फ़िलिस्तीन के कई क्षेत्रों में इस्लामिक आंदोलन के रूप में सक्रिय संगठन हमास ने जब से इज़राईल पर एक साथ लगभग 7 हज़ार मिसाइलों की अकल्पनीय वर्षा की है उसके फ़ौरन बाद से ही इस्राईल ने भी युद्ध की घोषणा करते हुये ग़ज़ा पर ताबड़तोड़ हमले शुरू कर दिये हैं। दोनों ही तरफ़ से मानवता का ख़ून खुलकर बहाया जा रहा है। दोनों ही पक्षों के हज़ारों लोग अपनी जानें गँवा चुके हैं। अमेरिका सहित कई पश्चिमी देश हमास के हमले को आतंकवादी हमला बताते हुये इस्राईल के साथ खड़े हुये हैं। जबकि इस्लामी देश ख़ासकर अरब जगत इस मुद्दे पर बंटा हुआ है। ले दे कर ईरान,सीरिया व लेबनान जैसे देश व वहां का नेतृत्व बिना इस बात की परवाह किये हुये फ़िलिस्तीनियों के साथ खड़ा है कि इस्राईल को महाशक्ति अमेरिकी समर्थन हासिल है। इस्राईल तो यह भी आरोप लगा रहा है कि हमास द्वारा इज़राईल पर दाग़ी गयी लगभग 7 हज़ार मिसाइल व इसके कारण इस्राईल में हुई जान व माल की भारी तबाही के पीछे ईरान का हाथ है। परन्तु ईरान ने इस हमले में अपनी संलिप्तता से तो इंकार ज़रूर किया है परन्तु उसने हमास और फ़िलीस्तीनियों के अधिकारों व उनके संघर्ष के प्रति अपना खुला समर्थन पूर्ववत जारी रखने का एलान भी किया है। हमास का मत है कि 'फ़िलिस्तीन एक इस्लामी मातृभूमि है जिसे किसी अन्य को नहीं सौंपा जा सकता और इज़राइल से फ़िलिस्तीन का नियंत्रण छीनने के लिए पवित्र युद्ध छेड़ना फ़िलिस्तीनी मुसलमानों के लिए एक धार्मिक कर्तव्य है'। वेस्ट बैंक में भी हमास की मौजूदगी है। फ़िलहाल खंडहर के रूप में परिवर्तित हो चुके ग़ज़ा को इस्राईली सेना चारों तरफ़ से घेर कर सैन्य कार्रवाही कर रही है यहाँ तक कि उसने हवाई हमले भी किये हैं। इस्राईल ने तो फ़िलीस्तीनियों से ग़ज़ा छोड़ कर चले जाने की भी चेतावनी दे डाली है। ग़ौरतलब है की हमास का मुख्यालय भी ग़ज़ा शहर में ही है जिसे पूरी तरह ध्वस्त करने का संकल्प इस्राईली नेता बेंजमिन नीतिनयाहु ले चुके हैं।
इस पूरे दुर्भाग्यपूर्ण घटना चक्र में केवल मानवता विरोधी युद्ध ही नहीं हो रहा बल्कि पूरा विश्व इस युद्ध व इसके कारणों के विभिन्न पहलुओं को लेकर भी चिंतित है। सबसे बड़ी चिंता इस युद्ध में यह है कि जिसतरह आनन फ़ानन में अमेरिका ने अपनी सैन्य सहायता इस्राईल को सबसे पहले भेजी और उसके वरिष्ठ मंत्री भी इस्राईल आये और गये उससे एक बात साफ़ नज़र आ रही है कि इस्राईल इस समय यह लड़ाई केवल ग़ज़ा में हमास नेटवर्क को ध्वस्त करने के लिये ही नहीं लड़ रहा बल्कि इसके पीछे ईरान को उकसाने की भी पश्चिमी देशों की एक बड़ी साज़िश है। तमाम अंतराष्ट्रीय प्रतिबंधों के बावजूद ईरान का प्रगति के पथ पर निरंतर आगे बढ़ते रहना और पूरी तरह आत्म निर्भर बने रहना यहाँ तक कि सैन्य,विज्ञान व तकनीकी क्षेत्रों में भी शोधात्मक प्रगति करना पश्चिमी देशों को नहीं भा रहा है । यह किसी भी तरह ईरान को युद्ध में खींचना चाहते हैं। वर्तमान ग़ज़ा युद्ध में भी इन देशों की यही कोशिश है कि ग़ज़ा पर हो रहे इस्राईली ज़ुल्म और उसे अमेरिकी समर्थन से क्रोधित होकर किसी तरह ईरान भी युद्ध में कूद पड़े। यदि ऐसा होता है तो उसके बाद इस युद्ध की क्या शक्ल होगी इसकी कल्पना भी नहीं की जा सकती।
