गणतंत्रीय गरिमा के प्रभुत्व से आलौकिक, जन के तंत्र के साथ मजबूती से सामंजस्य बनाता भारत का संविधान और एक स्वतंत्र गणराज्य के रूप में स्थापित शक्तिशाली राष्ट्र भारत सन् 1950 में जब भारत सरकार अधिनियम (एक्ट) (1935) को हटाकर भारत का संविधान लागू हुआ तब से ही संघर्ष की नई कोपलों के बीच आज भी साम्राज्यवादी दृष्टिकोण का परिचायक बना हुआ है।
भारत में तमाम सारी विभिन्ताओं के बावजूद भी एक संविधान की स्वीकृति,एक कानून की मान्यताएँ तो मुखर है, परन्तु इन्हीं कानून की आड़ में कई उपद्रव या कहे अखंडता को खंडित करने के षड़यंत्र मौजूद है। एक स्वतंत्र गणराज्य बनने और सम्पूर्ण देश में एक ही कानून की स्वीकृति के रूप में भारत के संविधान को 26 नवम्बर 1949 को भारतीय संविधान सभा द्वारा अपनाया गया और 26 जनवरी 1950 को इसे एक लोकतांत्रिक सरकार प्रणाली के साथ लागू किया गया था।
विध्न और विकास के दो पहिए लोकतंत्र की गाड़ी चला तो रहे है परन्तु उस गाड़ी को हाँकने और सही दिशा देने वाला तंत्र यायावर प्रवृत्ति का होते जा रहा है। लोकतंत्रीय समीधा अभी भी इस जनतंत्र के हवन कुण्ड में ६९ वर्ष के बावजूद भी समर्पित नज़र नहीं आ रही है। तंत्र के पास स्वसंग्रहीत शक्तियाँ अब क्षणे-क्षणे क्षीणता की तरफ अग्रसर है। कहीं वृद्धों की चीखें है तो कहीं मोबलीचिंग का भयावह नज़ारा, कही अबला की अस्मिता के तार है तो कहीं सबला का त्रिया चरित्र। कहीं अक्षुण्ण राजनीती है तो कहीं विखंडित समाज, कहीं सरपट दौड़ती आधुनिकता है तो कहीं कूड़ा-मल ढोता मानव, कहीं चीखते-चिल्लाते मासूमों का चेहरा तो कहीं दल-बदलते लोग। इन सब के बीच कही कुछ खो सा गया है तो वो केवल भारतीय होने का अभिमान या कहे आहत भारतीयता है।
हर दौर में, हर दशक में कई बार या कहें हर बार आहत भारतीयता ही हुई है। आज के दौर में भी यही भारतीयता कहीं न कहीं किसी कोने में सुबक-सुबक कर केवल इसीलिए रो रही होगी क्योंकि उसकी आँखों के सामने तरुमालिका, गगनचुंभी अट्टालिका इमारतें तो खड़ी है परन्तु उसमें बसने वाले जन के बीच पाषाणह्रदय के कारण भारतीयता पिसती जा रही है।
क्रांति के प्रांजल सूत्रधार भी अब केवल शासक की प्रशंसा के गीत गाने लगे है, और शासक भी हठधर्मिता के चलते गणतंत्र की अवहेलना में व्यस्त है। वर्तमान में तम का शासक भी महाद्वीप बनने की आकांक्षाओं के बीच जिन्दा है। अनुपयोगी संवादों से राष्ट्र का संचालन हो रहा है, कही जलीकट्टु है तो कहीं दीपावली पर पटाखों को छोड़ने का समय हो, चाहे सबरीमाला के मंदिर में प्रवेश का प्रश्न हो चाहे तीन तलाक। इन्हीं के बीच कई बार दम तोड़ जाती है मानव की भूख, उसकी सुरक्षा और उसका चरित्र चित्र।
