपना "राजनैतिक धर्म परिवर्तन" कर लेते हैं। वैसे भी हमारे देश में स्वार्थी व रीढ़ विहीन नेताओं की संख्या बहुत ज़्यादा है। बेशक वे खादी के सफ़ेद कपड़ों में लिपटे रहते हैं परन्तु उन्हें इस सफेदी व खादी के महत्व का ज्ञान ही नहीं। लोकसेवा,वैचारिक व सैद्धांतिक सोच,दक्षिण पंथ,वामपंथ जैसी बातों की इनको समझ ही नहीं है। आज का कौन सा कांग्रेसी कल भाजपाई बन जाए कुछ नहीं कहा जा सकता।
दलबदल करना या घटक बदलना बेशक नेताओं का अधिकार क्षेत्र है। परन्तु अपने मतदाताओं से छल व धोखा करने का अधिकार उन्हें हरगिज़ नहीं है। यह क़ानून के ख़िलाफ़ भले ही न हो पर नैतिकता के बिल्कुल विरुद्ध ज़रूर है। यह सरासर अपने मतदाताओं की उस राय की मुख़ालिफ़त है जो उन्होंने चुनाव में अपने नेता के पक्ष में मतदान कर व्यक्त की है।यदि किसी निर्वाचित माननीय के लिए दल बदल करना उसकी मजबूरी है भी तो उसे या तो पहले अपने पद से त्याग पात्र देदेना चाहिए या फिर किसी भी तरीक़े से अपने मतदाताओं की रॉय लेकर ही उसे दलबदल या घटक परिवर्तन करना चाहिए। दूसरी तरफ़ मतदाताओं को भी ऐसे दलबदलू,सिद्धांतविहीन व बिना "वैचारिक रीढ़ की हड्डी" वाले नेताओं को चुनाव में ऐसा सबक़ सिखाना चाहिए ताकि वे राजनैतिक दलबदल करना तो क्या राजनीति के मैदान से ही ख़ुद को दूर करने की बात सोचने के लिए मजबूर हो जाएं। जनता को यह भी महसूस करना चाहिए कि ऐसा नेता उनके चुनाव क्षेत्र को भी बदनाम करते हैं। जब जनता इन 'थाली के बैंगनों' को उनकी औक़ात दिखने लगेगी निश्चित रूप से मौक़ा परस्ती की सियासत को लगाम लगने लगेगी अन्यथा 'थाली के ये बैंगन' हमेशा अपनी सुविधानुसार दलबदल भी करते रहेंगे और मतदाताओं को अपना ग़ुलाम समझते रहेंगे।