दूसरा पहलू इस युद्ध का यह भी है कि इस्राईल व अमेरिका सहित अनेक पश्चिमी देश जोकि स्वयं शस्त्रों का उत्पादन व व्यवसाय करते हैं उनके लिये इस तरह के युद्ध ही 'उचित बाज़ार ' हैं। लिहाज़ा हथियार उत्पादन करने व मुख्यतः इसका व्यवसाय करने वाले देशों की दिलचस्पी शांति या युद्ध रोकने में नहीं बल्कि युद्ध को और ख़तरनाक मोड़ तक ले जाने में रहती है। भीषण मारक हथियारों के इस्तेमाल के परिणाम स्वरूप जहाँ मानवता कराहती है और मानवतावादी आंसू बहाते हैं वही यह हथियार उत्पादक वैश्विक लॉबी ऐसे हथियारों के अति घातक परिणाम को अपनी व अपने उत्पाद की सफलता मानते हैं। आजकल ऐसे प्रत्येक हथियारों के प्रयोग के साथ ही उनकी वीडिओ भी बनाई जाती है ताकि उसकी कार्यक्षमता व उसके द्वारा की गयी भीषण तबाही का पूरा ख़ूनी मंज़र कैमरे में क़ैद कर अपना शस्त्र क्रेता ग्राहक देशों या आतंकवादी संगठनों को दिखाया जा सके। दुनिया के कई शस्त्र उत्पादक देश केवल अनेक देशों की सरकारों को उसके सैन्य प्रयोग के लिये ही हथियार नहीं बेचते बल्कि दुनिया के अनेक आतंकी संगठनों या कथित रूप से मुक्ति संघर्ष में लगे संगठनों को भी हथियार की आपूर्ति करते हैं। अन्यथा सोचिये कि दुनिया के तमाम आतंकी या मुक्ति संग्राम/आंदोलन के नाम पर भूमिगत होकर गुरिल्ला युद्ध करने वाले संगठनों के पास अत्याधुनिक हथियार आने का आख़िर दूसरा कौन सा ज़रिया है ?
इसी इस्राईल-ग़ज़ा संघर्ष के बीच दुनिया के सामने वह दस्तावेज़ भी ख़ूब वायरल हो रहे हैं जिसमें जर्मनी में हिटलर से सताये गये यहूदी जहाज़ों में भरकर फ़िलिस्तीन में शरण मांग रहे हैं और फ़िलिस्तीनी समुद्र तट पर लगे अपने जहाज़ पर उन्होंने एक बैनर लगा रखा है जिसपर शरण की भीख मांगते हुये यह लिखा कि – जर्मनी ने हमारे घर परिवार को तबाह व बर्बाद कर दिया है अब आप हमारी उमीदों को मत कुचलना।' ग़ौर तलब है कि 1941-45 के मध्य जर्मन तानाशाह हिटलर ने लगभग 60 लाख यहूदियों को तरह तरह की यातनायें देकर मार दिया था। यह जर्मनी में कुल यहूदियों की आबादी का लगभग एक तिहाई हिस्सा था। कहा जाता है कि बचे यहूदियों को देश से बाहर निकालते समय भी हिटलर ने कहा था कि -'मैं चाहता तो इन्हें भी मार देता। मगर मैंने इन्हें ज़िंदा इसलिये छोड़ दिया ताकि दुनिया देखे कि मैंने इन्हें क्यों मारा'। परन्तु उस घटना के लिये जोकि द्वितीय विश्व युद्ध का एक हिस्सा थी आज तक दुनिया हिटलर को अपराधी समझती है और यहूदियों के साथ उस समय हुये होलोकास्ट के चलते इस समुदाय के प्रति अपनी सहानुभूति रखती है।
परन्तु केवल आठ दशकों के अपने शरणार्थी रुपी प्रवास के दौरान जिस तरह यहूदियों ने फ़िलिस्तीन की ज़मीन पर क़ब्ज़ा करने व इन्हें इनकी ज़मीन से बेदख़ल करने तक का षड़यंत्र पश्चिमी देशों की मिली जुली साज़िश से रचा है और आये दिन उस धरती पर ख़ून की होली खेली जाती है उसे देखकर यह कहने में कोई हर्ज नहीं कि भविष्य में किसी देश के सताये हुये लोग या असुरक्षा,हिंसा,प्रताड़ना या विद्वेष के शिकार वर्ग या समुदाय विशेष के लोग यदि किसी देश में शरण मांगेंगे तो उस देश को पूरा अधिकार है कि वह फ़िलिस्तीन के साथ हुये दुनिया के सबसे बड़े धोखे को मद्देनज़र रखते हुये ही कोई निर्णय ले ?
अब रहा सवाल भारत सहित कई देशों यहाँ तक कि मुस्लिम जगत के कई देशों द्वारा इज़रायल को समर्थन देने या उसका विरोध न करने का,तो इसके लिये इस्राइल ने एक दूरगामी रणनीति के तहत पिछले तीन दशकों से उन देशों से निकटता बढ़ाई जो इज़राइल से मधुर सम्बन्ध बनाने में हिचकते थे। इसमें भारत ही नहीं बल्कि पाकिस्तान व सऊदी अरब व अरब जगत के और भी कई देश शामिल हैं। आज युद्ध के समय फ़िलिस्तीन को खुलकर मुस्लिम जगत व अन्य कई देशों का का समर्थन हासिल न हो पाना उसी इस्राईली रणनीति का परिणाम है। इसके अलावा भी ग़ज़ा में छिड़े युद्ध के और भी अनेक पहलू हैं।