जम्मू-कश्मीर की छह प्रमुख पार्टियों ने एक बैठक में यह मांग की है कि धारा 370 और 35 को वापस लाया जाए और जम्मू-कश्मीर को वापस राज्य का दर्जा दिया जाए। जो नेता अभी तक नजरबंद हैं, उनको भी रिहा किया जाए। मांगे पेश करनेवाली पार्टियों में कांग्रेस और कम्युनिस्ट पार्टी भी शामिल हैं। नजरबंद और मुक्त हुए नेता ऐसी मांगें रखें, यह स्वाभाविक है। अब फारुक अब्दुल्ला और मेहबूबा मुफ्ती यदि फिर से चुने जाएं तो क्या वे उप-राज्यपाल के मातहत लस्त-पस्त मुख्यमंत्री होकर काम कर सकेंगे ? यों भी गृहमंत्री अमित शाह ने संसद में कहा था कि जम्मू-कश्मीर को राज्य का दर्जा फिर से मिल सकता है।
मैं तो समझता हूं कि कश्मीरी नेताओं को राज्य के दर्जे की वापसी के लिए जरुर संघर्ष करना चाहिए लेकिन यह तभी भी संभव होगा जबकि सारे नेताओं की रिहाई के बाद भी कश्मीर की घाटी में शांति बनी रहे। यदि राज्य का दर्जा कश्मीर को वापस मिल जाता है तो वह भी उतना ही शक्तिशाली और खुशहाल बन सकता है, जितने कि देश के दूसरे राज्य हैं। लद्दाख के अलग हो जाने से प्रशासनिक क्षमता भी बढ़ेगी और कश्मीर को मिलनेवाली केंद्रीय सहायता में भी वृद्धि होगी। जहां तक धारा 370 की बात है, वह तो कभी की खोखली हो चुकी थी।
जम्मू-कश्मीर का राज्यपाल जितना ताकतवर होता था, उतना किसी भी राज्य का नहीं होता था। उस धारा का ढोंग बनाए रखने से बेहतर है, अन्य राज्यों की तरह रहना। धारा 35 ए के जैसी धाराओं का पालन नगालैंड और उत्तराखंड- जैसे राज्यों में भी होता है। कश्मीर तो पृथ्वी पर स्वर्ग है। वह वैसा ही बना रहे, यह बेहद जरुरी है। उसे गाजियाबाद या मूसाखेड़ी नहीं बनने देना है। इसीलिए अटल बिहारी वाजपेयी ने कहा था कि कश्मीर का हल इंसानियत और कश्मीरियत के आधार पर ही होगा। कश्मीर की कश्मीरियत बनी रहे और वह अन्य प्रांतों की तरह पूरी शांति और आजादी में जी सके, यह देखना ही कश्मीरी नेताओं के लिए उचित है। उन्हें पता है कि हिंसक प्रदर्शन और आतंकवाद के जरिए हजार साल में भी कश्मीर को भारत से अलग नहीं किया जा सकता। भारत सरकार को भी चाहिए कि वह सभी कश्मीरी नेताओं को रिहा करे और उनसे स्नेहपूर्ण संवाद कायम करे।