देश की संवैधानिक संस्थानों का सड़क पर आ जाना, रिजर्व बैंक के गवर्नर के चयन को कटघरे में खड़ा हो जाना, उच्चतम न्यायालय के न्यायमूर्तियों का जनता के बीच पहुँचकर रोना, या फिर सीबीआई का बखेड़ा जनता दरबार में आ जाना कहीं न कहीं जनता के भी संवैधानिक संस्थाओं से उठते विश्वास को मुखर कर रहा है।
बहरहाल इन सब के बीच जनसमूही शौर का मुखर हो कर राष्ट्र के होने और उसके गौरवगान से विमुख होकर सामने आना भी चिंता का विषय है। सरकारों को जनता की चिंता होना कम और पार्टी के स्वाभिमान की अखंडता ज्यादा प्रभावित करने लगी है। उन्हें लगता है कि बधिर सुन लेंगे और मूक बोलने लगेंगे, परन्तु यथार्थ से परे राजनैतिक दलों को स्व में संकुचित हो जाना भी राष्ट्र के लिए चिंता की लकीर है।
भाषा की स्वीकार्यता प्राय: शांत होती जा रही है, भारतीयता और भारतीय भाषाओँ की उपेक्षा सामान्यत: हर दूसरे हिंदुस्तानी द्वारा गर्वित ह्रदय से होने लगी है परन्तु इसी के कारण कोलाहल के बीच धुआँ होती मनुष्यता भी जिम्मेदार होती जा रही है। दिशाहीन गणतंत्र अब एक घुमक्कड़ प्रवृत्ति का होते जा रहा है। मानव अब मानवीयता से, राष्ट्रनिवासी अब राष्ट्र से दूर होता जा रहा है।
इन्हीं सब कारकों के लिए जिम्मेदार तो उत्तरदायित्व के शीर्ष पर लोकतंत्र के मंदिर संसद और न्याय की संवैधानिक व्यवस्था न्यायालय के साथ-साथ शिक्षा व्यवस्था के प्रयोगवादी संस्थान विद्यालय और महाविद्यालय भी है।
१५ जून १९५४ को अज्ञेय ने लिखा था कि
'साँप ! तुम सभ्य तो हुए नहीं,
नगर में बसना भी तुम्हें नहीं आया।
एक बात पूछूँ–(उत्तर दोगे?)
तब कैसे सीखा डँसना–
विष कहाँ पाया?
आखिर इस मानवीय तंत्र के लोप के कारण से ही भारतीय गणतंत्र यायावर होता जा रहा है जो अपने निर्माण के उद्देश्यों से भटककर केवल यहाँ-तहाँ घूम रहा है।
गणतंत्र के ७ दशक बीत जाने के उपरांत आज भी यह गणतंत्र केवल चंद हाथों की कठपुतली से अधिक कुछ शेष नहीं है। इन शाश्वत अधिकारीयों के हाथों से सत्ता को जनता के हाथों में आना तो चाहिए परन्तु जनता को भी अपने अधिकारों के साथ ही कर्तव्यों का भी निर्वहन करने की सुध होनी चाहिए।
जनता को जागना होगा, वर्ना आपका राष्ट्र और उसकी राष्ट्रीयता गौण हो जाएगी और फिर हाथ में केवल मलाल रह जाएगा या फिर देश भी एक खोखला बाजार बनकर सिमट जायेगा। क्योंकि राष्ट्रधर्म खतरे में है, वो विद्रोह के स्वर गाये जा रहा है, जिसकी प्रवृत्ति उहापोह की कहानी कहती एक घुमक्कड़ की भांति भटकाव का सन्देश दे रही है। जागरण का नव दिनकर स्वयं प्रकाशित होना चाहिए, जनता को जागृत होकर विकल राष्ट्र को बचाना ही होगा, वर्ना राष्ट्र की सम्पूर्ण शक्तियाँ केन्द्र से विखंडित होकर मृदुल कोपलों को या तो सुप्त कर देगी या नष्ट कर देगी।