तीन तलाक के बारे में हमारे सर्वोच्च न्यायालय ने अभी जो शुरुआती विचार रखा है, उसी पर देश के विचारकों को खुली बहस चलाने की जरुरत है। अदालत ने कहा है कि वह सिर्फ तीन तलाक के मुद्दे पर विचार करेगी और यह देखेगी कि कुरान में उसका समर्थन है क्या? यदि कुरान तीन तलाक को ठीक मानती है और यदि मुसलमानों का यह धार्मिक मौलिक अधिकार है तो उसमें वह हस्तक्षेप नहीं करेगी।
यहां बड़ा सवाल यह है कि यदि धार्मिक कानून और संवैधानिक कानून में टक्कर हो जाए तो आप किस कानून को मानेंगे? संविधान बड़ा या धर्मग्रंथ? धर्मग्रंथ बड़ा है कि राष्ट्रग्रंथ ? किसी अदालत की हिम्मत नहीं कि वह इस सवाल को इस अदा से उठाए!
यहां प्रश्न यह है कि सैकड़ों-हजारों साल पहले बने धर्मग्रंथों और स्मृतियों के कानूनों को आज के जमाने में क्यों माना जाए और आंख मींचकर क्यों माना जाए? उन्हें तर्क की तुलना पर क्यों न तौला जाए? उन्हें देश और काल के पैमाने पर क्यों नहीं नापा जाए? यदि ये मजहबी कानून परमपूर्ण होते तो दुनिया के देशों को संविधान बनाने की जरुरत ही क्यों पड़ती? मजहब तो मुश्किल से दुनिया में दर्जन भर हैं लेकिन संविधान तो 200 से भी ज्यादा बन चुके हैं। यह मानकर क्यों चला जाए कि सारी अक्ल का ठेका हमारे पूर्वजों को मिला हुआ था और हम सब लोग निरा बेवकूफ हैं?
इसका अर्थ यह नहीं कि धार्मिक कानूनों और परंपराओं को हम उठा कर ताक पर रख दें। मेरा निवेदन सिर्फ इतना ही है कि उनमें से जो-जो प्रावधान आज भी उपयोगी हैं और सर्वहितकारी हैं, उन्हें जरुर बचाया जाए और माना जाए लेकिन जो भी प्रावधान बोझिल हैं, अनुपयोगी हों, पोंगापंथी हों, अप्रासंगिक हों, उन्हें तुरंत छोड़ा जाए। तीन तलाक या बहुविवाह या जातीय ऊंच-नीच या छुआछूत जैसी गई-गुजरी बातों को क्या हमें सिर्फ इसीलिए मान लेना चाहिए कि वैसा कुरान या पुराण या बाइबिल या गुरु ग्रंथ साहब या जिंदावस्ता या वेद में लिखा गया है?
ये सब ग्रंथ अपनी व्याख्याओं के मोहताज़ हैं। सब लोग अपनी-अपनी पसंदगी के मतलब इनमें से निकाल लेते हैं। इन्हें ईश्वरकृत भी इसीलिए कहा जाता है कि लोग इनमें लिखी बातों को चबाए बिना ही निगल जाएं। जो निगलना चाहते हैं, जरुर निगलें। उन्हें पूरी छूट दी जाए लेकिन उस हर मुद्दे पर अदालतों और संसदों को बेखौफ फैसला देना चाहिए, जिसका संबंध दूसरों से हों, समाज से हो, राज्य से हो।
कोई अपने गाल पर रोज सुबह सौ तमाचे लगाना चाहे तो जरुर लगाए, उसे आजादी है। लेकिन वह आदमी अपनी बीवी को यदि रोज़ एक लात मारना चाहे तो उसे यह आजादी नहीं मिल सकती। धर्मग्रंथ में पति परमेश्वर है तो वह रहे लेकिन राष्ट्रग्रंथ में वह वैसा ही नागरिक माना जाता है जैसी कि उसकी पत्नी है। अपने व्यक्तिगत मामलों में आप अपने धर्मग्रंथ को सर्वोच्च मानते रहिए लेकिन बाकी सभी मामलों में राष्ट्रग्रंथ को ही सर्वोच्च मानना जरुरी है।