उदयपुर में कांग्रेस का चिंतन-शिविर आयोजित किया जा रहा है। सबसे आश्चर्य तो मुझे यह जानकर हुआ कि इस जमावड़े का नाम चिंतन-शिविर रखा गया है। हमारे नेता और चिंतन! इन दो शब्दों की यह जोड़ी तो बिल्कुल बेमेल है। भला, नेताओं का चिंतन से क्या लेना-देना? छोटी-मोटी प्रांतीय पार्टियों की बात जाने दें, देश की अखिल भारतीय पार्टियों के नेताओं में चिंतनशील नेता कितने है? क्या उन्होंने गांधी, नेहरु, जयप्रकाश, लोहिया, नरेंद्रदेव की तरह कभी कोई ग्रंथ लिखा है? अरे लिखना तो दूर, वे बताएंगे कि ऐसे चिंतनशील ग्रंथों को उन्होंने पढ़ा तक नहीं है। अरे भाई, वे इन किताबों में माथा फोड़ें या अपनी राजनीति करें? उन्हें नोट और वोट उधेड़ने से फुरसत मिले तो वे चिंतन करें। वे चिंतन शिविर नहीं, चिंता-शिविर आयोजित कर रहे हैं। उन्हें चिंता है कि उनके नोट और वोट खिसकते जा रहे हैं। इस चिंता को खत्म करना ही इस शिविर का लक्ष्य है। ऐसा नहीं है कि यह चिंतन-शिविर पहली बार हो रहा है।
इसके पहले भी चिंतन-शिविर हो चुके हैं। उनकी चिंता भी यही रही कि नोट और वोट का झांझ कैसे बजता रहे? किसी भी राजनीतिक दल की ताकत बनती है, दो तत्वों से! उसके पास नीति और नेतृत्व होना चाहिए। कांग्रेस के पास इन दोनों का अभाव है। नेतृत्व का महत्व हर देश की राजनीति में बहुत ज्यादा होता है। भारत-जैसे देश में तो इसका महत्व सबसे ज्यादा है। भारत दुनिया का सबसे बड़ा मूर्तिपूजक देश है। मूर्ति चाहे बेजान पत्थर की ही हो लेकिन भक्तों को सम्मोहित करने के लिए वह काफी होती है। आज कांग्रेस में ऐसी कोई मूर्ति नहीं है। अशोक गहलोत, भूपेश बघेल और कमलनाथ ने अपने-अपने प्रांत में अच्छा काम कर दिखाया है लेकिन क्या कांग्रेसी इनमें से किसी को भी अपना अध्यक्ष बना सकते हैं ? कांग्रेस की देखादेखी हमारी सभी पार्टियां प्राइवेट लिमिटेड कंपनियां बन गई हैं। उक्त सुयोग्य नेताओं की हैसियत भी सिर्फ मेनेजरों से ज्यादा नहीं है। यदि कांग्रेस पार्टी में राष्ट्रीय और प्रांतीय अध्यक्षों और पदाधिकारियों का चुनाव गुप्त मतदान से हो तो इस महान पार्टी को खत्म होने से बचाया जा सकता है। लेकिन सिर्फ कोई नया नेता क्या क्या कर लेगा? जब तक उसके पास कोई नई वैकल्पिक नीति, कोई सामायिक विचारधारा और कोई प्रभावी रणनीति नहीं होगी तो वह भी मरे सांप को ही पीटता रहेगा। वह सिर्फ सरकार पर छींटाकशी करता रहेगा, जिस पर कोई ध्यान नहीं देगा। आजकल कांग्रेस, जो मां-बेटा पार्टी बनी हुई है, वह यही कर रही है। कांग्रेस के नेता अगर चिंतनशील होते तो देश में शिक्षा, चिकित्सा और रोजगार को लेकर कोई क्रांतिकारी योजना पेश करते और करोड़ों लोगों को अपने साथ जोड़ लेते लेकिन हमारी सभी पार्टियां चिंतनहीन हो चुकी है। चुनाव जीतने के लिए वे भाड़े के रणनीतिकारों की शरण में चली जाती हैं। सत्तारूढ़ होने पर उनके नेता अपने नौकरशाहों की नौकरी करते रहते हैं। उनके इशारों पर नाचते हैं और सत्तामुक्त होने पर उन्हें बस एक ही चिंता सताती रहती है कि उन्हें येन, केन, प्रकारेण कैसे भी फिर से सत्ता मिल जाए।